संत रविदास ने लोगों को कर्म की प्रमुखता और आंतरिक पवित्रता का संदेश दिया
निःसंदेह संत रविदास जी दैवीय अवतार तो थे ही। लेकिन तब भी वे गुरू धारण करने की सनातन परंपरा व सिद्धांत की अवहेलना नहीं करते। और स्वामी रामानंद जी की शरणागत हो गुरू शिष्य−परंपरा के महान आदर्श का निर्वहन करते हुए इसे संसार में स्थापित करते हैं।
समाज को जब चारों ओर से अज्ञान की अंधकारमय चादर ने अपनी मजबूत जकड़न में जकड़ा हो। यूं लगता हो कि धरती रसातल में धंस गई है और दैहिक, दैविक व भौतिक तीनों तापों के तांडव से समस्त मानव जाति त्रस्त हो चुकी है। तो यह कैसे हो सकता है कि ईश्वर यह सब कुछ एक मूक दर्शक बनकर देखता रह जाए। कष्टों की अमावस्या को मिटाने हेतु प्रभु अवश्य ही पूर्णिमा के चाँद को आसमां के मस्तक पर सुशोभित करते हैं। ऐसे ही दैवीय पूर्णिमा के चाँद का इस धरा धाम पर उदय हुआ था। जिन्हें संसार संत रविदास जी के नाम से जानता है। काशी का वह गाँव संवत 1433 को ऐसा धन्य महसूस कर रहा था मानो उस जैसा कोई और हो ही न। माघ मास की पूर्णिमा भी खूब अंगड़ाइयां लेकर अपना आशीर्वाद लुटा रही थी। पवन तो मानों हज़ारों−हज़ारों इत्र के पात्रों में नहा कर सुगंधित होकर बह रही थी। कारण कि श्री रविदास जी ही वह महान दैवीय शक्ति थे जो मानव रूप में इस धरा को पुनीत करने हेतु अवतरित हुए थे। उनके जन्म के साक्ष्य निम्नलिखित वाणियों में भी मिलते हैं−
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चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।।
माता करमा और पिता राहु को तो भान भी नहीं था कि उनकी कुटिया में साक्षात भानू का प्रकटीकरण हुआ है। भानू तो छोडि़ए उन्हें तो वे एक अदना सा जुगनूं भी प्रतीत नहीं हो रहे थे। पिता चाहते तो थे कि बेटा संसार के समस्त दाँव−पेंच सीखे। घर परिवार चलाने में हमारा हाथ बंटाए। लेकिन वे क्या जाने कि रविदास जी तो प्रभु के पावन, पुनीत व दिव्य कार्य को प्रपन्न करने हेतु अपना हाथ बंटाने आए हैं। संसार के दाँव−पेंच सीखने नहीं अपितु स्वयं को ही प्रभु के दाँव पर लगाने आए हैं। क्योंकि मानव जीवन का यही तो एकमात्र लक्ष्य है कि श्रीराम से मिलन किया जाए। वरना संसार के रिश्ते−नाते, धन संपदा तो सब व्यर्थ ही हैं, जिन्हें एक दिन छोड़कर हमें अनंत की यात्रा पर निकल जाना है। पत्नी जो जीवित पति को तो खूब प्यार करती है लेकिन प्रभु शरीर से क्या निकले कि वही पत्नी पति की लाश को देख कर भूत−भूत कहकर भाग खड़ी होती है−
ऊचे मंदर सुंदर नारी।। एक घरी पुफनि रहनु न होई।।
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी।। जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी।।
भाई बंध् कुटुम्ब सहेरा।। ओइ भी लागे काढु सवेरा।।
घर की नारि उरहि तन लागी।। उह तउ भूतु−भूतु कर भागी।।
कहै रविदास सभै जगु लूटिआ।। हम तउ एक रामु कहि छूटिआ।।
निःसंदेह संत रविदास जी दैवीय अवतार तो थे ही। लेकिन तब भी वे गुरू धारण करने की सनातन परंपरा व सिद्धांत की अवहेलना नहीं करते। और स्वामी रामानंद जी की शरणागत हो गुरू शिष्य−परंपरा के महान आदर्श का निर्वहन करते हुए इसे संसार में स्थापित करते हैं।
यह वह समय था जब समाज में जाति पाति प्रथा का विष जन मानस की रग−रग में फैला हुआ था। जिसे निकालना अति अनिवार्य था। काशी नरेश ने जब एक बार सामूहिक भंडारे का आयोजन करवाया तो उसमें असंख्य साधु−संत, गरीब−अमीर व उच्च कोटि के ब्राह्मण सम्मिलति हुए। परंतु काशी नरेश उच्च जाति के प्रभाव में थे तो सर्वप्रथम जाति विशेष को भोजन करवाना था। श्री रविदास जी भी उनकी पंक्ति में बैठ गए। उच्च जाति वर्ग ने इसका विरोध किया। श्री रविदास जी तो मान−सम्मान से सर्वदा विलग थे। इसलिए वे सहज ही उक्त पंक्ति से उठ गए। विशेष वर्ग भले ही संतुष्ट हुआ और पुनः भोजन करने बैठ गया। लेकिन तभी एक महान आश्चर्य घटित हुआ। पंक्ति में बैठे प्रत्येक विप्र के बीच श्री रविदास जी बिराजे दर्शन दे रहे थे। और भोजन ग्रहण कर रहे थे। सभी यह कौतुक देख कर हैरान थे। और रविदास जी मुस्कुराते हुए मानो कह रहे थे कि हे प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों, माना कि मेरी जाति−पाति सब नीच है। मैं कोई विद्वान भी नहीं लेकिन तब भी उसने आप सब के मध्य लाकर मुझे सुशोभित कर दिया क्योंकि मैं अहंकार की नहीं निरंकार की शरणागत हूँ−
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जन्मु हमारा।।
तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा।।
श्री रविदास जी की यह लीला देख समाज का एक बड़ा वर्ग उनका अनुसरण करने लगा। चितौड़ की महारानी मीरा बाई भी उन्हीं में से एक थी। जिन्होंने गुरू रविदास जी से योग−विद्या हासिल कर श्री कृष्ण के वास्तविक स्वरूप को समझा। वे कहती भी हैं−
गुरू रैदास मिले मोहि पूरन, धूरि से कलम भिड़ी।
सतगुरू सैन दई जब आके, जोति से जोति मिली।।
श्री रविदास जी की ख्याति दिन−प्रतिदिन भास्कर की किरणों की भांति निरंतर सब और फैलती जा रही थी। एक दिवस जब श्री रविदास जी बैठे जूते गांठ रहे थे। तो वहाँ से गुजर रहे एक पुजारी जी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने वैसे ही श्री रविदास जी को बोल दिया कि रविदास तुम क्या यहाँ जूते गांठने में लगे हो। जीवन में कभी गंगा स्नान नहीं करोगे क्या? हालांकि श्री रविदास जी का जूते गांठना तो सिर्फ एक बहाना था। असल में गांठा तो आत्मा को प्रमात्मा से जा रहा था। ऐसा भी नहीं कि श्री रविदास जी गंगा स्नान के विरोधी थे। अपितु यह कहो कि वे इसके पक्षधर थे। क्योंकि यूं धर्मिक स्थलों पर किया जाने वाला सामूहिक स्नान समाज को एक साथ जोड़े रखता है। गंगा मईया जिन पर्वत शिखरों से निकलती हैं, वहाँ की असंख्य दुर्लभ व गुणकारी जड़ी−बूटियों के रस भी गंगा के पावन जल में घुले हुए होते हैं। जिस कारण गंगा स्नान अनेकों शरीरिक बीमारियों का इलाज का साधन हैं।
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गंगा स्नान और गंगा पूजन एक सुंदर संस्कार जनक है कि हमें अपनी नदियों व अन्य जल−ड्डोतों का संरक्षण एवं संर्वधन करना चाहिए। लेकिन इसी गंगा स्नान से जब मिथ्या धारणाएं जुड़ जाती हैं और गंगा स्नान अहंकार की उत्पत्ति का साधन हो जाए तो हम वास्तविक लाभ से वंचित हो जाते हैं। और वे पुजारी अहंकार रूपी इसी वृत्ति के धारक थे। उन्हें दिशा दिखाने हेतु श्री रविदास जी एक लीला करते हैं। पुजारी जी को एक दमड़ी देकर कहते हैं कि मैं तो नहीं जा पाऊँगा। लेकिन कृपया मेरा यह सिक्का गंगा मईया को अर्पित कर दीजिएगा। हाँ यह बात याद रखना कि मेरी दमड़ी गंगा मईया को तभी अर्पित करना जब वे स्वयं अपना पावन कर कमल बाहर निकाल कर इसे स्वीकार करें। और उन्हें कहना कि वे मेरे लिए अपना कंगन भी दें। उनकी यह बात सुनकर भले ही पुजारी ने श्री रविदास जी को बावले की श्रेणी में रखा हो। लेकिन उसके आश्चर्य की तब कोई सीमा न रही जब सचमुच गंगा मईया स्वयं श्री रविदास जी की दमड़ी को अपने पावन हस्त कमल से स्वीकार किया। और बदले में एक कंगन भी दिया।
अच्छा होता अगर पुजारी यह सब देख श्री रविदास जी की दिव्यता व श्रेष्ठता को समझ पाता। लेकिन वह तो कंगन देखकर बेईमान ही हो गया। और श्री रविदास जी को देने की बजाय अपनी पत्नि को वह कंगन दे देता है। उसकी पत्नि रानी की दासी थी। और नित्य प्रति रानी की सेवा हेतु महल में जाया करती थी। जब वो उस कंगन पहन कर रानी के समक्ष गई तो वह कंगन पर इतनी मोहित हुई कि पुजारी की पत्नि से मुँह मांगी कीमत पर उससे कंगन ले लिया। और उसे कहा कि हमें शाम तक इस कंगन के साथ वाला दूसरा जोड़ा भी चाहिए। ताकि मैं अपनी दोनों कलाइयों में कंगन पहन सकूं। अगर तूने मुझे दूसरा कंगन लाकर नहीं दिया तो तुम्हारे लिए मृत्यु दंड निश्चित है। पुजारी की पत्नि ने जब यह वृतांत घर आकर अपने पति को बताया तो उसके तो हाथ पैर ही फूल गए। क्योंकि ऐसा सुंदर दिव्य कंगन तो केवल गंगा मईया के ही पास था। और मईया भला मुझे अपना कंगन क्यों देंगी? यह तो सिर्फ रविदास जी के ही बस की बात है। बहुत सोचने के बाद पुजारी ने रविदास जी के समक्ष पूरा घटनाक्रम रखने में ही समझदारी समझी। और कहा कि कृपया मुझे एक दमड़ी और देने का कष्ट करें। ताकि मैं गंगा मईया से दूसरा कंगन लाकर मृत्यु दंड से मुक्ति पा सकूं।
श्री रविदास जी पुजारी की बात सुनकर मुस्कुरा पड़े। और बोले विप्रवर कहाँ आप इतनी मशक्कत करते फिरेंगे। देखिए मेरे इस कठौते में भी तो जल है। और गंगा जी में जल है। अगर गंगा जल से मईया प्रकट हो सकती है तो मेरे इस कठौते के जल में क्या कमी है? आप डालिए कठौते में हाथ, विश्वास कीजिए गंगा मईया भीतर ही आपके लिए कंगन लिए बैठी होंगी। हाथ डालकर स्वयं ही निकाल लीजिए। पुजारी को यह सुनकर रविदास जी पर क्रोध तो बहुत आया लेकिन उनकी बात मानने के अलावा उसके पास कोई चारा भी तो नहीं था। पुजारी ने कठौते में हाथ डाला तो एक बार फिर महान आश्चर्य घटित हुआ। पुजारी की उंगली में सचमुच कंगन अटका। जब उसने अपना हाथ बाहर खींचा तो उसकी हैरानी की कोई हद न रही। क्योंकि उसके हाथ में एक कंगन नहीं अपितु कंगन में अटके अनेकों कंगनों की एक लंबी श्रृंखला थी। श्री रविदास जी बोले कि अरे विप्रवर आपको तो सिर्फ एक की कंगन चाहिए था न। बाकी मईया के पास ही रहने दें। श्री रविदास जी के भक्ति भाव के आगे पुजारी का मिथ्या अहंकार टूटकर चूर−चूर हो गया। वह श्री रविदास जी के चरणों में गिर कर सदा के लिए उनकी शरणागत हो गया। और तभी से यह कहावत जगत विख्यात हो गई−'मन होवे चंगा तो कठौती में गंगा।'
- सुखी भारती
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