विवेकानंद ने कहा था- एक हिंदू का धर्मान्तरण एक शत्रु का बढ़ना है

स्वामी विवेकानंद ने इस बात को पहचाना था और कहा था- एक हिन्दू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है। कश्मीर में हम यही देखते हैं।
जो वीतरागी हो, संसार से मुक्त हो, उसके नाम में 'वीर' शब्द जोड़ना कुछ अटपटा लग सकता है। स्वामी विवेकानंद और स्वामी श्रद्धानंद ऐसे दो संन्यासी हुए जिन्हें 'वीर' कहा गया है। क्योंकि उन्हें अपने समय में सन्नाटे की कायरता ओढ़े समाज को झकझोर कर जगाने की निर्भीकता दिखायी और हिन्दू धर्म तथा उसके अनुयायियों की रक्षा की।
हिन्दू धर्म के प्रति क्षमा-भाव रखना गुलाम मानसिकता की देन है। इस देश में लोकतंत्र, संविधान एवं कानून का राज्य, जो सभी नागरिकों को- मत, आस्था, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर समान अधिकार देता है, इस कारण चल रहा क्योंकि हिन्दू अभी भी यहां बहुसंख्यक हैं। यदि हिन्दू अल्पसंख्यक होंगे तो हाल वही होगा जो हम पड़ोसी- दो देशों में देखते हैं- जहां अल्पसंख्यकों को पूर्ण नागरिक हक नहीं मिलते।
स्वामी विवेकानंद ने इस बात को पहचाना था और कहा था- एक हिन्दू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है। कश्मीर में हम यही देखते हैं। वहां के मुसलमान, जो कुछ संख्या में अखबारों में विज्ञापन छपवाते कि हिन्दुस्तान के अनपढ़, जाहिल, जादूगरों और सांप-संपेरों के देश को 'सभ्य' बनाने तथा बाइबिल का उपदेश देने के लिए दान दीजिए।
स्वामी विवेकानंद इस क्रूर मजहबी आक्रमण के विरुद्ध निर्भीकता से खड़े हुए और उन्होंने अपने तर्कपूर्ण भाषणों से पश्चिमी समाज को बताया कि पश्चिम के लोगों को यदि कोई मनुष्यता का पाठ पढ़ा सकता है और उनके जीवन में शांति, परोपकार, सद्भाव तथा दूसरे मत के प्रति आदर की भावना ला सकता है तो वह है भारत का हिन्दू धर्म और दर्शन।
स्वामी विवेकानंद के इन शक्तिशाली विचारों का आज भी देश के युवाओं पर गहरा असर है। इसका एक उदाहरण कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी बेलगावी में प्रदेश के प्रसिद्ध लेखक चक्रवर्ती सुलीबेले द्वारा आयोजित विवेकानंद-निवेदिता साहित्य सम्मेलन है जिसमें हजारों युवाओं ने दो दिन विवेकानंद साहित्य तथा उसके प्रभाव के विभिन्न पक्षों पर चर्चा की। धर्म को राष्ट्रहित से जोड़े बिना राष्ट्रधर्म नहीं बनता। केवल साधना वैसे ही स्वार्थ-साधना बन जाती है जैसे सड़क-पानी-बिजली मात्र को राष्ट्रीयता मानना। दोनों तत्वों का समन्वय राष्ट्रहित एवं राष्ट्रीयता को सार्थक करता है।
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्रहित को ही राष्ट्र-साधना माना और उद्योग एवं कृषि अनुसंधान भी धर्म के दायरे में लाए। विश्व में महापुरुषों की जयंती, पुण्यतिथियां मनाई जाती हैं- समझ में आता है। पर क्या किसी ने किसी भाषण की जयंती- साल दर साल मनाने का चलन देखा है? और अब, जब उस भाषण की 125वीं जयंती दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मनाई जा रही हो तो उसी से कल्पना की जा सकती है कि जिस महापुरुष ने वह भाषण दिया था, उनका व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। ऐसे थे स्वामी विवेकानंद।
सिर्फ 30 वर्ष की आयु में, बिना साधन, बिना परिचय वे अमेरिका के शिकागो नगर पहुंचे। बहुत दिक्कतें हुईं। दो महीने समुद्री यात्रा के बाद पहुंचे तो सर्दी में पहनने के कपड़े नहीं थे। कार्ड बोर्ड के बक्से में घुसकर रात बितायी। पर उन पर ठाकुर का आशीर्वाद था। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे। शिकागो धर्म संसद में बोलना था- पर उसके लिए आवश्यक अनुमति नहीं। पर निश्चय सत्य हो निष्ठा अचल हो तो ईश्वर मदद करता है। कल्पना करिए- सात हजार बुद्धिजीवियों से भरा सभागार। विश्व के महान धर्मों के विख्यात प्रतिनिधि विद्वान मंच पर वक्ता के नाते विराजमान। उनके मुख्य हिन्दू धर्म, दर्शन, वेदांत पर बोलने के लिए 30 वर्षीय युवा संन्यासी।
कितने नर्वस होंगे वे। सरस्वती को मनसा प्रणाम कर उन्होंने पहला वाक्य ही बोला- 'अमेरिका के भाइयों और बहनों- इस एक सम्बोधन से ही सभा में बैठे लोग इतने रोमांचित हो गए कि दो मिनट तक तालियां बजती रहीं- दो मिनट तक। और तालियों की गड़गड़ाहट बंद होने के बाद उन्होंने, भारत, हिन्दू धर्म और भारतीय जन के मन में बसी सहिष्णुता, उदारता, सर्व धर्म समभाव का जो अद्भुत वर्णन किया- केवल सात मिनट में उन्होंने सात युगों का सार बता दिया। विश्व की भारत के प्रति दृष्टि ही बदल गयी।
भारत को जो विदेशी संपेरों, गंवारों, और जादूगरों के तमाशों का देश मानकर तरस खाते थे, हीनता से देखते थे, हमें हीदन और पैगन का देश कहत थे उन्हें लगा कि भारत से उन्हें मनुष्यता सीखनी है, सहिष्णुता सीखनी है, पृथ्वी को बेहतर बनाने वाली उदारता सीखनी है।
यह उद्बोधन भारत की सुप्त आत्मा को जागृत कर गया, धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ गया, विश्व को भारत के प्रति नवीन सभ्य दृष्टि दे गया।
स्वामी विवेकानंद ने गर्व एवं अभियान के साथ हिन्दू धर्म की महानता और गौरव का जो परिचय अमेरिका के सुसंस्कृत समाज को दिया, वह युग परिवर्तनकारी था, अमेरिका में उन्होंने कहा कि मैं यहां आपका धर्म परिवर्तन करने नहीं आया हूं- बल्कि मेथोडिस्ट को बेहतर मेथोडिस्ट, प्रेस्बीटेरियन को बेहतर प्रेस्बीटेरियन बनाने आया हूं- उस सत्य का दर्शन कराने जो सत्य आपके भीतर विद्यमान है।
यह है भारत का विश्व को संदेश। हम किसी को पापी नहीं मानते, बल्कि सबको अमृत का पुत्र और पुत्री मानते हैं। सबमें उस एक सत्य एक ईश्वर का दर्शन करते हैं जो विभिन्न रूपों और नामों से जाना जाता है।
हिंसा, विद्वेष, कलुष, प्रतिशोध से भरे इस विश्व को भारत का सही उत्तर मन का मार्ग समाधान दे सकता है।
वे कुरीतियों, अंधविश्वास तथा मनुष्य के मनुष्य के प्रति भेदभाव पर कठोरतम प्रहार करते थे। उनका स्वदेश मंत्र घर-घर में, हर विद्यालय और संस्थान में रखने, पढ़ने और मनन के योग्य है जिसमें उन्होंने कहा- कि मत भूलो कि दरिद्र, मेहतर, अज्ञानी तुम्हारे रक्त, तुम्हारे भाई हैं- गर्व से बोलो कि मैं भारत वासी हूं और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। कितने शक्तिशाली शब्द- कैसा था वो संन्यासी जो सारे भारत को जोड़ गया।
वे कहते थे हर भारतीय स्त्री पुरुष को धनी होना चाहिए। उद्योग लगाओ, उद्योगी बनो- उनका आह्वान था। एक बार वे एक्सप्रेस नामक जहाज में बैठ जापान जा रहे थे। साथ में संयोग से जमशेद जी टाटा भी थे। बातचीत में पता चला वे जापान से माचिस के आयात हेतु जा रहे हैं- स्वामी जी ने कहा- एक पतली सी लकड़ी का बक्सा, बारीक लकड़ियों की तीलियों पर लगा बारूदी मसाला- क्या हम भारत में यह भी नहीं बना सकते? जो भी उद्योग लगाना हो, भारत में ही लगाओ। जमशेद जी टाटा ने उनकी प्रेरणा से भारत में टाटा स्टील का उद्योग लगाया। स्वामी जी ने अल्मोड़ा में भारत का प्रथम कृषि अनुसंधन संस्थान स्थापित करवाया- कृषि वैज्ञानिक प्रो. बोशी सेन ने 4 जुलाई 1924 को कोलकाता में पहले यह संस्थान खोला और नाम रखा विवेकानंद लेबोरेटरी। उसे 1936 में अल्मोड़ा स्थानांतरित किया जो 1959 में उत्तर प्रदेश सरकार को दिया गया तथा 1 अक्टूबर 1974 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारत सरकार (ICAR) ने इसे अपने अंतर्गत लेकर उसका नाम विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान रखा।
संन्यासी का अर्थ स्वामी विवेकानंद ने समझाया।
- तरुण विजय
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