सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सबकी राजनीति मोदी के इर्दगिर्द ही घूमती है
वर्तमान राजनीति का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने तक ही सीमित होकर रह गया है। इस कारण लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर आया राजनीतिक दल जब सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होता है तो उसे सरकार के तौर पर देखने की वृत्ति लगभग समाप्त ही हो गई है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों ने जो राजनीतिक दृश्य अवतरित किए, उसके कारण कांग्रेस का राजनीतिक अस्तित्व कोई भी मानने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि इस स्थिति से कांग्रेस के नेतृत्वकर्ता इत्तेफाक नहीं रखते। क्योंकि वह इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि वह आज कमजोर हो चुकी है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस से अच्छी स्थिति में हैं। इसी कारण क्षेत्रीय दल की एक मुखिया ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर कमजोरी का टैग लगाते हुए आईना दिखाया है, जिसमें कांग्रेस की वर्तमान हालत दृष्टिगोचर हो रही है।
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वर्तमान राजनीति का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने तक ही सीमित होकर रह गया है। इस कारण लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर आया राजनीतिक दल जब सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होता है तो उसे सरकार के तौर पर देखने की वृत्ति लगभग समाप्त ही हो गई है, इसीलिए आज विपक्ष, सरकार को भी एक राजनीतिक दल के तौर पर देखने की मानसिकता बनाकर ही राजनीति करने पर उतारू होता जा रहा है। केवल राजनीतिक फलक प्रदर्शित होना ही राजनीति नहीं कही जा सकती, इसके लिए राष्ट्रीय नीति का परिपालन होना भी आवश्यक है। अच्छी बातों का खुले मन से समर्थन करने की वृति से देश में सकारात्मक अवधारणा निर्मित होती है। यह बात सही है कि आज देश ही नहीं, बल्कि विश्व के कई देशों में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीति के केन्द्र बिन्दु हैं। भारत की पूरी राजनीति उनके आसपास ही घूमती दिखाई देती है। चाहे सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, बिना मोदी के सबकी राजनीति अधूरी-सी लगती है। वर्तमान में विपक्षी दलों की राजनीति का केवल एक ही उद्देश्य रह गया है, कैसे भी सत्ता प्राप्त की जाए। इसके लिए भले ही झूठ बोलना पड़े। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसा ही कुछ देखने को मिला, जिसमें एक प्रकरण में राहुल गांधी को माफी भी मांगनी पड़ी। इस प्रकार की राजनीति करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।
पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद यह तय हो गया था कि ममता बनर्जी विपक्ष के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकती हैं, लेकिन बहुत समय निकल जाने के बाद जब विपक्ष ममता बनर्जी के पीछे चलने के लिए तैयार होता दिखाई नहीं दिया, तब स्वयं ममता बनर्जी ने ही कांग्रेस को अप्रासंगिक निरूपित करते हुए अपने आपको विपक्ष के नेता के तौर पर प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया है। हालांकि इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा का प्रकटीकरण ही माना जाएगा। क्योंकि ममता बनर्जी स्वयं इस तथ्य से परिचित हैं कि तृणमूल कांग्रेस पार्टी का स्वरूप फिलहाल क्षेत्रीय दल की श्रेणी में ही माना जाता है, ऐसे में ममता बनर्जी का यह सपना देखना कि वह केवल अपनी ही पार्टी के सहारे राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बन सकती हैं, कोरी कल्पना ही कहा जाएगा।
वर्तमान में राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह मानने के लिए कोई परेशानी नहीं है कि कांग्रेस सहित कोई भी राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने की स्थिति में नहीं है। इसके पीछे कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि जहां एक ओर कांग्रेस ने अपने आपको राजनीतिक रूप से कमजोर किया है, वहीं विपक्ष को एकजुट करने में भी रोड़ा अटकाने का काम भी किया है। इसलिए यह स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने आपको तो कमजोर किया ही है, साथ ही विपक्ष को भी कमजोर कर दिया है। राजनीतिक अस्तित्व की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट ही परिलक्षित होता है कि केवल राज्यों में प्रभाव रखने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस से बेहतर स्थिति में हैं। उनका अपना राजनीतिक अस्तित्व बरकरार है। कई राज्यों में कांग्रेस इन क्षेत्रीय दलों का हाथ पकड़कर अपनी डूबती नैया को बचाने के लिए तिनके का सहारा तलाश करती हुई दिखाई देती है। एक समय सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में अपना प्रभाव रखने वाली कांग्रेस की स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि वह अकेले चल ही नहीं सकती है। कांग्रेस की स्थिति स्वयं की खड़ी की हुई है। इसलिए आज ममता बनर्जी द्वारा कांग्रेस की भूमिका को अप्रासंगिक करार देना समय के हिसाब से सही ही है। अब ऐसा लग रहा है कि तृणमूल कांग्रेस की मुखिया अपने आपको विपक्ष के नेता के तौर पर प्रस्तुत करके एक नया खेल खेल रही हैं। हालांकि इसके संकेत उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही दे दिए थे, लेकिन वर्तमान राजनीति को देखकर ऐसा ही लग रहा है कि कोई भी क्षेत्रीय दल किसी के पीछे जाने की भूमिका में नहीं दिख रहा।
आज ममता बनर्जी ने कांग्रेस को आइना दिखाया है, जिसमें कांग्रेस की स्थिति साफ दिखाई दे रही है, लेकिन क्या कांग्रेस इसको स्वीकार कर पाएगी या पहले की तरह ही बिना आत्म मंथन के ही वर्तमान शैली में कार्य करती रहेगी। हम जानते ही हैं कि परदे के पीछे से पूरी कांग्रेस को चलाने वाले राहुल गांधी वर्तमान राजनीति के लिए पूरी तरह से अनफिट हो गए हैं, इसी प्रकार करिश्माई नेतृत्व के तौर पर राजनीति में पदार्पित हुई प्रियंका वाड्रा को भी जिस अपेक्षा के साथ स्थापित करने का प्रयास किया गया, वह भी असफल प्रयोग प्रमाणित हो चुका है।
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भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए विपक्षी राजनीतिक दल अपने आपको किस प्रकार से तैयार करेंगे, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही होगी, लेकिन इतना तय है कि किसी एक दल का इतना राजनीतिक प्रभाव नहीं है कि वह राष्ट्रीय विकल्प के रूप में स्थापित हो जाए। इसलिए स्वाभाविक रूप से यही कहा जाएगा कि आने वाले समय में फिर से गठबंधन की कवायद भी होगी। जिसमें सभी दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित करेंगे ही। कांग्रेस की स्थिति भी कुछ खास नहीं है, इसलिए वह भी ऐसा ही प्रयास करेगी, लेकिन सवाल यह है कि कांग्रेस की सुनेगा कौन? जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अपने ही नेताओं की अनदेखी करने की राजनीति कर रहे हैं, तब दूसरे से कैसे आशा की जा सकती है। हम जानते हैं कि कांग्रेस के दिग्गज नेता अपने नेतृत्व पर सवाल खड़े कर चुके हैं और कई प्रभावी राजनेता कांग्रेस छोड़कर जा चुके हैं। ऐसे में अब कांग्रेस से किसी चमत्कार की आशा करना अंधेरे में सुई ढूंढ़ने जैसा ही कहा जाएगा। हालांकि यह राजनीति है, कब कैसी तसवीर बन जाए, कहा नहीं जा सकता।
-सुरेश हिन्दुस्थानी
(लेखक राजनीतिक चिंतक व विचारक हैं)
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