By सुखी भारती | Sep 08, 2022
श्रीहनुमान जी ने भगवान श्रीराम जी को, अपने भक्ति भाव से मानो वशीभूत-सा कर लिया था। एक गाय को जैसे अपने बछड़े से अतिअंत स्नेह होता है। ठीक वैसे ही श्रीराम जी को, श्रीहनुमान जी के प्रति हो रहा था। श्रीहनुमान जी को पता था, कि जब भगवान किसी भक्त पर इस भाव के स्तर तक रीझते हैं, तो समझना चाहिए, कि वे अपने भक्त पर सब कुछ न्यौछावार करना चाहते हैं। निश्चित ही यह मेरा परम सौभाग्य है, कि प्रभु मुझ अपात्र पर भी ऐसा स्नेह रखते हैं। लेकिन यह क्या, मुझे जो किसी भी मूल्य पर नहीं चाहिए, प्रभु तो मुझे वही प्रदान किए जा रहे हैं। अर्थात मैं बार-बार अपनी प्रशंसा नहीं करने का निवेदन कर रहा हूँ। और प्रभु हैं, कि मुझे हर बात पर, बस मेरी प्रशंसा ही किए जा रहे हैं। ठीक है, अगर प्रभु मुझे देने की ठान ही बैठे हैं, तो क्यों न, जो मुझे रुचिकर है, मैं वही अपने मुख से ही मांग लूँ। दूध का सार जैसे माखन होता है। ठीक ऐसे ही संसार के प्रत्येक सुख का सार तो भक्ति ही है। तो क्यों न मैं भगवान श्रीराम जी से उनकी अखण्ड भक्ति ही मांग लूँ-
‘नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।’
श्रीहनुमान जी ने, भगवान श्रीराम जी से वह मांग लिया, जो उनसे संसार के जीव अक्सरा मांगते ही नहीं। हमने जगत में अधिकांश लोगों को देखा होगा, कि वे मंदिर प्राँगण में जाकर भी, प्रभु से माया ही मांगते हैं। प्रभु को शरणागत होकर कोई यह नहीं कहता, कि हे प्रभु, हमें आपसे संसार की माया नहीं, अपितु आप ही चाहिए।
भगवान शंकर, देवी पार्वती जी को श्रीराम कथा का रसपान करवाते हुए कह रहे हैं, कि श्रीहुनमान जी की सरल, लेकिन उच्च भाव वाली वाणी सुन कर, श्रीराम जी ने कहा, कि हे हनुमंत लाल, जैसी आपने कामना की है, ठीक ऐसा ही हो, ‘एवमस्तु’। भगवान शंकर फिर कहते हैं, कि हे उमा! जिसने भी भगवान के स्वभाव को जान लिया, उसे भगवान के भजन को छोड़ कर, अन्य कुछ भी नहीं भाता। उसे संसार का अन्य कुछ भी दे दिया जाये, और साथ में यह भी कह दिया जाये, कि आपको सब प्राप्त हो जायेगा, बस बदले में आपको भगवान की भक्ति का पूर्णतः त्याग करना है। निश्चित ही अगर उस भक्त को अपने प्रभु से प्रेम है, तो वह संसार की बड़ी से बड़ी प्रभुता को भी ठोकर मार देगा। क्योंकि उसके लिए, उसके प्रभु से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ संपदा नहीं होती है। भूत, भविष्य अथवा वर्तमान में जो कोई भी, भक्त व भगवान के मध्य ऐसे सुंदर संवाद के रहस्य को समझ लेता है, वह ही श्रीराम जी की परम भक्ति को पा सकता है।
भगवान श्रीराम जी ने श्रीहुनमान जी को जैसे ही यह आशीष दिया, सभी वानर जय-जयकार करने लगे। श्रीराम जी ने देखा कि केवल मात्र, श्रीहनुमान जी ही नहीं, अपितु समस्त वानर ही भक्ति भाव में डूबे हुए हैं। तो यही अवसर है, कि लंका की और कूच किया जाये। तब श्रीराम अपने श्रीमुख से एक ऐसा वाक्य कहते हैं, जो कि बहुत ही गूढ़ भाव से सजा हुआ था-
‘अब विलंब केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे।।’
विचारणीय तथ्य है, कि श्रीराम जी को अपनी धर्मपत्नी से मिलने के लिए, क्या किसी विशेष परिस्थिति व घड़ी आने की आवश्यकता थी? जो कि उन्होंने झट से कहा, कि अब विलम्ब किस कारण से किया जा रहा है? ऐसा क्या घटा, कि प्रभु को यह बोलना पड़ा। श्रीराम जी ने वानरों में ऐसा क्या देखा, कि वे बड़े उत्साह से भरकर अपने शब्दों को कहते हैं। वास्तव में श्रीसीता जी से भेंट, कोई प्रभु श्रीराम जी को थोड़ी न करनी थी। अपितु वानर ही वे वास्तविक पात्र थे, जिनको श्रीसीता जी को शरणागत होना था। कारण कि श्रीसीता जी तो प्रभु श्रीराम जी से कभी भी विलग नहीं रही थी। श्रीसीता जी और श्रीराम जी के मध्य कोई दूरी तो है ही नहीं। दूरी तो जीव और भगवान के बीच बनी हुई है। वह दूरी भी कोई भगवान के किसी व्यक्तिगत कारण के चलते नहीं बनी, अपितु जीव के अपने कर्म ही उसे भगवान से दूर ले चलते हैं। भगवान श्रीराम जी को यह भरोसा होना अति आवश्यक था, कि जिन जीवों को भक्ति प्राप्ति के लिए, मैं इतना प्रयास कर रहा हूँ, क्या वे वानर भी इतने उत्सुक व लिलायत हैं, अथवा नहीं? तो श्रीराम जी ने देखा, कि समस्त वानरों के भीतर, सागर में उठने वाले ज्वारभाटा की भाँति ही, भक्ति का एक विशाल ज्वारभाटा भी उठ रहा है। अर्थात् समय आ चुका है, कि सागर के ज्वारभाटा की शक्ति व वेग को, भक्ति की शक्ति व वेग से परास्त किया जाये।
यह दृश्य देख कर समस्त देवी-देवता पुष्प बरसाते हुए चले, कि अब तो रावण वध निश्चित ही हैं।
अब आगे लंका नगरी की और श्रीराम जी सेना सहित बढ़ने का क्या प्रयास करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती