Gyan Ganga: खर-दूषण के अंत की खबर सुन रावण को विश्वास हो गया था- भगवान का अवतार हो चुका है
रावण की श्रीराम जी के प्रति श्रद्धा तो देखिए। अभी तो उसने केवल श्रीराम के प्रति केवल सुना ही है दर्शन नहीं किए। और आलम यह है कि वह मन ही मन प्रसन्न है कि प्रभु का इस धरा पर अवतरण हो गया है। लेकिन वास्तविक प्रसन्नता तो तब है अगर प्रभु हमारा भी कल्याण करें।
सुग्रीव ने भले ही श्रीराम जी की परीक्षा ली लेकिन इसका परिणाम सती जी की तरह दुखद नहीं निकला। अपितु श्रीराम जी के प्रति आश्वस्त हो उठते हैं। श्रीराम जी अवश्य ही बालि का वध कर सकते हैं। सुग्रीव बार−बार श्रीराम जी के चरणों में अपना सिर रख रहे हैं और मन ही मन हर्षित हो रहे हैं−
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती।
बालि बधब इन्ह भइ परतीती।
हालांकि सुग्रीव के मन की इस हर्षित वाली स्थिति का भी हम अवलोकन करेंगे तो यह अवस्था भी भक्ति पथ की कहीं से भी उच्च अवस्था नहीं है। क्योंकि प्रभु के प्रति श्रद्धा अथवा विश्वास प्रभु के बाह्य आचरण व व्यवहार के आधार पर न हो तो ही अच्छा है। क्योंकि प्रभु का आचार−व्यवहार भिन्न−भिन्न परिस्थितियों में भिन्न−भिन्न हो सकता है और वह आचरण हो सकता है कि हमें संशय में डाल दे कि क्या श्रीराम सचमुच भगवान ही हैं। अथवा साधारण मानव। रावण भी तो श्रीराम जी के बाह्य आचरण के आधार पर ही उनकी प्रभुता का आकलन करता है।
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जब उसे पता चलता है कि महाबली खर और दूषण को श्रीराम जी ने अकेले ही मार डाला है तो ऐसा नहीं कि रावण के मन में कोई क्रोध उत्पन्न होता है। उल्टे रावण तो श्रीराम जी के प्रति आश्वस्त हो जाता है कि निश्चित ही भगवान का अवतार हो चुका है। कारण कि खर और दूषण तो मेरे ही समान बलवान व अजेय योद्धा हैं। जिन्हें इस धरा पर कोई परास्त नहीं कर सकता। लेकिन तब भी किसी ने उन्हें खेल−खेल में ही मार डाला तो निश्चित ही यह भगवान के ही वश की बात है। और इसका अर्थ है कि भगवान का अवतार हो चुका है−
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।।
रावण की श्रीराम जी के प्रति श्रद्धा तो देखिए। अभी तो उसने केवल श्रीराम जी के प्रति केवल सुना ही है उनके दर्शन नहीं किए। और आलम यह है कि वह मन ही मन प्रसन्न है कि प्रभु का इस धरा पर अवतरण हो गया है। लेकिन वास्तविक प्रसन्नता तो तब है अगर प्रभु हमारा भी कल्याण करें। रावण यहाँ भिन्न−भिन्न प्रकार के विचार सोच रहा है। पूरी रात उसे नींद नहीं आती− 'गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति'
रावण सोच रहा है कि हमने तो काल को वश में किया हुआ है, हम तो फिलहाल मरने वाले नहीं हैं। लेकिन अगर प्रभु ने ही पहले शरीर त्याग दिया तो? इतनी देर में तो मैं अपनी तामस व पापी देह को प्रभु की भक्ति के लायक पावन बना ही नहीं पाऊँगा और भजन इस अपावन देह से अब संभव नहीं। तो क्यों न मैं प्रभु से जानबूझकर हठपूर्वक बैर करूँ। और उनके हाथों से मृत्यु वरण कर मोक्ष का अधिकारी बनूं−
होइहि भजनु न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्रा दृढ़ एहा।।
देखिए रावण अपनी ही कल्पना में मस्त है। भला प्रभु का जीव को कल्याण करने का सामर्थ्य क्या जीव की सात्विक अथवा तामस देह के आधार पर जुड़ा होता है? रावण ने वेद मंत्र पढ़े हैं तो उसे इतना तो पता ही होना चाहिए था कि प्रभु के सान्निध्य में पापी अथवा पुण्यात्मा जो भी आए, प्रभु को उसका कल्याण करने में कोई असुविधा थोड़ी होती है। जैसे पारस के पास चाहे मंदिर के प्रांगण से लोहा आए या फिर कबाड़खाने का लोहा ले आओ। पारस दोनों ही जगह से लाए गए लोहे को स्वर्ण में परिवर्तित करने में विलम्ब नहीं करता।
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रावण अपनी सोच की पहेलियों में ऐसा उलझा कि अब तो उसकी सोच का स्तर किसी और ही दिशा में जा पहुँचा। वह स्वयं से कहने लगा कि अरे, अरे, अरे यह मुझे क्या हो रहा है? मैं अकारण ही श्रीराम को भगवान बनाए जा रहा हूँ। अरे भाई पहले मैं उस वनवासी का अच्छी तरह निरीक्षण और परीक्षण तो कर लूँ। क्यों न पहले मैं उनका बल व सामर्थ्य का नाप तोल कर लूँ। मैं उनकी पत्नी का अपहरण कर लेता हूँ। और उन दोनों भाइयों से युद्ध करता हूँ। अगर वे भगवान के अवतार हुए तो निश्चित ही मुझे क्षण भर में पराजित कर देंगे। और अगर साधारण राजा हुए तो मैं उन्हें युद्ध में हरा दूँगा−
जौं नररूप भूपसुत कोऊ, हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ।।
रावण श्रीराम जी के बाह्य आचरण द्वारा निष्कर्ष पर पहुँचना चाहता है कि श्रीराम भगवान हैं अथवा साधारण मनुष्य। अंततः रावण का निष्कर्ष क्या निकलता है। यही न श्रीराम तो एक साधारण वनवासी हैं। मात्र इतना ही नहीं एक स्थान पर तो रावण श्रीराम जी को लेकर एक हास्यास्पद व स्तरहीन परिणाम तक पहुँचता है। रावण कहता है−
अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनवास।
सो दुख अरू जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास।।
रावण कह रहा है कि श्रीराम जी के पिता दशरथ ने तो पहले ही भांप लिया था कि बेटे में कोई गुण−वुण तो है नहीं। ये कहाँ अयोध्या का राज्य संभाल पाएगा। और मान−सम्मान भी इसका एक कौड़ी का नहीं। और ऐसे मानरहित पुत्र को तो वन भेजना ही श्रेयस्कर है। रावण कहता है कि पहला तो राम को यही दुःख लगा हुआ है और दूसरा ऊपर से पत्नी बिरह का कष्ट निरंतर सताता रहता है। यह सब भी चल जाता लेकिन जो प्रतिक्षण, आठों पहर राम को मेरा भय व आतंक सताता रहता है उसका तो वर्णन ही क्या करें?
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सज्जनों आप ही बताइए कि रावण के निष्कर्ष व परिणाम कहाँ तक उचित हैं। इसलिए प्रभु की बाहरी लीलाएँ देख निःसंदेह हमारी भक्ति भावना पोषित होती हैं लेकिन केवल मात्र इन्हीं लीलाओं के आधार पर हम प्रभु का मर्म समझना चाहें तो यह हमारी घोर अज्ञानता है। मंथरा श्रीराम जी को जन्म से ही देख परख रही थी। कैकेई ने तो श्रीराम जी को गोद में कौशल्या जी से भी अधिक लाड़−दुलार दिया। लेकिन तब भी उसे कहाँ समझ आई कि राम जी साक्षात् भगवान का अवतार हैं। वहीं भक्तिमति शबरी श्रीराम जी से असंख्य योजन दूर है लेकिन तब भी श्रीराम जी के ईश्वरीय तत्व से परिचित हैं। कारण कि माता शबरी जी के पास वह दिव्य दृष्टि थी जो कि मात्र साधन है जिससे हम प्रभु की अलौकिकता को समझ सकते हैं।
सुग्रीव श्रीराम जी को कहाँ तक समझ पाता है। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम जी!
-सुखी भारती
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