कांग्रेस की हालत सुधरी, लेकिन इतिहास रचने से रह गई

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पांच साल पहले के आम चुनावों की तुलना में 2024 में कांग्रेस को 99 सीटें मिली हैं। दिलचस्प यह है कि इनमें पिछली बार जीती गईं, 13 सीटें शामिल नहीं हैं। क्योंकि तेरह सीटें कांग्रेस हार चुकी है। फिर भी पार्टी ऐसे उछल रही है, मानो उसने तीन सौ सीटें जीत ली हो।

सोलहवीं और सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों की तुलना में देखें तो अठारहवीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 99 सीटों पर जीत बड़ी कही जा सकती है। इस पर कांग्रेस नेताओं का इतराना स्वाभाविक भी है। स्वाधीनता आंदोलन की प्रतिनिधि माने जाते रहे राजनीतिक दल का शीर्ष नेतृत्व इस तरह खुश हो रहा है, मानो उसने बड़ा तमगा हासिल कर लिया हो। लेकिन क्या यह कामयाबी इतनी बड़ी है कि पार्टी को इसकी खुशी में झूमना चाहिए? देश पर सबसे ज्यादा और तकरीबन सभी राज्यों में सबसे अधिक वक्त तक जिस पार्टी की सरकार रही हो, क्या उसके लिए यह जीत बड़ी मानी जा सकती है?

1885 में एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना यह सोचकर नहीं की थी कि आने वाले दिनों में वह उनकी ही नस्ल के शासन के खिलाफ उठ खड़ी होगी, बल्कि भारतीय आजादी की मांग के साथ हुंकार भरने लगेगी। ह्यूम ने यह भी शायद ही सोचा होगा कि अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भारतीयों के गुस्से के तार्किक इजहार के लक्ष्य से स्थापित कांग्रेस उन्हीं की प्रतिनिधि पार्टी बन जाएगी। पहले तिलक और बाद में गांधी का स्पर्श पाकर कांग्रेस ने जैसे अपना चोला बदल लिया। इसका फल उसे आजादी के बाद मिला और तीस सालों तक लगातार वह शासन में रही। उसे पहली बार 1977 में झटका लगा। लेकिन वह जल्द ही वापसी करने में कामयाब रही। ऐसे ही अल्पकालिक झटके उसे, 1989 और 1996 में भी लगे। 1998 में लगे झटके के ठीक अगले साल वह वापसी करती दिखी, लेकिन उसी साल हुए चुनावों के बाद पांच साल के लिए बाहर हो गई। कांग्रेस के इतिहास में यह पहला मौका रहा, जब उसे लगातार पांच साल के लिए सत्ता से बाहर रहना पड़ा। 2004 में अल्पमत से ही सही उसने वापसी की और दस साल तक गठबंधन का सरकार चलाया। लेकिन 2014 के चुनावों में उसकी ऐतिहासिक हार हुई और वह महज 44 सीटों पर सिमट गई। देश पर सबसे ज्यादा वक्त शासन करने वाली पार्टी को नेता प्रतिपक्ष तक का पद नहीं मिला और यही स्थिति 2019 में भी रही, बेशक आठ सीटें बढ़ गईं। दिलचस्प यह है कि गांधी-नेहरू परिवार के चश्म-ए-चिराग के हाथों में पूरी कमान थी। इससे पार्टी में निराशा फैलना स्वाभाविक था, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे से चरम अभिव्यक्ति मिली। 

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पांच साल पहले के आम चुनावों की तुलना में 2024 में कांग्रेस को 99 सीटें मिली हैं। दिलचस्प यह है कि इनमें पिछली बार जीती गईं, 13 सीटें शामिल नहीं हैं। क्योंकि तेरह सीटें कांग्रेस हार चुकी है। फिर भी पार्टी ऐसे उछल रही है, मानो उसने तीन सौ सीटें जीत ली हो। पार्टी कुछ वैसे ही खुश नजर आ रही है, जैसे चार दशक पहले के चुनाव में मिली जीत से प्रसन्न थी। इंदिरा की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए 1984 के आम चुनावों में पार्टी को 415 सीटें मिली थीं। 99 सीटों की जीत वाली यह उस कांग्रेस की खुशी है, जिसे आपातकाल के गुस्से के बावजूद 1977 40 प्रतिशत से कुछ ज्यादा वोट और 189 सीटें मिली थीं। जबकि 2024 के चुनावों की तुलना 1977 से हो भी नहीं सकती। कांग्रेस के ही आला नेता राजीव गांधी ने देश को इक्कीसवीं सदी में तरक्की के साथ आगे बढ़ाने का संदेश दिया था। इक्कीसवीं सदी में कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर देश काफी आगे बढ़ गया है। लेकिन कांग्रेस सौ सीटों का भी आंकड़ा नहीं छू पाई और उछल रही है।

कांग्रेस से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलेगा कि बुरे से बुरे दिनों में भी पार्टी सौ से ज्यादा संसदीय सीटें कब्जाती रही। 1996, 1998, 1999 और 2004 के चुनाव ऐसे रहे, जिनमें कांग्रेस दो सौ का आंकड़ा नहीं छू पाई, लेकिन सौ से नीचे भी नहीं गई। 1996 में 140 और 1998 में 141 सीटों पर ही सिमट गया था। पार्टी 1999 और 2004 के आम चुनावों में भी दो सौ की सीट संख्या को पार नहीं कर पाई। उसे क्रमश: 114 और 145 सीटें मिलीं। यह बात और है कि 2004 में बीजेपी उससे छह सीटें कम जीत सकी, इसलिए पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिल गया। लेकिन अगले आम चुनाव में पार्टी ने ठीकठाक उछाल मारा और 206 सीटों पर पहुंच गई। तब से तीन चुनाव हो चुके हैं और वह सौ का आंकड़ा तक नहीं छू पाई है। 

चुनावी अभियान में जुबानी जंग होती रही है। लेकिन चुनाव बीतते ही उसे भुला दिया जाता है। लेकिन कांग्रेस की अकड़ देखिए। पार्टी अपने से करीब ढाई गुनी ज्यादा सीट जीतने वाली बीजेपी को नैतिक रूप से हारी हुई पार्टी बता रही है। जयराम रमेश कह चुके हैं कि पार्टी नैतिक और राजनीतिक रूप से चुनाव हार चुकी है। पार्टी की जुबानी खराश चुनाव बाद भी दूर होती नजर नहीं आ रही। नई सरकारें बनने के बाद विपक्ष की ओर से भी औपचारिक शुभकामना संदेश देने का चलन रहा है। लेकिन कांग्रेस की ओर से शुभकामनाएं तक नहीं भेजी गई हैं। विपक्षी दलों की ओर से शपथ समारोह में शामिल होने की परंपरा रही है। लेकिन कांग्रेस का आला नेतृत्व इससे दूर रहा। इससे संदेश यह गया कि पार्टी नेतृत्व अकड़ में है। 

सोशल मीडिया के दौर ने सामाजिक परिदृश्य को दो हिस्सों में साफ बांट दिया है। तटस्थता की अवधारणा कमजोर हुई है। सोशल मीडिया मंच पर वही सफल है, जो या तो पक्ष में है या विपक्ष में। दोनों पक्ष अपने-अपने तरीके से अपने लिए तर्क और कुतर्क गढ़ते रहते हैं। उनके समर्थकों को इससे लेना-देना नहीं कि तर्क है या कुतर्क है। इसी तरह राजनीति भी साफ खांचे में बंट गई है। राजनीति भी कुतर्क को तर्क के मुलम्मे में लपेटकर अपने उन्मादी समर्थकों को और ज्यादा उन्मादी बना रही है। कांग्रेस की ओर से सत्ता पक्ष के लिए कड़वापन इसी प्रवृत्ति का विस्तार लगता है। यह बात और है कि लोकतंत्र में उन्मादी वैचारिकता और सोच की कोई जगह नहीं होती। कांग्रेस के पूरे चुनाव अभियान में भाषायी स्तर नीचे उतरता ही दिखा। प्रधानमंत्री मोदी ने मंगल सूत्र और सांप्रदायिकता की बात की तो उसकी खूब आलोचना हुई। मीडिया के एक हिस्से और विपक्ष ने उस पर खूब सवाल उठाया। लेकिन उसी दौरान राहुल गांधी की भाषा मर्यादा के दायरे से लगातार बाहर जाती दिखी। लेकिन उस पर सवाल नहीं उठा। तब राहुल कहा करते थे कि लिख कर रख लो, मोदी इस बार गया। राहुल यह भी कहते थे कि बीजेपी 180 से आगे नहीं बढ़ेगी।

बीजेपी का जो हुआ, वह सामने है। लेकिन राहुल के इस बयान से साफ लग रहा था कि वे बीजेपी को हराने की बजाय उसकी सीटें घटाने के लिए लड़ रहे हैं। तकरीबन समूचे विपक्ष का रवैया भी ऐसा ही रहा। विपक्ष की चुनावी रणनीति और अभियान देखकर ऐसा लगता रहा कि विपक्ष मोदी को हराने नहीं, उनकी ताकत घटाने की लड़ाई लड़ रहा है। सबकी कोशिश यही लग रही थी कि किसी भी तरह से बीजेपी को बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने से रोका जाए। कहना न होगा कि विपक्ष अपने इस उद्देश्य में सफल रहा। अगर कांग्रेस का चुनावी लक्ष्य यही था तो उसका खुश होना स्वाभाविक है। निश्चित रूप से वह बीजेपी की सीटें घटाने की लड़ाई में कामयाब रही है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कांग्रेस भूल गई है कि कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने के लिए सत्ता ही फेविकोल की भूमिका निभाती है। कांग्रेस लगातार दो कार्यकाल से सत्ता से बाहर है और तीसरी बार भी बाहर ही हो गई। अगर वह इसी तरह कमजोर प्रदर्शन करती रहेगी तो सत्ता उससे दूर रहेगी। सत्ता का शहद नहीं होगा तो मधुमक्खियां भी दूर ही रहेगी।

- उमेश चतुर्वेदी

लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं

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