Gyan Ganga: प्रभु श्रीराम भगवान शंकर के ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर संतुष्ट हो गए
भगवान शंकर ने यहाँ अपने मन की स्थिति व भगवान की आज्ञा का कितना सुंदर समन्वय बनाया। वे भगवान राम से रुष्ट भी तो हो सकते थे। वे कह सकते थे, कि हे प्रभु! आप भी कितनी कच्ची बात करते हैं। क्या आपको भी पत्नी के वियोग की पीड़ा समझानी पड़ेगी?
भगवान श्रीराम जी ने, भगवान शंकर से विनती की, कि अब आप श्रीपार्वती जी से विवाह करने को तत्पर हों। जैसे ही श्रीराम जी के यह वचन भोलेनाथ ने सुने, तो वे बोले-
‘कह सिव जदपि उचित अस नाहीं।
नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं।।
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरमु यह नाथ हमारा।।’
भगवान शिव बोले, कि यद्यपि विवाह करना हमारे लिए किंचित भी उचित नहीं है। किंतु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है, कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करुँ।
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भगवान शंकर ने यहाँ अपने मन की स्थिति व भगवान की आज्ञा का कितना सुंदर समन्वय बनाया। वे भगवान राम से रुष्ट भी तो हो सकते थे। वे कह सकते थे, कि हे प्रभु! आप भी कितनी कच्ची बात करते हैं। क्या आपको भी पत्नी के वियोग की पीड़ा समझानी पड़ेगी? आपको तो पता ही है, कि श्रीसीता जी को जब रावण हरण करके ले गया था, तो आप कितनी असहनीय पीड़ा में चले गये थे। पत्तों-पत्तों, टहनियों व भँवरों से भी आप पूछ रहे थे, कि मेरी सीते कहाँ है। वह भी तब जब श्रीसीता जी तो केवल खोई थी। उन्होंने सती जी की भाँति देह नहीं त्यागी थी। इस परिस्थिति में कोई आपको कहता, कि हे राम जी! विलाप छोड़िए। अगर आपकी एक पत्नी का आपसे बिछोह हो गया है, तो आप दूसरी शादी कर इस पीड़ा से निकल भी तो सकते हैं। आपके पिता श्रीदशरथ जी ने कौन सी तीन शादियां नहीं की थी। अब आप बताइये, कि क्या इस विचार को आप मान लेते, कि आप श्रीसती जी को छोड़, एक अन्य विवाह कर लेते?
ठीक इसी प्रकार से हमारा भी अब मन नहीं कि हम विवाह करें। किंतु क्योंकि हमें ऐसी आज्ञा देने वाले कोई और नहीं, बल्कि स्वयं श्रीनारायण हैं। तो ऐसे में तो मैं केवल एक ही बात कह सकता हूं।
‘मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी।।
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।’
अर्थात माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना विचारे ही शुभ समझकर मान लेना चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है।
भगवान शंकर यहाँ संपूर्ण संसार को समझाना चाहते हैं, कि आप भले ही कैसी भी मनःस्थिति से पीड़ित हों। आपको लग रहा हो, कि आपसे दीन, दुखी व दरिद्र संपूण जगत में कोई और नहीं। ऐसा भी भाव जागृत हो सकता है, कि भगवान हमें इतना दुख क्यों दे रहा है? यह पीड़ा आखिर समाप्त क्यों नहीं होती? क्या हम ही बचे थे, जो भगवान हमारे पीछे हाथ धो कर पड़ा है। भगवान के प्रति एक से एक बढ़कर नकारात्मक विचार होने के पश्चात भी, अगर भगवान आपके समक्ष प्रगट होकर आपको कोई आज्ञा दे। वह भी ऐसी आज्ञा, जो कि आपको आपकी वर्तमान मनःस्थिति से बिलकुल विपरीत हो। तब भी आपको ऐसा तो सोचना ही नहीं है, कि आप भगवान से अपने व्यक्तिगत उलाहनों की लंबी सूची पकड़ा दें। बस यही धन्यवाद देना है, कि निश्चित ही प्रभु का मुझ पर विशेष स्नेह है, जो वे मुझे स्वयं आकर कोई आज्ञा दे रहे हैं। प्रभु को मेरी आवश्यक्ता नहीं हो सकती। कारण कि उनकी आज्ञा तो संपूर्ण सृष्टि मानती है। पत्थर भी जब उनके नाम मात्र से पानी में तैरने लगते हैं, तो हम मास हाड़ के लोथड़े भला उनकी आज्ञा में क्यूँ न तैरें? क्योंकि हमें प्रभु की आवश्यक्ता है, न कि प्रभु को हमारी। वे तो अपनी आज्ञा देकर हमें सम्मान देते हैं। जैसे महाभारत का युद्ध तो श्रीकृष्ण जी की कृपा से ही जीता गया था। किंतु अर्जुन को धनुष बाण उठाने के लिए श्रीकृष्ण का कटिबद्ध होना दरसाता है, कि श्रीकृष्ण अर्जन को जीत का श्रेय देना चाहते थे। यही सोचकर भगवान शंकर ने प्रभु श्रीराम जी की आज्ञा को सीस पर धारण कर लिया।
श्रीराम जी भगवान शंकर जी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर संतुष्ट हो गए। प्रभु ने कहा, कि हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना। ऐसा कहकर श्रीराम जी अंर्तध्यान हो गए।
उसी समय वहाँ सप्तर्षियों का पधारना हुआ। भगवान शंकर उनसे क्या वार्ता करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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