सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि आकाशवाणी सुनकर कंस व्याकुल हो उठा। उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी और बेड़ी में जकड़ कर जेल में डाल दिया और जैसे-जैसे पुत्र होते गए उन्हें मारता गया। आइए ! यहाँ कंस के चरित्र पर थोड़ा प्रकाश डालें---
“कसि” हिंसायाम धातु से कंस शब्द बनता है जिसका अर्थ है कष्ट देना। कंस ने अपने पिता उग्रसेन को राजगद्दी से उतार दिया था और स्वयं राजा बन बैठा था। कंस कष्ट का प्रतीक बन गया था। समाज में उसकी छवि बिगड़ गई थी। अपनी छवि को सुधारने के लिए उसने अपनी चचेरी बहन देवकी की शादी धूमधाम से की थी। वास्तव में वह जनता को उल्लू बनाना चाहता था। आकाशवाणी सुनते ही उसका असली चेहरा समाज के सामने आ गया। अब देवकी के सातवें गर्भ में बलराम जी पधारे, कृष्ण ने अपनी योग माया से कहा, कि तुम ब्रज में जाओ नंद बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी रहती है। देवकी के गर्भ को उसके गर्भ में स्थापित कर दो इस प्रकार रोहिणी के गर्भ से बलराम जी का प्रादुर्भाव हुआ।
आइए ! आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं---
कंस देवकी संवाद
कंस देवकी के सौंदर्य को देख कर विचार करता है, मैंने देवकी को इतनी सुंदर इतनी तेजस्विनी कभी नहीं देखा, मैं समझ गया कि देवकी के गर्भ गुहा में मेरा शत्रु प्रविष्ट हो चुका है। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, एक ही उपाय समझ में आता है, मार देना चाहिए फिर सोचता है नहीं नहीं, यह केवल स्त्री मात्र थोड़ी है, यह बहन भी तो है, गर्भवती है, इस को मारने से स्त्री वध होगा, बाल वध होगा इतना बड़ा कलंक मेरे जीवन में लगेगा, मरना तो एक दिन है ही, लेकिन मेरे जैसे पापी को मरने के बाद भी दुनिया गाली देती है। शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित ! कंस के मन में कैसे सात्विक विचार आ रहे हैं। जो कंस विवाह के मंगल चिह्नों को धारण की हुई देवकी का गला काटने के लिए तैयार हो, वही आज इतना सदविचारवान हो गया ? इसका कारण यह है कि आज वह जिस देवकी को देख रहा है, उसके गर्भ में श्री भगवान हैं। जिसके भीतर भगवान हैं, उसके दर्शन से सद्बुद्धि का उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है। इसी कारण वह पाप करने से डरने लगा है। हत्या नहीं करनी चाहिए, बाल वध नहीं करना चाहिए यह सोच कर देवकी को छोड़कर अपने घर चला जाता है। घर पहुंचने पर फिर सोचता है ठिकाने लगा ही देना चाहिए था किंतु जब देवकी के सामने जाता है तो विचार बदल जाते हैं। परीक्षित !
चिन्तयानो ह्रिषिकेशो अपश्यन् तन्मयं जगत
उठते-बैठते खाते-पीते सोते-जागते 24 घंटा काला-काला मुरली वाला आंखों में नाचने लगा, दिखाई देने लगा। जब देवताओं ने देखा कि, देवकी मां के गर्भ में हरि आ गए हैं तब स्वागत गान करने लगे देवता, ब्रह्मा जी को शिव जी को आगे करके बंदी गृह में गर्भस्थ श्री गोविंद की स्तुति करते हैं, इसे गर्भ स्तुति कहते हैं। प्रकृति स्वागत गान के लिए सुसज्जित है। आइए ! भगवान की गर्भ स्तुति में हम भी शामिल हों। भगवान श्रीकृष्ण जैसी दिव्य संतान प्राप्त करने के लिए हर गर्भवती स्त्री को इस गर्भ स्तुति का पठन-श्रवण अवश्य ही करना चाहिए।
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ।।
एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा ।
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ।।
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ।।
बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्मा क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।
सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि सतामभद्राणि मुहुः खलानाम् ।।
त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि समाधिनावेशितचेतसैके ।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ।।
स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन् भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ।।
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस् त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ।।
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ।।
सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ शरीरिणां श्रेयौपायनं वपुः ।
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस् तवार्हणं येन जनः समीहते ।।
सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद् विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम् ।
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान् प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ।।
न नामरूपे गुणजन्मकर्मभिर्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः ।
मनोवचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो देव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ।।
शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिन्तयन् नामानि रूपाणि च मङ्गलानि ते ।
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयोर् आविष्टचेता न भवाय कल्पते ।।
दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः ।
दिष्ट्याङ्कितां त्वत्पदकैः सुशोभनैर् द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ।।
न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं विना विनोदं बत तर्कयामहे ।
भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि ।।
मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः ।
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ।।
दिष्ट्याम्ब ते कुक्षिगतः परः पुमान् अंशेन साक्षाद्भगवान्भवाय नः ।
माभूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षोर् गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः ।।
स्वागतम कृष्ण: शरणागतम पाही॥
देवताओं ने गर्भस्थ गोविंद की स्तुति की— हे प्रभु ! तीनों कालों में आपकी ही सत्ता है।
हे सच्चिदानंद ! तुमको हम बारंबार प्रणाम करते हैं आपके चरण रूपी नौका का जो आश्रय लेता है, वह इस भवसागर को बछड़े के पैर के गड्ढे के समान आराम से पार कर जाता है, आप के भक्तों का कभी पतन नहीं होता है।
शेष अगले प्रसंग में । --------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी