उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ निर्विवाद रूप से सबसे बड़ी नेत्री हैं मायावती
मायावती अखिलेश की संयुक्त प्रेस कांफ्रेस के साथ ही यह भी साफ हो गया कि राष्ट्रीय लोकदल को लेकर मायावती में कोई उत्साह नहीं है, जबकि अखिलेश भी कुछ बोलने से कतराते दिखे। गठबंधन को लेकर काफी कौतुहल तो दिखाई दिया, लेकिन यह नहीं भुलना चाहिए कि हर चुनाव का अलग मिजाज होता है।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की प्रेस कांफ्रेस हो चुकी है। दोनों 38−38 सीटों पर चुनाव लड़ेगें। मायावती ने भाजपा और कांग्रेस को तौला तो एक ही तराजू पर लेकिन अमेठी में राहुल गांधी ओर और रायबरेली सोनिया गांधी के खिलाफ गठबंधन का कोई प्रत्याशी नहीं उतारे जाने की बात कहकर कई संकेत भी दे दिए। कांग्रेस से गठबंधन नहीं होने की बड़ी वजह मायावती ने यही बताई कि कांग्रेस का वोट उनके पक्ष में ट्रांसफर नहीं होता है, संकेत की भाषा को समझा जाये तो उन्हें लगता है कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करने से उसका वोट भाजपा के खाते में चला जाता है। मायावती अखिलेश की संयुक्त प्रेस कांफ्रेस के साथ ही यह भी साफ हो गया कि राष्ट्रीय लोकदल को लेकर मायावती में कोई उत्साह नहीं है, जबकि अखिलेश भी कुछ बोलने से कतराते दिखे। गठबंधन को लेकर आज काफी कौतुहल तो दिखाई दिया, लेकिन यह नहीं भुलना चाहिए कि हर चुनाव का अलग मिजाज होता है। सपा−बसपा की जोड़ी भाजपा को टक्कर तो जरूर देगी, लेकिन चुनाव एक तरफा हो जायेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हॉ, यह बात भी साफ हो गई है कि उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमों मायावती निर्विवाद रूप से मोदी के खिलाफ सबसे बड़ी नेत्री बनकर उभरी हैं तो राहुल गांधी की हैसियत चौथे नंबर पर है।
बहरहाल, बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने एक साथ चुनाव लड़ने की घोषणा करके उत्तर प्रदेश की सियासत में 25 वर्षो के बाद एक बार फिर इतिहास दोहरा दिया । 1993 में जब बीजेपी राम नाम की आंधी में आगे बढ़ रही थी तब दलित चिंतक और बसपा नेता कांशीराम एवं समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने ठीक इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव फतह के लिये हाथ मिलाकर भाजपा को चारो खाने चित कर दिया था। उस समय नारा भी लगा था,' मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्री राम। 'खास बात यह है कि तब भी अयोध्या मंदिर−मस्जिद विवाद में सुलग रही थी और आज भी कमोवेश ऐसे ही हालात हैं। बस फर्क इतना भर है कि 1993 में कमंडल (अयोध्या विवाद) के सहारे आगे बढ़ रही बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के उस समय के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बीएसपी सुप्रीमो कांशीराम ने हाथ मिलाया था तो 25 वर्षो बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मुलायम की जगह उनके उत्ताराधिकारी मायावती और अखिलेश यादव गठबंधन की रहा पर आगे बढ़ रहे हैं। दोनों नेताओं को लगता है कि साथ चलने से वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव की जैसी दुर्गित को रोका जा सकता है।
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सपा−बसपा इस बात का अहसास राज्य में तीन लोकसभा सीटों पर हुए उप−चुनाव जीत जीत कर करा भी चुके हैं। इस साल के मध्य से कुछ पूर्व होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर वोटिंग पैटर्न उप−चुनावों जैसा ही रहा तो सपा−बसपा गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा को 35−40 सीटों पर समेट सकता है। सपा−बसपा की राह इस लिये भी आसान लग रही है क्योंकि यहां कांग्रेस फैक्टर बेहद कमजोर है, इसी के चलते सपा−बसपा ने गठबंधन से कांग्रेस को दूर भी रखा।
गौरतलब हो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी,जिसमें उसकी सहयोगी अपना दल की भी दो सीटें शामिल थीं। वहीं समाजवादी पार्टी 5 सीट और कांग्रेस महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। बसपा का तो खाता भी नहीं खुल पाया था। करीब पांच वर्षो के बाद आज भी लोकसभा में बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। राजनीति के जानकार सपा−बसपा गठबंधन की बढ़त की जो संभावना व्यक्त कर रहे हैं। उसमें वह वर्ष 2014 में अपना दल और बीजेपी तथा सपा−बसपा के वोट शेयर का तुलनात्मक अध्ययन को आधार बना रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हर सीट पर जीत का आकलन किया जाये तो पता चलता है कि अगर एसपी−बीएसपी साथ आए तो वह आधी यानी करीब 41 लोकसभा सीटों पर भाजपा को हरा सकते हैं।
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यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरे पहलू पर नजर दौड़ाई जाए तो लोकसभा की तीन सीटों पर हुए उप−चुनाव के समय वोटिंग का प्रतिशत कम रहा था। माना यह गया कि भाजपा का कोर वोटर वोटिंग के लिये निकला ही नहीं था। मगर आम चुनाव के समय हालात दूसरे होंगे। फिर हमेशा चुनावी हालात एक जैसे नहीं होते हैं। मोदी सरकार सभी वर्ग के लोगों को लुभाने के लिए गरीब अगड़ों को दस प्रतिशत आरक्षण का एतिहासिक फैसला कर चुकी है। यूपी में आरक्षण कोटे में कोटा का खेल करके बीजेपी सपा−बसपा के दलित−पिछड़ा वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रही है। व्यापारियों को जीएसटी में राहत, तीन तलाक पर एक बार फिर अध्यादेश लाना भी मोदी सरकार की सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है। आने वाले दिनों में आयकर की सीमा बढ़ाकर मध्य वर्ग को खुश किया जा सकता है। किसानों के लिये भी कई महत्वपूर्ण घोषणा हो सकती हैं। मोदी ने अपर कास्ट को आरक्षण का जो मास्टर स्ट्रोक चला है, वह आम चुनाव में अपना असर दिखा सकता है। इसके अलावा भी यह ध्यान रखना होगा कि लोग किन−किल मुद्दों पर वोट करेंगे।यह सच है कि साल 2014 में दस वर्ष पुरानी कांग्रेस गठबंधन वाली यूपीए सरकार को लेकर मतदाताओं में जबर्दस्त रोष था और विकल्प के रूप में उनके सामने प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी जैसा दावेदार मौजूद था।
2019 में मोदी सरकार का कामकाज मतदाताओं के सामने मुख्य मुद्दा होगा, लेकिन सवाल यह भी रहेगा कि मोदी नहीं तो कौन? फिलहाल तो विपक्ष के पास मोदी के समकक्ष तो दूर आस−पास भी कोई नेता नजर नहीं आता है। खासकर कांग्रेस के संभावित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी एक बड़ा ड्रा बैक नजर आ रहे हैं, जिसकी सोच का दायरा काफी छोटा और संक्रीण है।
यहां यह भी ध्यान देना होगा कि बीएसपी हो या फिर समाजवादी पार्टी गठबंधन के बाद सपा−बसपा के जिन नेताओं के चुनाव लड़ने की उम्मीदों पर पानी फिरेगा, वह चुप होकर नहीं बैठेंगें। यह बगावत कर सकते हैं। चुनाव नहीं भी लड़े तो पार्टी को नुकसान पहुंचाने से इन्हें गुरेज नहीं होगा। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि हर पार्टी में ऐसे वोटरों की भी संख्या अच्छी−खासी होती है जो किसी और दल के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने से कतराता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। इसके अलावा एक हकीकत यह भी है कि योगी के सत्ता में आने से पहले समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच ही सत्ता का खेल चलता था। ऐसे में दोनों पार्टियों के तमाम नेता सत्ता बदलने पर एक−दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल देते थे, जिसमें अपने हित साधने के लिये आपस में मारकाट से लेकर जमीनों पर कब्जा, खनन−पटटों के लिये खूनी खेल तक खेला जाता था। ऐसे में सपा के कुछे नेता बसपा के पक्ष में अपने समर्थको से मतदान नहीं कराएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे ही हालात बसपा में भी हैं। इसी प्रकार से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद मतदाता बसपा के पक्ष में वोट नहीं करना चाहते। यहां जाट और जाटव (दलित) हमेशा विरोधी खेमें में खड़े रहते हैं। सपा−बसपा के जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, वह बागी रूख अख्तियार करने के अलावा भाजपा नेताओं से भी हाल मिला सकते हैं।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक साल 1993 के विधानसभा चुनावों का हवाला देते हैं जब सपा−बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में भाजपा और सपा−बसपा ने लगभग बराबर सीटें हासिल की थीं। तब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था और बीजेपी ने वहां 19 सीटें जीती थीं और कांग्रेस भी यहां इतनी दयनीय स्थिति में नहीं थी। तब कुर्मी और राजभर जैसी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधि करने वाले कई नेता जो तब बसपा में थे, अब भाजपा के साथ खड़े हैं। मोदी जैसा गणितिज्ञ चेहरा भी भाजपा के पास है, जो आने वाले दिनों में वोटरों को लुभाने के लिये कई सौगातों की बरसात कर सकते हैं। फिर भी 1993 के सहारे सपा−बसपा नेता हौसलाफजाई तो कर ही सकते हैं।
- अजय कुमार
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