चुनाव दर चुनाव हार मिलने के कारण मायावती अब कांशीराम ब्रांड सियासत की ओर लौटेंगी
मायावती को इसलिए भी कांशीराम ब्रांड सियासत की तरफ रुख करना पड़ रहा है क्योंकि आजकल सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी दलित वोटरों पर डोरे डाल रहे हैं। उन्हें लगता है कि बसपा के कमजोर होने पर उसका दलित वोटर समाजवादी पार्टी के पाले में आ सकता है।
हिन्दुस्तान की सियासत में दलित चिंतक और संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर के कद का कोई दूसरा दलित नेता नहीं ‘पैदा’ हुआ। उनके बाद देश की सक्रिय राजनीति में जो दो बड़े दलित नेता हुए। उसमें एक थे कांग्रेस पार्टी के बाबू जगजीवन राम तो दूसरे थे कांशीराम, जिन्हें उनके चाहने वाले मान्यवर कहकर बुलाते थे। जगजीवन राम राजनीति का बड़ा दलित चेहरा तो जरूर थे, लेकिन कांग्रेस ने उनके हाथ-पैर बांध रखे थे। कांग्रेस का नेतृत्व समय देखकर उनका ‘इस्तेमाल’ करता था। वहीं दूसरे बड़े नेता कांशीराम ने अपने बल पर दलित राजनीति में अपना मुकाम हासिल किया। उन्होंने दलित सियासत का चेहरा ही बदलकर रख दिया। दलित समाज में चेतना जगाने का काम कांशीराम से बेहतर शायद ही किसी ने किया होगा। कांशीराम ने दलित राजनीति का ऐसा समीकरण तैयार किया जिसके बल पर उन्होंने उत्तर प्रदेश को पहला दलित मुख्यमंत्री मायावती को बनवा दिया। कांशीराम ने यह चमत्कार पार्टी गठन के एक दशक बाद ही कर दिखाया। अपने अंतिम समय में कांशीराम ने मायावती को ही अपना सियासी उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया।
बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी मान्यवर कांशीराम की सियासत को आगे बढ़ाने का काम बखूबी पूरा किया। लेकिन बीच-बीच में वह कांशीराम के दिखाए रास्ते से भटकती भी रहीं। जिसका मायावती को खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इसी भटकाव के चलते 2012 के बाद से मायावती की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई। वह चुनाव दर चुनाव हारती गईं। इन्हीं लगातार मिलने वाली हार से सबक लेते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती अब एक बार फिर अपने राजनैतिक गुरु मान्यवर कांशीराम के पद चिन्हों पर आगे बढ़ती नजर आ रही हैं। वह कांशीराम की विचार धारा और उनके चर्चित नारों को भी धार देने लगी हैं। इस बात का अहसास तब हुआ जब उन्होंने बसपा पदाधिकारियों की मीटिंग में मान्यवर कांशीराम के एक पुराने नारे को फिर से ‘जिंदा’ कर दिया।
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गौरतलब है कि कांशीराम की राजनीति के साथ-साथ उनके नारे भी बहुत चर्चा में रहा करते थे। इन नारों को लेकर हंगामा भी खूब हुआ। 1973 में बाबा साहेब अंबेडकर के जन्मदिन पर उन्होंने ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन नाम का संगठन बनाया जो बामसेफ के नाम से चर्चित हुआ। इस संगठन के बैनर तले वह शोषित पीड़ित समाज को एकजुट करते रहे। 1981 के आते-आते उन्हें संगठन में बदलाव की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने इसे नया नाम दिया ‘दलित शोषित समाज संघर्ष समिति’ शॉर्ट में ये डीएस-4 कहा गया। इस संगठन के तेवर काफी तीखे थे। इस संगठन के साथ एक नारा चलता था- ‘ठाकुर-ब्राह्मण-बनिया छोड़ बाकी सब हैं सब डीएस-4। दलितों को अधिकार के लिए राजनीति में उतरे कांशीराम को नारों ने अलग पहचान दिलाई। उनका एक नारा खूब चर्चित हुआ था- तिलक-तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। 90 के दशक में जब ये नारा पहली बार सामने आया तो हंगामा मच गया। कहते हैं कि कांशीराम जब मंच पर आते तो पहले ही ऊंची जातियों को उठकर जाने को कह दिया करते थे। हालांकि, बाद में बहुजन समाज पार्टी ने इससे किनारा कर लिया था। मायावती ने भी इस नारे से दूरी बना ली थी। मगर अब बसपा सुप्रीमो को तमाम चुनावों में मिल रही हार के बाद एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की ‘याद’ आने लगी है। बसपा की स्थापना के समय मान्यवर कांशीराम द्वारा दिया गया नारा ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा’ एक बार फिर चर्चा में है। चर्चा इसलिए है क्योंकि नगर निकाय चुनाव में हार के बाद खुद बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी पदाधिकारियों को यह नारा याद दिलाया है। इसी नारे के सहारे बसपा सुप्रीमो ने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं से गांव-गांव तक जाने और लोकसभा चुनाव 2024 में हालात बदलने का आह्वान किया है। अब इसको लेकर हर तरफ सवाल यही है कि क्या मायावती एक बार फिर दलित वोटों की तरफ मजबूती के साथ लौट कर अपना खोया हुआ जनाधार पाना चाहती हैं।
गौरतलब है कि बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक और दलित चिंतक 1983-84 के दौर में जब अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत बना रहे थे, तभी ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा’ नारा उनकी तरफ से उछाला गया था। यह नारा बसपा के गठन के बाद भी काफी तक पार्टी के कार्यक्रमों में गूंजता रहा। खासतौर से दलितों और अति पिछड़ों में राजनीतिक चेतना का संचार करने के लिए यह नारा गढ़ा गया था। हालांकि, बाद में वह दौर भी आया, जब ये नारे बसपा की लिस्ट से गायब हो गए और 2007 में नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग की गई। पार्टी में ब्राह्मणों को और अन्य सवर्णों को तवज्जो मिली और बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। हालांकि, उसके बाद से यह सोशल इंजीनियरिंग काम नहीं आई और लगातार बसपा का जनाधार घटता जा रहा है। मायावती ने दलित-मुस्लिम कार्ड भी खेला और ब्राह्मण-दलितों को एक साथ लाने का भी भी दांव चला, परंतु नतीजे कभी उनके पक्ष में नहीं आए।
हाल में सम्पन्न उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव के जरिए पार्टी में नया जोश भरने की कोशिश की गई, लेकिन इसमें भी प्रदर्शन निराशाजनक रहा। इस हार के बाद ही बसपा को फिर से चार दशक पुराना नारा याद आया है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि हार के बाद बसपा प्रमुख ने सभी कोऑर्डिनेटरों से फीडबैक लिया। इसमें यह बात सामने आई कि वोट प्रतिशत काफी कम रहा है। महापौर की सभी 17 सीटों पर प्रत्याशी उतारने के बाद महज 12 प्रतिशत वोट मिले हैं। छिटके हुए दलितों को भी वापस लाने में कामयाबी नहीं मिली। जाटवों को छोड़कर बाकी ज्यादातर दलित जातियों में पार्टी पैठ नहीं बना सकी है। ऐसे में बसपा की चिंता यह भी है कि वह अपने बेस वोटबैंक दलितों को कैसे आकर्षित करे। इसके साथ ही अति-पिछड़ी जातियां बसपा से दूरी बनाए हुए हैं। उनको लेकर भी मंथन हुआ। सभी दलितों और अति-पछड़ों में राजनीतिक चेतना जागृत करने के मकसद से ही बसपा ने पुराने नारे के साथ 2024 में जाने का निर्णय लिया है। पार्टी को चिंता इस बात की भी है कि काफी कोशिशों के बावजूद वह युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रही है। इसके लिए वह फिर नए सिरे से बूथ स्तर तक संगठन में 50 फीसदी युवाओं की भागेदारी को बढ़ाने जा रही है।
मायावती को इसलिए भी कांशीराम ब्रांड सियासत की तरफ रुख करना पड़ रहा है क्योंकि आजकल सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी दलित वोटरों पर डोरे डाल रहे हैं। उन्हें लगता है कि बसपा के कमजोर होने पर उसका दलित वोटर समाजवादी पार्टी के पाले में आ सकता है। ऐसा इसलिए भी होता दिख रहा है क्योंकि 2014 में देश की राजनीति में बदले हुए राजनीतिक समीकरण के बाद जहां एक तरफ क्षेत्रीय पार्टियों का जनाधार लगातार गिर रहा है। वहीं अब समाजवादी पार्टी को भी लग रहा है कि यादव और मुस्लिम बिरादरी के साथ-साथ अब एक ऐसे राजनीतिक गठबंधन की जरूरत है जो उनके लिए एक बड़ा वोट बैंक बने। अब अखिलेश यादव को भी लगने लगा है कि यादव और मुस्लिम बिरादरी के साथ-साथ ऐसे वोट बैंक की जरूरत है जो ना सिर्फ इन्हें मजबूत कर सके बल्कि राजनैतिक और जाति समीकरण के आधार पर इनके नेताओं को विधानसभा पहुंचाने में भी कारगर साबित हो। ऐसे में हाल ही में अखिलेश यादव ने एक बड़ा दांव खेलते हुए दलितों के मसीहा माने जाने वाले कांशीराम की मूर्ति का अनावरण करने की बात कही थी।
-स्वदेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व राज्य सूचना आयुक्त हैं)
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