भाजपा तो बनाना चाहती है पर क्या खुद नीतीश ऐसे हालात में मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे?

By संतोष पाठक | Nov 12, 2020

बिहार में बदलाव के एग्जिट पोल के सर्वेक्षणों के बीच मंगलवार सुबह जब मतगणना शुरू हुई तो नेताओं से लेकर आम जनता के बीच यही सवाल कौंध रहा था कि क्या एग्जिट पोल जो बता रहे हैं चुनावी नतीजे भी ऐसे ही आएंगे ? या एक बार फिर बिहार के साइलेंट वोटर राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाने जा रहे हैं। मंगलवार को पंद्रह घंटे से भी ज्यादा चले रोमांचक मतगणना के दौर के बाद ही आखिरकार बिहार की तस्वीर साफ हो पाई। मंगलवार को शुरू के कुछ घंटे मतगणना के दौरान महागठबंधन की बढ़त नजर आई और ऐसा लगा कि वाकई बिहार की जनता ने इस बार बदलाव के लिए वोट किया है लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया वैसे वैसे मुकाबला भी कड़ा होता गया। दोपहर के बाद एनडीए बढ़त में नजर आने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब लगा कि कांटे की टक्कर में किसी को भी बहुमत नहीं मिलेगा लेकिन उसके बाद हालात तेजी से बदले। महागठबंधन के मुकाबले में एनडीए ने लगभग 10-12 सीटों की बढ़त बना ली जो अंतिम परिणाम आने तक 15 तक पहुंच गई। विरोधी महागठबंधन से 15 ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने के साथ ही एनडीए ने एक बार फिर से बिहार में अपना परचम लहरा दिया।

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बहुमत से सिर्फ 3 सीट ज्यादा- 125 बनाम 110 सीट के अंतर से हुआ फैसला


देर रात आए आखिरी चुनावी नतीजे के बाद यह साफ हो गया कि बिहार में फिर एक बार नीतीश सरकार। एनडीए गठबंधन को कुल मिलाकर 125 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई। हालांकि यह 243 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के 122 के आंकड़े से महज 3 सीट ही ज्यादा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार बिहार में कितना कड़ा चुनाव हुआ है। सबसे ज्यादा फायदे में भाजपा रही जो अब छोटे भाई की बजाय बड़े भाई की भूमिका में आ गई है। भाजपा को 74 सीटों पर जीत हासिल हुई जबकि इसकी तुलना में जनता दल यूनाइटेड को महज 43 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। 2005 के बाद जनता दल यूनाइटेड अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी के खाते में 4 और जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के खाते में भी 4 सीटें आई हैं। इस बार एनडीए गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ी लोकजनशक्ति पार्टी ने नीतीश कुमार की पार्टी को खासा नुकसान पहुंचाया है।


तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़े महागठबंधन ने एनडीए को कड़ी टक्कर दी। चुनाव प्रचार के दौरान भी और एग्जिट पोल के दौरान भी। मतगणना वाले दिन भी शुरुआती दौर में ऐसा लग रहा था कि एनडीए को हार का सामना करना पड़ेगा लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, महागठबंधन पिछड़ता चला गया और अंततः उसे 110 सीटों पर जाकर ही थम जाना पड़ा। राष्ट्रीय जनता दल 75 विधायकों के साथ बिहार विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरा लेकिन सहयोगी खासकर कांग्रेस के खराब परफॉर्मेंस ने उसे सत्ता तक पहुंचने से रोक दिया। कांग्रेस को 19 और लेफ्ट पार्टियों को कुल मिलाकर 16 सीटें ही मिल पाईं।


बिहार में नरेंद्र मोदी की बदौलत- फिर एक बार एनडीए सरकार


समता पार्टी के गठन के साथ ही बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा एक साथ आए। दोनों पार्टियों ने मिलकर बिहार में लालू यादव के राज को खत्म करने के लिए लंबा संघर्ष किया। शुरुआती दौर में नीतीश कुमार गठबंधन के बड़े नेता थे लेकिन एकमात्र बड़े चेहरे नहीं थे। जैसे-जैसे गठबंधन मजबूत होता गया वैसे-वैसे नीतीश कुमार भी मजबूत होते चले गए। एक दौर ऐसा भी आया जब नीतीश कुमार बिहार में एनडीए के एकमात्र और सर्वमान्य चेहरा बन गए। नीतीश कुमार के कारण भाजपा ने अपने उस दौर के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी बिहार की धरती से दूर रखा। लंबे समय तक नीतीश कुमार के चेहरे, रणनीति और निर्देश पर ही भाजपा बिहार में चुनाव लड़ती रही।


लेकिन इस बार का चुनाव एक अलग ही परिदृश्य में लड़ा गया। इस बार भले ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार रहे हों लेकिन पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया। चुनाव के दौरान यह साफ-साफ नजर आ रहा था कि लोगों में नीतीश कुमार को लेकर गुस्सा है। चुनावी नतीजों में भी यह साफ-साफ दिखाई दिया। सीटों के लिहाज से नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड अब राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के बाद राज्य विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है। 115 विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाली जेडीयू को महज 43 सीटों पर ही जीत हासिल हुई है। जबकि इसकी तुलना में इस बार भाजपा ने अपना शानदार प्रदर्शन किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आक्रामक चुनाव प्रचार की वजह से राज्य में भाजपा शिखर पर पहुंच गई है। गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में आ गई है। विधानसभा में राजद के 75 सीट से केवल एक सीट कम- 74 लाकर दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। इसलिए 2020 की इस जीत का श्रेय नीतीश कुमार की बजाय नरेंद्र मोदी को ही दिया जा रहा है।

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क्या 7वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे नीतीश कुमार ?


एनडीए को इस बार मिली जीत में भाजपा का बड़ा योगदान है। दशकों तक बिहार में छोटे भाई की भूमिका में रहने वाली भाजपा इस बार गठबंधन में पहली बार बड़े भाई की भूमिका में आ गई है। इसी के साथ यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे ? हालांकि भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा तक सब यह कह चुके हैं कि सीटें भले ही किसी की भी ज्यादा आएं, एनडीए की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे। चुनावी नतीजे आने के बाद भी बिहार के राज्य स्तरीय नेता से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के तमाम नेता, प्रवक्ता, यहां तक कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ. संजय जायसवाल तक, सब यही दोहरा रहे हैं कि नतीजा चाहे जो भी आया हो लेकिन एनडीए गठबंधन से मुख्यमंत्री की शपथ नीतीश कुमार ही लेंगे।


लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या खुद नीतीश कुमार ऐसा चाहेंगे ? चुनावी नतीजों से यह साफ हो गया है कि जनता के मन में नीतीश कुमार को लेकर काफी गुस्सा है। नीतीश कुमार की अपनी पार्टी 2005 के बाद अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। इससे पहले फरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को अब तक सबसे कम 55 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। 2005 में ही अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को 88 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार जेडीयू की सीटों का आंकड़ा 50 से भी नीचे गिर कर महज 43 सीटों पर ही जाकर सिमट गया। क्या ऐसे में नीतीश कुमार फिर से बिहार का मुख्यमंत्री बनना पसंद करेंगे ?


ध्यान देने वाली बात यह है कि इस बार नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने के लिए सिर्फ भाजपा की बैशाखी की ही जरूरत नहीं पड़ रही है बल्कि इस बार नीतीश की सरकार 4-4 सीटों पर जीत हासिल करने वाली मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी और जीतनराम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा ( सेक्युलर ) की बैशाखी पर भी टिकी होगी। इन सबको मिलाकर भी बहुमत से केवल 3 सीटें ही ज्यादा एनडीए के खाते में आई हैं। जाहिर है कि अपने स्वभाव के विपरीत जाकर इस बार नीतीश कुमार को मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी जैसे सहयोगियों को भी भाव देना पड़ेगा। ऐसे ही कुछ सवाल नीतीश कुमार के 7वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं।


-संतोष पाठक

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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