भारत के विरुद्ध अमेरिकी एजेंसियों समेत पश्चिमी देशों की फितरत पर दमदार पलटवार की है जरूरत, अन्यथा नहीं चेतेंगे
कहना न होगा कि लोकतंत्र, मानवाधिकार, मीडिया की स्वतंत्रता और भूख जैसे मुद्दों पर भारत को जानबूझकर निशाना बनाया जाता है। क्योंकि कुछ सरकारों की आदत होती है कि वह दूसरों से जुड़े हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हैं। इसलिए भारत सरकार ने भी सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी से अवगत करा दिया है।
भारत सरकार ने अमेरिका की एक प्रतिष्ठित एजेंसी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) पर भारत में जारी आम चुनाव 2024 की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया है। क्योंकि गत दिनों ही यूएससीआईआरएफ की तरफ से धार्मिक आजादी पर एक रिपोर्ट जारी की गई, जिसमें भारत में धार्मिक आजादी की स्थिति को चिंताजनक बताते हुए इसकी स्थिति लगातार खराब होने की बात कही गई है।
यही वजह है कि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने यूएससीआईआरएफ को राजनीतिक एजेंडे वाला पक्षपाती संगठन करार दिया है। यही नहीं, उन्होंने सालाना स्तर पर जारी होने वाली इस रिपोर्ट को राजनीतिक प्रोपेगंडा कहा है। बकौल रणधीर जायसवाल, "यूएससीआईआरएफ को राजनीतिक एजेंडे वाले पक्षपाती संगठन के रूप में जाना जाता है। इसने वार्षिक रिपोर्ट के हिस्से के रूप में भारत के बारे में अपना दुष्प्रचार प्रकाशित करना जारी रखा है। हमें वास्तव में ऐसी उम्मीद भी नहीं है कि यह आयोग भारत की विविधतापूर्ण, बहुलतावादी और लोकतांत्रिक मूल भावना को समझने की कोशिश भी करेगा। उनके द्वारा दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए किए गए प्रयास कभी सफल नहीं होंगे।"
यूँ तो अमेरिका की चुनाव प्रक्रिया के दौरान वहां के राजनीतिक दल और राजनेता कभी चीन तो कभी रूस पर हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन अब भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने बजाप्ता प्रेस कांफ्रेंस करके अमेरिका की प्रतिष्ठित एजेंसी यूएससीआईआरएफ पर भारत में जारी चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का जो आरोप लगाया है, उसके गहरे निहितार्थ हैं। क्योंकि यह पहला मौका है जब भारत ने किसी अमेरिकी एजेंसी पर लोकतांत्रिक तरीके से होने वाली चुनावी प्रक्रिया में अमेरिकी एजेंसी की तरफ से हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया है। संभवतया यह अमेरिकी एजेंसियों को लेकर भारत के बदले रवैये को भी बतलाता है।
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इस बात में कोई दो राय नहीं कि अमेरिका भारत का एक अहम रणनीतिक साझीदार देश है। हाल के वर्षों में भारत के द्विपक्षीय रिश्तों में जितनी गहराई अमेरिका के साथ आई है, वैसा किसी भी दूसरे देश के साथ देखने को नहीं मिला है। बावजूद इसके अमेरिका या कुछ दूसरे पश्चिमी देशों की एजेंसियों की तरफ से भारत में मानवाधिकार, धार्मिक आजादी, प्रेस की स्वतंत्रता जैसे मुद्दे के जरिये किये जाने वाले हस्तक्षेप भारतीय नेतृत्व बर्दाश्त नहीं कर सकता है। इसलिए ऐसे हस्तक्षेप को लेकर सख्ती से जवाब देने की रणनीति भारत अपना चुका है, जो बहुत बड़ी बात है।
कहना न होगा कि लोकतंत्र, मानवाधिकार, मीडिया की स्वतंत्रता और भूख जैसे मुद्दों पर भारत को जानबूझकर निशाना बनाया जाता है। क्योंकि कुछ सरकारों की आदत होती है कि वह दूसरों से जुड़े हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हैं। इसलिए भारत सरकार ने भी सार्वजनिक तौर पर अपनी नाराजगी से अवगत करा दिया है। हमें इस बात पर फक्र होना चाहिए कि आज का भारत एक गाल पर तमाचा मारने पर दूसरा गाल आगे नहीं बढ़ाता। क्योंकि अगर अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देश यदि भारत विरोधी प्रतिक्रिया दे सकते हैं, तो भारत भी अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देशों के खिलाफ प्रतिक्रिया दे सकता है। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि विदेश के मामले में दखल देने की यह आदत कभी कभी उल्टी भी पड़ सकती है।
हैरत की बात तो यह है कि यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट में भारत में धार्मिक स्थिति को लेकर काफी विवादास्पद टिप्पणी की गई है। इसमें भारत को अफगानिस्तान, अजरबैजान, नाइजीरिया, वियतनाम जैसे देशों की श्रेणी में रखा गया है। वहीं, अमेरिकी विदेश मंत्रालय से आग्रह किया गया है कि भारत को भी धार्मिक आजादी को लेकर खास चिंता वाले देश (सीपीसी) की श्रेणी में रखा जाए। इस श्रेणी में रखे जाने वाले देशों को लेकर अमेरिकी प्रशासन का रवैया अलग होता है। साथ ही उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था है।
याद दिला दें कि यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट आने से कुछ दिन पहले ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर चिंता जताई थी। जिसपर पलटवार करते हुए भारतीय विदेश मंत्रालय ने दो टूक जवब दिया था कि अमेरिकी संस्थाएं भारत के बारे में अपनी खराब समझ का परिचय दे रही हैं। भारत के प्रति जितना दुराग्रह अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट में झलक रहा था, उतना ही यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट में भी। इससे स्पष्ट है कि पश्चिमी देशों यानी अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों का श्रेष्ठता बोध कभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। जबकि इन देशों की हकीकत अब दुनियावी देशों से छिपी हुई नहीं है। अमरीकी नस्लीय हिंसा और वहां के विश्वविद्यालयों में हो रहे पक्षपाती प्रदर्शनों के बारे में वह खुद ही समझ ले, तो उसके दूरगामी हित में होगा।
सीधा सवाल है कि भारत के आंतरिक मामलों में अनावश्यक टिप्पणी करने वाले पश्चिमी देशों की संस्थाएं क्या दुनिया को यह बता पाएंगी कि अमेरिका में पुलिस विश्वविद्यालयों में धावा क्यों बोल रही है और ब्रिटेन अवैध प्रवासियों को पकड़-पकड़ कर रवांडा क्यों भेज रहा है? इसी तरह कनाडा में हड़ताली ट्रक ड्राइवरों से निपटने के लिए आपातकाल क्यों लगा दिया जाता है? इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि ये वही पश्चिमी संस्थाएं हैं जो कृषि कानून विरोधी उग्र आंदोलन और शाहीन बाग के अराजक धरने को एक तरह से न केवल अपना समर्थन दे रही थीं, बल्कि भारत को मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ भी पढ़ा रही थीं।
मेरा मानना है कि अमेरिका, कनाडा समेत यूरोपीय देश तब तक बाज नहीं आने वाले जब तक भारत भी इन देशों के मामलों में अपनी प्रतिक्रिया देना नहीं शुरू करता। वैसे भी भारत को केवल प्रतिक्रिया ही नहीं देनी चाहिए, बल्कि बाकायदा रिपोर्ट जारी कर यह बताना चाहिए कि इन देशों में क्या कुछ गड़बड़ हो रही है, क्योंकि किसी भी देश में सब कुछ ठीक नहीं रह सकता है। जब भारत ऐसा करेगा, तभी पश्चिमी देश चेतेंगे, अन्यथा कतई नहीं।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
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