समुद्र मंथन के बाद का दृश्य क्या था? किसने अमृत और किसने विष पिया?
इन्द्र दैत्यराज बलि के पास गये और अमृत लोभ से देवताओं और दैत्यों में संधि हो गयी। देवताओं और दैत्यों ने मिलकर मंदराचल को उठाकर समुद्र तट की ओर ले जाने का प्रयास किया, किंतु असमर्थ रहे। अंत में स्मरण करने पर भक्त भयहारी भगवान पधारे।
एक दिन ऐरावत पर भ्रमण करते हुए देवराज इन्द्र से मार्ग में महर्षि दुर्वासा मिले। उन्होंने इन्द्र पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले की पुष्प माला प्रसाद रूप में प्रदान की। इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया और ऐरावत ने उसे अपनी सूंड से नीचे डालकर पैरों से रौंद दिया। अपने प्रसाद का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा ने इन्द्र को श्रीभ्रष्ट होने का शाप दे दिया। महर्षि के शाप से श्रीहीन इन्द्र दैत्यराज बलि से युद्ध में परास्त हो गये। दैत्यराज बलि का तीनों लोकों पर अधिकार हो गया। हारकर देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर भगवान विष्णु की शरण में गये और इस घोर विपत्ति से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने कहा कि आप लोग दैत्यों से संधि कर लें और उनके सहयोग से मंदराचल को मथानी तथा वासुकी नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र से अमृत निकलेगा, जिसे पिलाकर मैं देवताओं को अमर बना दूंगा, तभी देवता दैत्यों को पराजित करके पुनः स्वर्ग को प्राप्त कर सकेंगे।
इन्द्र दैत्यराज बलि के पास गये और अमृत लोभ से देवताओं और दैत्यों में संधि हो गयी। देवताओं और दैत्यों ने मिलकर मंदराचल को उठाकर समुद्र तट की ओर ले जाने का प्रयास किया, किंतु असमर्थ रहे। अंत में स्मरण करने पर भक्त भयहारी भगवान पधारे। उन्होंने खेल खेल में ही भारी मंदराचल को उठाकर गरुण पर रख लिया और क्षणमात्र में क्षीरसागर के तट पर पहुंचा दिया। मंदराचल की मथानी और वासुकी नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। भगवान ने मथानी को धंसते हुए देखकर स्वयं कच्छप रूप में मंदराचल को आधार प्रदान किया। मंथन से सबसे पहले विष प्रकट हुआ, जिसकी भयंकर ज्वाला से समस्त प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गये। लोक कल्याण के लिए भगवान शंकर ने विष का पान किया। इसके बाद समुद्र से लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य, शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैः श्रवा और और अमृत कुंभ निकले। अमृत कुंभ निकलते ही धन्वन्तरि के हाथ से अमृतपूर्ण कलश छीनकर दैत्य लेकर भागे, क्योंकि उनमें से प्रत्येक सबसे पहले अमृतपान करना चाहता था।
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कलश के लिए छीना झपटी चल रही थी और देवता निराश खड़े थे। अचानक वहां एक अद्वितीय सौन्दर्य से भरपूर नारी प्रकट हुई। असुरों ने उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर उससे मध्यस्थ बनकर अमृत बांटने की प्रार्थना की। वास्तव में भगवान ने ही दैत्यों को मोहित करने के लिए मोहिनी रूप धारण किया था। मोहिनी रूप धारी भगवान ने कहा कि मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित, तुम लोग बीच में बाधा उत्पन्न न करने का वचन दो तभी मैं इस काम को करूंगी। सभी ने इस शर्त को स्वीकार किया। देवता और दैत्य अलग अलग पंक्तियों में बैठ गये। जिस समय भगवान मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, राहु धैर्य न रख सका। वह देवताओं का रूप धारण करके सूर्य-चंद्रमा के बीच बैठ गया। जैसे ही उसे अमृत का घूंट मिला, सूर्य-चंद्रमा ने संकेत कर दिया। भगवान मोहिनी रूप का त्याग करके शंख चक्रधारी विष्णु हो गये और उन्होंने चक्र से राहु का मस्तक काट डाला। असुरों ने भी अपना शस्त्र उठाया और देवासुर संग्राम प्रारम्भ हो गया। अमृत के प्रभाव से तथा भगवान की कृपा से देवताओं की विजय हुई और उन्हें अपना स्वर्ग वापस मिल गया।
-शुभा दुबे
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