जंगल में मोर नाचा किसने देखा? इसलिए मोरों की मंडली ने निर्णय किया कि वे अब सबके सामने नाचेंगे। वाह-वाही बटोरेंगे। आजकल यही मोर हर जगह नाच रहे हैं। कोई मयूर हाथ में माइक लिए लोगों को उल्टी-सीधी पट्टी बंधाते हुए नाच रहा है तो कोई भाड़े पर बुलाए लोगों में फल-फूल बांटकर। लेकिन ये मोर जब जंगल से 'चौराहे पर नाचे' आन्दोलन में भाग लेने लगते हैं तो आप समझ सकते हैं कि क्या हाल होता होगा। ट्रैफिक रुक जाता है, लोगों का हाल-बेहाल हो जाता है। दिन गर्मी के हों तो पसीने से, बारीश के हों तो कीचड़ से और सर्दी के हों तो ठिठुरती हड़़्डियों से परेशान हो जाते हैं।
ऐसे मोर जब चौरस्तों पर नाचते हैं तो इनके कुछ पंख टूटकर गिर जाते हैं, लोग इन्हें बटोरने के लिए दौड़ने लगते हैं। शायद ये भी अपने सिर पर लगाकर घर में नाच-नाचकर हुड़दंग मचाना चाहते हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि इससे पहले के नाच से घरवाले ऊब गए हों इसलिए नवीन प्रयोग से उन्हें अपनी आकृष्ट करने और उनका ध्यान मुद्दे वाली बात से भटकाने की चेष्टा करते हैं। कुछ तो फ्री मिल रहे मयूर पंखों से मयूरपंखा बनाकर झेलने की चेष्टा भी करने लगते हैं। अब बिजली की इतनी कटौती हो रही हो तब ऐसे ही किसी उपाय का सहारा लेना समय की माँग बन जाती है।
लोग तो लोग हैं। लोग कभी रोग भी बन जाते हैं। जिन मयूरों को अपने नाच पर घमंड था, जिन्हें लगता था कि उनके नाचने से वाह-वाही मिलेगी वे लोगों के आलोचकीय टिप्पणियों से ध्वस्त हो गए। किसी ने कहा यह भरतनाट्यम करता तो अच्छा होता। किसी ने कत्थकली तो किसी ने मणिपुरी की माँग रख दी। जितने मुँह उतनी माँगें। किसी ने कहा इसे तो नागिन डांस ही नहीं आता। यह भी कोई नाच है। ऐसा नाच तो कोई भी कर सकता है। कुछ कोरियोग्राफर टाइप के लोग जो बिन माँगे मुफ्त की सलाह दे देते हैं, वे यमूर की कमर, पैरों, सिर की भंगिमाओं पर टिपियाने लगे। मयूर को अपने मयूर होने पर शर्म आने लगती हैं। उसे यह समझ नहीं आता कि दुनिया के लोग उसमें मयूर छोड़कर बाकी सब ढूँढ़ने की कोशिश क्यों कर रहे हैं?
कुछ ने यहाँ तक कह दिया कि ये मोर तो बड़े अश्लील हैं। बहू-बेटियों वाले समाज में भला कोई नंगा नाचता है। इसके नाचने से समाज पर कितना बुरा असर पड़ेगा। न लोक लाज की हया है न किसी की चिंता। ये जंगल में ही ठीक थे। ऐसे मयूरों को न केवल जंगलों से बल्कि इस दुनिया से ही निष्कासित कर देना चाहिए। न रहेंगे मोर न माँगे डांस मोर। कुछ ने यह भी कह दिया कि ये मोर बड़े शरीफ बनते फिरते थे। ऊपर से थोपड़ा बड़ा सुंदर, पैर देखो तो कितन गंदे। अपनी गंदगी को छिपाकर रखता थे। छीः-छीः ऐसे दोहरे व्यक्तित्व वाले जीव को देखकर आज की पीढ़ी क्या सीखेगी। इतना सब सुन मयूरों को लगा कि वे जंगल में ही ठीक थे। ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’ की उक्ति से ‘जंगल में मोर नाचा किसी ने नहीं देखा, अच्छा हुआ’ कि उक्ति में ही अपनी भलाई समझने लगे।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'