By अंकित सिंह | Jan 19, 2024
22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा समारोह होना है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल होने वाले हैं। कांग्रेस की ओर से राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में नहीं जाने का फैसला लिया गया है। कांग्रेस ने इसे भाजपा और आरएसएस का इवेंट बताकर निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। इसके बाद से ही 73 साल पहले सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन को लेकर जो कुछ हुआ था, उसको लेकर चर्चा शुरू हो गई है। इसी बहाने भाजपा कांग्रेस पर राम विरोधी होने का आरोप लगा रही है और 7 दशक पहले हुए घटनाक्रम के बहाने गांधी परिवार पर निशाना साथ रही है। भाजपा की ओर से पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी लपेट जा रहा है। हालांकि पूरा मामला क्या था, आज हम आपको इसके बारे में बताते हैं।
गुजरात में प्रभास पाटन, वेरावल में स्थित, सोमनाथ एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थल है। मंदिर की वेबसाइट के अनुसार, यह 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इतीहास की बात करे तो मंदिर को हमलावरों के कई हमलों का सामना करना पड़ा, जिनमें से सबसे अधिक नुकसान 1026 ईस्वी में महमूद गजनी द्वारा हुआ था। आक्रमणकारियों ने कई बार इस मंदिर को तहस-नहस किया था। औरंगजेब के आदेश पर इसे ढहा दिया गया था। धीरे-धीरे, मंदिर अनुपयोगी और जीर्ण-शीर्ण हो गया। मंदिर की वेबसाइट के अनुसार, 1782 में मराठा रानी अहल्याबाई होल्कर ने इस स्थान पर एक छोटा मंदिर बनवाया था। इस मंदिर को सबसे पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड एलेनबरो ने हिंदुओं पर इस्लाम की ज्यादतियों के प्रतीक के रूप में उजागर किया था।
आजादी के बाद, जूनागढ़, जहां सोमनाथ स्थित था, के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया, भले ही उनकी अधिकांश प्रजा ने इसका विरोध किया। विद्रोह के कारण जल्द ही नवाब को भागना पड़ा और 12 नवंबर, 1947 को भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जूनागढ़ का दौरा किया। एक विशाल सार्वजनिक सभा में उन्होंने सोमनाथ के पुनर्निर्माण के निर्णय की घोषणा की। नेहरू की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसका समर्थन किया था। हालाँकि, जब पटेल, मुंशी और अन्य लोगों ने महात्मा गांधी को निर्णय के बारे में बताया, तो उन्होंने सुझाव दिया कि परियोजना को सरकार द्वारा वित्त पोषित करने के बजाय, लोगों से पैसा आना चाहिए। अन्य लोग सहमत हुए और मुंशी के अधीन इस उद्देश्य के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई।
जब तक मंदिर बनकर तैयार हुआ, पटेल का निधन हो चुका था। मुंशी ने उद्घाटन के लिए राजेंद्र प्रसाद से संपर्क किया। नेहरू ने इस पर अपने विरोध को छिपाया नहीं। मार्च 1951 में प्रसाद को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, “मैं स्वीकार करता हूं कि मुझे सोमनाथ मंदिर के शानदार उद्घाटन के साथ खुद को जोड़ने का आपका विचार पसंद नहीं है। यह केवल एक मंदिर का दौरा करना नहीं है, जो निश्चित रूप से आपके या किसी और के द्वारा किया जा सकता है, बल्कि एक महत्वपूर्ण समारोह में भाग लेना है जिसके दुर्भाग्य से कई निहितार्थ हैं। इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि अगर आपको लगता है कि निमंत्रण अस्वीकार करना आपके लिए सही नहीं होगा तो मैं दबाव नहीं डालूंगा। उन्होंने दावा किया था कि सोमनाथ मंदिर यात्रा राजनीतिक महत्व ले रही है। यह सरकारी कार्यक्रम नहीं है। लिहाजा, उन्हें इसमें नहीं जाना चाहिए। कुल मिलाकर देखे तो नेहरू कही से भी यह नहीं चाहते थे कि डॉ राजेंद्र प्रसाद किसी धार्मिक कार्यक्रम का हिस्सा बनें। प्रधानमंत्री को लगाता था कि इससे गलत मैसेज जा सकता है।
हालाँकि, प्रसाद ने कहा कि उन्हें कार्यक्रम में शामिल होने में कुछ भी गलत नहीं लगा। उन्होंने कहा था कि मैं अपने धर्म को बहुत मानता हूं और इससे खुद को अलग नहीं कर सकता। एक महीने बाद, नेहरू ने उन्हें फिर लिखा, “मेरे प्रिय राजेंद्र बाबू, मैं सोमनाथ मामले को लेकर बहुत चिंतित हूं। जैसा कि मुझे डर था, यह एक निश्चित राजनीतिक महत्व ग्रहण कर रहा है... इसके संबंध में हमारी नीति की आलोचना में, हमसे पूछा जाता है कि हमारी जैसी धर्मनिरपेक्ष सरकार खुद को ऐसे समारोह से कैसे जोड़ सकती है।
भाजपा ने आरोप लगाया था कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण और उद्घाटन में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और कांग्रेस के कुछ नेताओं के सहयोग के विरोध में थे। भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने दावा किया कि कांग्रेस उनकी विरासत को जारी रख रही है और उसने महात्मा गांधी की ‘राम राज्य’ की अवधारणा को नकारा है। पलटवार में कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा, ‘‘सुधांशु त्रिवेदी ने एक तरह से सोमनाथ मंदिर पर पंडित नेहरू के कुछ पत्र हवा में लहराए हैं। ये पत्र और तत्कालीन गृह मंत्री राजाजी एवं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को लिखे नेहरू के अनेक पत्र सार्वजनिक हैं और ऑनलाइन उपलब्ध हैं।’’ रमेश ने ‘एक्स’ पर लिखा, ‘‘त्रिवेदी ने जो कहा है, उसमें कोई नया खुलासा नहीं हुआ है। नेहरू पूरी तरह पारदर्शी थे और अपने पीछे लिखित दस्तावेज छोड़ गए जो उन्होंने खुद लिखे थे। इस विषय पर ये कुछ पत्राचार हैं जिन्हें त्रिवेदी ने नहीं दिखाया।’’