Gyan Ganga: शिवगण भगवान शंकर का श्रृंगार करने में परम आनंद महसूस कर रहे हैं

आप सोच रहे होंगे, कि हाँ हमने सुना है, कि केवल भगवान शंकर की ही तीसरी आँख खुलती है। जिसे हम शिवनेत्र भी कहते हैं। ऐसा नहीं है सज्जनों, कि वह शिवनेत्र केवल भगवान शंकर का ही खुलता है। हम जितने भी मानव हैं, उनके मस्तक पर भी तीसरा नेत्र बिराजमान होता है।
‘ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।
नयन तीनि उपबीत भुजंगा।।
गरल कंठ उर नर सिर माला।
असिव बेष सिवधाम कृपाला।।’
भगवान शंकर ने अगर अपने सीस पर चन्द्रमा को सुशोभित किया है, तो साथ में उन्हीं जटाओं से गंगा जी भी प्रवाहित हो रही हैं। वाह! क्या अदुभूत संगम है। जिस सीस पर उलझी हुई जटायें हों, टेढ़ा चन्द्रमा शौभा पा रहा हो, वहाँ पर भी अखण्ड पवित्र गंगाजी प्रवाहित हो रही हों, क्या इस परिदृष्य की कलपना भी आपने की होगी? जी हाँ! जो गंगाजी भगवान विष्णु जी के पावन श्रीचरणों से प्रगट हो रही हों। वह गंगाजी, जो कि पापी से पापी मनुष्य को भी पावन कर देती हैं। वह गंगाजी, जो स्वर्ग से उतारी गई थी, वही गंगाजी, जो कि मुक्ति प्रदायनी हैं, वही गंगाजी हमें भगवान शंकर की जटायों से बहती दृष्टिपात हो रही हैं। सोचिए, जिन भगवान शंकर की जटायों में गंगाजी ने सान्धिय प्राप्त किया हो, वे भगवान शंकर किस स्तर के पावन व पुनीत होंगे? इसीलिए तो कहते हैं, कि एक बार भोलेबाबा के चरणों में नत्मस्तक होकर तो देखिए, वे हमें सीधे अपने सीस पे सजाने का भाव रखते हैं।
शिवगण भगवान का श्रृंगार करने में परम आनंद महसूस कर रहे हैं। अब तो भगवान शंकर को जनेऊ भी साँपों का ही धारण कराया गया है।
ध्यान से देखेंगे, तो भगवान शंकर के मस्तक पर तीसरा नेत्र भी बिराजमान है। कितने आश्चर्य का विषय है न? व्यक्ति के मुख मण्डल पर सदा से ही दो आँखें ही शौभा देती हैं। अगर उन दो नेत्रें में से एक भी नेत्र का आकार छोटा अथवा बड़ा हो गया, तो उस व्यक्ति को कुरुप माना जाता है। यहाँ भगवान शंकर के तो दो नहीं, अपितु तीन आँखें हैं। किंतु तब भी संसार में कोई ऐसा नहीं, जो उन्हें कुरुप की संज्ञा दे। क्योंकि भगवान शंकर का तीसरा नेत्र, किसी शरीरक कमी अथवा खोट के कारण नहीं है। बल्कि यह एक ऐसी दिव्य उपलब्धि है, जो संसार में बहुत कम लोगों को प्राप्त होती है।
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आप सोच रहे होंगे, कि हाँ हमने सुना है, कि केवल भगवान शंकर की ही तीसरी आँख खुलती है। जिसे हम शिवनेत्र भी कहते हैं। ऐसा नहीं है सज्जनों, कि वह शिवनेत्र केवल भगवान शंकर का ही खुलता है। हम जितने भी मानव हैं, उनके मस्तक पर भी तीसरा नेत्र बिराजमान होता है। किंतु हमारा वह नेत्र बंद होता है। क्या हमारा नेत्र सदा बंद ही रहता है? उसे खोलने का कोई मार्ग नहीं? आप सोच रहे होंगे, न बाबा न! हमें वह तीसरा नेत्र खुलवाना भी नहीं है, क्योंकि वह नेत्र जैसे ही खुलता है, वैसे ही प्रलय आ जाती है।
चलिए हम आपकी इन्हीं कुछ भ्रान्तियों का निवारण करते हैं। पहली बात तो यह कि हमारा शिवनेत्र कोई बाहर नहीं खुलता है। यह प्रक्रिया तो हमारे सरीर में घटने वाली एक विशुद्ध आध्यात्मिक घटना है। जिसका बाहर के संसार की प्रलय से कोई वास्ता नहीं होता। हाँ! ऐसा भी नहीं, कि तीसरा नेत्र खुलने पर प्रलय नहीं होती। बिलकुल होती है, किंतु वह प्रलय बाहर नहीं, अपितु हमारे भीतरी जगत में होती है। अर्थात जैसे ही हमारा तीसरा नेत्र खुलता है, ठीक वैसे ही हमारे अंतःकरण में जन्मों-जन्मों की अज्ञानता, रुढ़ीवादिता व मिथया मनघड़ंत विचारधारओं में प्रलय आती है। हमने कलपनाओं में जिस मिथया संसार की रचना की हुई थी, उसका विध्वंस हो जाता है। जिसके पश्चात हम एक नये संसार में प्रवेश करते हैं, जो कि ईश्वर का संसार होता है। इसे ही आध्यात्मिक यात्र का शुभारम्भ कहते हैं।
किंतु आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा, कि अगर हमारे मस्तक पर भी तीसरा नेत्र है, तो हमारा आज तक क्यों नहीं खुला? सज्जनों! वह नेत्र अपने आप, अथवा अपने किसी प्रयासों से नहीं खुलता। उसे खोलने के लिए आवश्यक्ता होती है, एक सच्चे गुरु की। जो गुरु केवल बातों तक सीमित न हो। जो केवल वेष से ही गुरु न हो, अपितु कर्म व ज्ञान से भी गुरु हो। शास्त्रें में ऐसे परम गुरु की ही बात की गई है। इसलिए आप जब भी किसी गुरु के सान्धिय में जायें, तो उसे केवल यही निवेदन करें, कि हे गुरुदेव! आप कृप्या हमारा तीसरा नेत्र खोल दें। अगर वे सचमुच पूर्ण गुरु होंगे, तो आपको टालेंगे नहीं, अपितु उसी क्षण आपका तीसरा नेत्र खोल कर, आपको आपके घट में ही, प्रकाश रुप प्रमात्मा का दर्शन करायेंगे।
क्रमशः
- सुखी भारती
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