Gyan Ganga: श्रीहनुमानजी ने आखिर क्यों श्रीरामजी की मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया था?
प्रश्न तो उठता ही है कि श्रीहनुमान जी ने वह राम मुद्रिका अपने मुख में क्यों धारण की? सांसारिक चिंतन तो निःसंदेह उपेक्षा करने योग्य ही है। लेकिन तात्विक चिंतन की दृष्टि से अवलोकन करने पर हमें अध्यात्म के महान सूत्र हाथ लगते हैं।
श्रीराम जी ने जो राममुद्रिका श्रीहनुमान जी को दी, उस मुद्रिका का श्रीहनुमान जी ने क्या किया होगा? क्या श्रीहनुमान जी ने वह मुद्रिका स्वयं अपनी अंगुली में डाल ली होगी? अथवा उस मुद्रिका को कमरबंध में दबा लिया था। जी नहीं, श्रीहनुमान जी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। और जो किया, वह अवश्य ही चर्चा का विषय है। कारण कि श्रीहनुमान जी वह मुद्रिका ऐसे स्थान पर रख लेते हैं, जहाँ उसका स्थान ही नहीं है। जी हां! श्री हनुमान जी उस मुद्रिका को अपने मुख में ही रख लेते हैं। अब आप ही सोचिए कि मुद्रिका भी भला कोई मुख में रखने की चीज़ होती है। लगता है कि श्रीहनुमान जी कुछ अधिक ही बैरागी हैं। जिस कारण उन्हें यह ज्ञान ही नहीं है, कि मुद्रिका मुख में रखनी चाहिए अथवा हाथ की अंगुली में। सज्जनों क्या श्रीहनुमान जी में इतना भी राग का ज्ञान नहीं है। सच मानिए श्रीहनुमान जी इतने भोले भी कतई नहीं कि उन्हें आभूषण धारण करने का भी ज्ञान न हो। गोस्वामी जी तो यहाँ तक कहते हैं कि श्रीहनुमान जी तो महान विद्यावान, गुणी व अति चातुर हैं- ‘विद्यावान गुनी अति चातुर।’
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श्रीहनुमान जी को संसार व करतार की पूरी समझ है। लेकिन प्रश्न तो उठता ही है न कि श्रीहनुमान जी ने वह राम मुद्रिका अपने मुख में क्यों धारण की। सांसारिक चिंतन तो निःसंदेह उपेक्षा करने योग्य ही है। लेकिन तात्विक चिंतन की दृष्टि से अवलोकन करने पर हमें अध्यात्म के महान सूत्र हाथ लगते हैं। वास्तव में मुद्रिका पर जो शब्द अंकित थे, वे बड़े पावन व महान थे। जी हाँ! मुद्रिका पर ‘श्रीराम’ जी का नाम अंकित था। श्रीहनुमान जी ने जब देखा कि मुद्रिका तो श्रीराम जी के पावन नाम से सुशोभित है, तो श्रीहनुमान जी ने मन ही मन चिंतन किया कि भई! श्रीराम जी का नाम तो जितना हो सके, जिह्वा पर बना ही रहना चाहिए। जिह्वा श्रीराम जी के नाम के बिना ऐसे है, जैसे बिन पंखों के पक्षी व बिन पानी के मछली। क्या कोई पेड़ बिना बिना धरती अपने अस्तित्व की कल्पना कर सकता है? ठीक इसी प्रकार अगर हमारी जिह्वा श्रीराम जी के पावन नाम से हीन है, तो हमारी जिह्वा के अस्तित्व में होने पर ही लानत है। गोस्वामी जी तो यहां तक कहते हैं, कि अगर हमारी जिह्वा श्रीराम जी के पावन नाम का उच्चारण नहीं करती, तो वह मानव की जीभ नहीं है ही नहीं। अपितु एक मेंढ़क की जुबान से ही उसकी तुलना की जा सकती है-
‘जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।’
श्रीहनुमान जी ने सोचा कि भई हमें मेंढ़क नहीं बनना है। मेंढ़क की तरह हर क्षण टर्र-टर्र भला हम क्यों करें। हमें तो बस राम नाम गुण गाने से ही मतलब है। संसार की निंदा चुगली बहुत करली, उनके पाप के भी भागीदार बन चुके। लेकिन अब यह बेला है कि यह जन्म केवल मेरे प्रभु के खाते में ही लिखा जाये। तभी इस जन्म का होना सार्थक है। अन्यथा धरती से खाली हाथ तो फिर जाना ही है। सज्जनों श्रीराम जी ने भी श्रीहनुमान जी को उनकी मुद्रिका उनके मुख में रखते देख लिया था। जिसे देख प्रभु भी मुस्करा लिए थे। और प्रभु ने सोचा भी था कि अरे वाह! मुद्रिका का ऐसा स्थान भी हो सकता है, यह तो हमें भी ज्ञान नहीं था। मन ही मन श्रीराम जी श्रीहनुमान जी से प्रश्न करते हैं, कि हे सुत! निःसंदेह ही आपकी समस्त क्रियाएं तो कल्याणकारी व जगत प्रेरणा हेतु ही हैं। लेकिन भविष्य में आपसे किसी ने प्रश्न कर दिया, कि आपने तो यह कृत्य किंचित भी उचित नहीं किया। भला श्रीराम अंकित मुद्रिका भी कोई अपने मुख में डालता है। इससे वह मुद्रिका जूठी नहीं हो गई होगी? तो उस स्थिति में भला आप क्या उत्तर देंगे?
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श्रीहनुमान जी दोनों हाथ जोड़कर बोले कि हे प्रभु! किसी का क्या कहना है? क्या कोई इतना भी नहीं जानता होगा, कि अगर कहीं से भूला भटका मलिन नाला आकर श्रीगंगा जी में विलीन हो जाए, तो इससे श्रीगंगा जी की पवित्रता में खोट थोड़ी न आता है। अपितु वह मलिन नाला ही श्रीगंगा जी की मानिंद ही पावन व पवित्र हो जाता है। इसी प्रकार आपका पावन नाम तो है ही तीनों ताप व पाप हरने वाला। और उस पावन नाम का स्पर्श अगर हमारी जूठी जिह्वा से हो जाए, तो इससे प्रभु का नाम थोड़ी न जूठा होगा, अपितु हमारी पापमय जिह्वा भी पावन हो जायेगी। और हमारी जिह्वा तो सदा से ही निंदा चुगली के कीचड़ से सनी हुई है। तो श्रीराम अंकित मुद्रिका की तो हमें पहल के आधार पर आवश्यकता थी। यह श्रवण कर श्रीराम जी प्रसन्न हो उठे। और बोले कि हे सुत! मेरे मन की भाषा तो तुम ही भली भाँति परिचित हो। संसार में क्या जूठा और क्या अपावन। मलिन भाव से किया गया तो पुण्य भी पाप के मानिंद होता है। और मन जब प्रभु में रमण कर रहा हो, तो भोग में अर्पित किया गया विष भी अमृत तुल्य हो जाता है। मुद्रिका मुख में है अथवा हाथ की अंगुली में, विषय तो यह है कि मुद्रिका में अंकित ‘राम’ जीव के अंतःकरण में निवास करता है, अथवा नहीं। इसीलिए तो हमने भक्तिमति शबरी के जूठे बेर स्वीकार कर लिए। अन्यथा भावहीन भक्त के तो छप्पन भोग भी हमें स्वीकार नहीं। चलो, मुद्रिका तो एक विषय है। अब हमें दूसरे कार्य पर गमन करना चाहिए। हे हनुमंत! दूसरा कार्य यह कि तुम श्रीसीता जी से जब मिलो, तो उन्हें मेरा क्या संदेश दोगे। श्रीहनुमान जी तो मर्यादा व नीति सिद्धांतों के भी धनी हैं। उन्हें क्या बोलना था। वे शाँत रहे, प्रभु समझ गए। और पुनः श्रीहनुमान जी से उन्होंने न पूछा। और सीधे-सीधे वह संदेश सुनाया, जो उन्हें श्रीसीता जी को सुनाना था। क्या था वह संदेश, जानने के लिए पढ़ें अगला अंक...(क्रमशः)...जय श्रीराम!
-सुखी भारती
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