किसकी वजह से हुआ भारत का विभाजन? गांधी की जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश, नेहरू ने अव्यावहारिक बताया

By अभिनय आकाश | Nov 13, 2021

भारत के विभाजन का कारण क्या था? क्या इससे बचा जा सकता था? बंटवारा नहीं होता तो वो खूनखराबा, जिसने 10 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले ली वो भी नहीं होता। ऐतिहासिक किरदारों और घटनाओं को लेकर हमेशा अटकलें और अनुमान लगाई जाती रही हैं। अंग्रेजी का एक जुमला 'व्हाट इफ' यूं होता तो क्या होता? क्या 1947 में देश का बंटवारा रोका जा सकता था?  पिछले 74 सालों से ये सवाल देश को कचोटता रहा है। आज जब वर्तमान दौर में पूरा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ये सवाल और भी शिद्दत के साथ चर्चा में है। इसमें चिंगारी देने का काम कुछ राजनेताओं के बयानों ने भी किया। चाहे वो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर का दिया बयान 'अगर जिन्ना भारत के प्रधानमंत्री बने होते तो देश का विभाजन नहीं होता'। या फिर बिहार के जेडीयू एमएलसी खालिद अनवर द्वारा जिन्ना को बड़ा स्वतंत्रता सेनानी और नेहरू को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना हो। इस तरह की इतिहास की बातें वर्तमान दौर में सबसे ज्यादा चर्चा में है। वैसे तो ये अक्सर कहा जाता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से किसी का कभी कोई भला हुआ है क्या? लेकिन इसके साथ ही ये भी कथन प्रचलित है कि जो इतिहास से नहीं सीखते वो इसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं। क्या देश के विभाजन के लिए गांधी और नेहरू भी उतने ही जिम्मेदार थे, जितने जिन्ना?

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पन्नों में वर्षों का हिसाब सिमट जाता है और वर्षों का हिसाब रखने वाली शख्सियतें गजों में दफ्न हो जाती है। हिन्दुस्तान के इतिहास ने भी ऐसे ही कद्दावर नेता देखें हैं। जिनका असर आम लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। मोहनदास करमचंद गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना। कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जिन्हें इतिहास कभी भुला नहीं सकता। 16 अगस्त 1946 की एक तारीख हिन्दुस्तान की आजादी के इतिहास की ऐसी ही तारीख है जिसने बंटवारे की हकीकत पर मुहर लगा दी। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अपने स्वार्थ के लिए एक धड़े ने भारत को बांटने का दावा पेश कर दिया था। उनकी मांग थी पश्चिम के पेशावर से लेकर पंजाब के अमृतसर और कोलकाता समेत एक अलग राष्ट्र जो सिर्फ मुसलमानो के लिए बनेगा और जिसका नाम होगा पाकिस्तान। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी का एक देश, एक विधान, एक निशान और एक संविधान का नारा पूरे देश में गूंज रहा था। लेकिन मुस्लिम लीग की डायरेक्ट एक्शन डे की घोषणा ने पूरे देश को आग से खेलने पर मजबूर कर दिया था। जिन्ना ने कहा कि अगर समय पर बंगाल का सही फैसला नहीं मिला तो...हमें अपनी ताकत दिखानी पड़ेगी। भारत से हमें कोई लेना-देना नहीं। हमें तो पाकिस्तान चाहिए, स्वाधीन पाकिस्तान चाहे भारत को स्वाधीनता मिले या न मिले। गोली और बम की आवाज से कांप उठी थी भारत मां की धरती। पूर्वी बंगाल का नोआखाली जिला। मुस्लिम बहुल इस जिले में हिंदुओं का व्यापक कत्लेआम हुआ था। कलकत्ता में 72 घंटों के भीतर 6 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। 20 हजार से अधिक घायल हो गए थे। 1 लाख से अधिक बेघर हो गए थे। इसे ग्रेट कलकत्ता किलिंग भी कहा जाता है।

पाकिस्तान पर मुहर लगवाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए

2 जून 1947, नॉर्थ कोट, नई दिल्ली: जब मीटिंग के बाद जब जिन्ना उठे तो मेज पर सादा कागज छोड़ गए। उस कागज पर रॉकेट, टेनिस रैकेट, उड़ते हुए गुब्बारों की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- गवर्नर जनरल। मतलब साफ था कि जिन्ना को गवर्नर जनरल बनना था लेकिन भारत का नहीं बल्कि पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बनना था। मीटिंग के बाद जिन्ना मेज पर सादा कागज छोड़ गए थे वो लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा बुलाई गई थी। बैठक में माउंटबेटन के साथ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के तौर पर मोहम्मद अली जिन्ना मौजूद थे। जाहिर था कि 2 जून 1947 की तारीख तक जिन्ना अपने भावी पदनाम के बारे में सोच चुके थे। जिन्ना को बखूबी पता था कि गवर्नर जनरल का पद उन्हें हिन्दुस्तान में नहीं मिल सकता। इसलिए इस कुर्सी तक पहुंचने के लिए जिन्ना पाकिस्तान बनाने की खूनी जिद पाल चुके थे। ये जिद 1937 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग की करारी हार के बाद बढ़ती गई। इसके लिए एक और तारीख बहुत अहम साबित हुई। 24 मार्च 1946 से करीब साल भर पहले द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। अब तक कभी न अस्त होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज डूबने लगा था और अंग्रेजी हुकूमत कमजोर हो चुकी थी। ऐसे में अंग्रेजों को भारत छोड़ने की जल्दी थी। लेकिन दिक्कत ये थी कि 200 वर्षों से गुलाम देश को आजाद कैसे किया जाए और भारत को सत्ता का हस्तांतरण कैसे किया जाए। एक तरफ कांग्रेस थी जिसके नेता महात्मा गांधी थे। गांधी जी के नेतृत्व में आजादी की मांग बुलंद हो चुकी थी। गांधी जी भारत का बंटवारा किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे। दूसरी तरफ मुस्लिम लीग थी जो मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग कर रही थी। भारतीयों को सत्ता सौंपने के उद्देश्य से 24 मार्च 1947 को ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन को दिल्ली भेजा। कैबिनेट मिशन ने कांग्रेस और लीग नेताओं से चर्चा शुरू की। उस वक्त समूचे हिन्दुस्तान में कांग्रेस का दबदबा था। महात्मा गांधी सबसे बड़े लीडर थे जिनके सहयोगी पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम जैसे नेता। दूसरी तरफ मुस्लिम आबादी पर मुस्लिम लीग की बेशुमार पकड़ थी। मोहम्मद अली जिन्ना इसके सुप्रीम नेता था। 1940 के दशक में जिन्ना ने बहुत ही चालाकी के साथ अपना राजनीतिक भविष्य तैयार किया। उन्हें पता था कि कांग्रेस में उनका भविष्य नहीं है। क्योंकि मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति को गांधी जी कभी स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसी सूरत में जिन्ना ने मजहबी एजेंडे को मजबूती से थामा।

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कांग्रेस और जिन्ना की बढ़ती दूरी

कांग्रेस और जिन्ना की  बढ़ती दूरी को समझने के लिए जनवरी 1946 के प्रांतीय चुनाव के नतीजों को समझने की जरूरत है। बंगाल, पंजाब और  सिंध के मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम लीग को बेशुमार कामयाबी मिली। इसके अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश यानी संयुक्त, मध्य प्रांत, उड़ीसा जैसी मुस्लिम बहुल सीटों पर मुस्लिम लीग कांग्रेस के मुकाबले 20 साबित हुई। इस चुनाव ने तय कर दिया कि पाकिस्तान बनना बस अब वक्त की बात है। इस चुनाव के बाद ये भी तय हो गया कि मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान से कम पर तैयार नहीं होंगे। फिर भी कैबिनेट मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों से सलाह मशविरा किया। कोई रास्ता नहीं निकला क्योंकि कांग्रेस बंटवारे के लिए तैयार नहीं थी और जिन्ना को विभाजन से कम कुछ भी मंजूर नहीं था। लिहाजा मिशन ने एकतरफा घोषणा कर दी। जिसके तहत केंद्र में एक अंतरिम सरकार के अलावा प्रांतों की अलग-अलग सरकारें होती। इसके अलावा संविधान के निर्माण के लिए संविधान सभा का प्रस्ताव दिया गया। शुरुआत में जिन्ना ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए अंतरिम सरकार में शामिल भी हो गए। लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही पूरा खेल बदल गया।

देश जल रहा था और जिन्ना को सता रही थी अपने सिगार की चिंता

जिन्ना को दुनिया में उन नेताओं में गिना जाता है, जो आखिरी समय तक लग्जरी वाली जिंदगी बिताते रहे। उन्हें अच्छा पहनने, खाने और नफासत का खास खयाल रहा। जब देश में दंगे फसाद हो रहे थे उस वक्त भी जिन्ना को अपने सिगार की फिक्र थी। इसी बीच देश के हालात बिगड़ने लगे, कहीं हड़तालें होनी लगीं तो कहीं दंगे फ़साद की नौबत आ गई। हरियाणा के रेवाड़ी से 70 हिंदुओं का अपहरण कर लिया गया। भारत के नेता इन स्थितियों को लेकर चिंता में थे। लेकिन उस समय पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को सिर्फ़ अपने सिगार की फ़िक्र थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने देहरादून के किसी यूनुस को चिट्ठी लिखी और पूछा कि उनके सिगार के  डिब्बे कहां हैं? मतलब साफ है कि जब भारत बंटवारे की आग से जल रहा था तो उस वक्त जिन्ना को अपने लग्जरी लाइफ और शौक की पड़ी चिंता थी। वो अपने खोए सिगार को लेकर चितिंत थे।

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गांधी की जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश, नेहरू को अस्वीकार्य

स्टेनली वॉलपर्ट ने जिन्ना की जीवनी 'जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान' के अनुसार माउंटबेटन को गांधी जी ने जिन्ना को सरकार गठित करने का पहला मौका देने की बात कही। बीबीसी में किताब के हवाले से प्रकाशित किए गए संदर्भ के अनुसार गांधी ने माउंटबेटन के सामने जिन्ना को सरकार गठिक करने का पहला मौके दिए जाने की बात कही। अगर वह ये प्रस्ताव स्वीकार कर लें तो कांग्रेस ईमानदारी से खुल कर उनसे सहयोग की गारंटी दे बशर्ते जिन्ना की मंत्रिपरिषद भारतीय जनता के हित में काम करे। माउंटबेटन इस प्रस्ताव को देखकर चौंक गए। माउंटबेटन ने गांधी से पूछा कि इस पेशकश पर जिन्ना क्या कहेंगे? गांधी का जवाब था कि अगर आप उन्हें बताएंगे कि ये फॉर्मूला मैंने तैयार किया है तो उनका जवाब होगा 'उस धूर्त गांधी ने। बहरहाल, गांधी की ये पेशकश जिन्ना को कभी बताई ही नहीं गई। हां, लेकिन ये जरूर है कि माउंटबेटन ने इस मसले पर नेहरू से बात जरूर की थी। लेकिन नेहरू की प्रतिक्रिया इसको लेकर पूरी तरह नकारात्मक थी। स्टेनली वॉलपर्ट की किताब के अनुसार नेहरू को ये जानकर बड़ी ठेस लगी कि उनके महात्मा उनकी जगह क़ायद-ए-आज़म को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं। गांधी जिन्ना को अच्छी तरह से समझते थे। वो जानते थे कि इस तरह का प्रस्ताव जिन्ना के अहम को कितना मीठा स्पर्श दे सकता है। लेकिन नेहरू ने माउंटबेटन से कहा कि ये सुझाव एकदम अव्यावहारिक है।

जिन्ना का एक राज खुल जाता तो नहीं होता भारत का बंटवारा

लाशों के ढेर पर मुल्क का बंटवारा और पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म बनने की सनक पाले जिन्ना का एक राज अगर दुनिया को पता चल जाता तो पाकिस्तान के  बंटवारे की घटना से बचा जा सकता था। जिन्ना की बेटी तक को उनकी मौत के बारे में बाद में पता चला था। पाकिस्तान का निर्माण उनका सपना था। लेकिन वे अपने सपनों के पाकिस्तान में सिर्फ 13 महीने ही रह सके। 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना का 72 साल की उम्र में निधन हो गया था। उनकी मौत टीबी से हुई थी। फ्रांसीसी पत्रकार डोमिनीक लापिएर और अमेरिकी लेखक लैरी कॉलिन्स ने अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखा है, ‘जिन्ना जानते थे कि यदि उनके हिन्दू दुश्मन को पता चल गया कि वे मरने वाले हैं तो उनका पूरा राजनीतिक दृष्टिकोण बदल जाएगा। वे उनके कब्र में पहुंचने का इंतजार करेंगे और फिर मुस्लिम लीग के नेतृत्व में नीचे के ज्यादा नरम नेताओं के साथ समझौता करके उनके सपनों की धज्जियां उड़ा देंगे। यदि अप्रैल, 1947 में लुई माउंटबेटन, जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गांधी को बहुत ही असाधारण ढंग से जिन्ना द्वारा छुपाकर रखे इस रहस्य का पता होता, तो विभाजन का खतरा टाला जा सकता था। पिछले 50 सालों से लगातार सिगरेट और सिगार पी रहे जिन्ना की खांसी बहुत बढ़ गई थी। वो बुखार के साथ कमजोरी अनुभव कर रहे थे। उन्होंने ये बात सबसे छिपा रखी थी। हालांकि उस समय तक उन्हें भी नहीं मालूम था कि वो एक बीमारी का शिकार हो चुके हैं, जिसके बाद उनके जीवन में बहुत कम समय रह गया है। पारसियों की लोकप्रिय वेबसाइट "पारसी न्यूज डॉट नेट" का कहना है कि जिन्ना जब बहन फातिमा के साथ मुंबई में डॉक्टर के क्लीनिक पर पहुंचे तो डॉक्टर ने उन्हें जांचा परखा। उन्हें अंदाज होने लगा कि जिन्ना टीबी बीमारी के शिकार हो चुके हैं। ये बीमारी ऐसी स्टेज में पहुंच चुकी है कि उन्हें ठीक करना मुश्किल होगा। पुष्टि के लिए एक्स-रे की जरूरत थी। एक्स-रे करवाने के बाद इसमें साफ दिख रहा था कि उन्हें टर्मिनल ट्यूबरकोलाइसिस है। ये जिस स्टेज में है, उसमें वो एक-दो साल से ज्यादा नहीं जी पाएंगे। एक्स-रे की ये फिल्म एक लिफाफे में बंद थी, जिस पर किसी का नाम नहीं लिखा था। 11 सितंबर, 1948 को जिन्ना का निधन हुआ। जब बंगाल के राज्यपाल कैलाशनाथ काटजू ने पूछा कि क्या जिन्ना के सम्मान में भारत के झंडे आधे झुका दिए जाएं तो सरदार पटेल ने बहुत रूखेपन से जवाब दिया-क्या वह आपके रिश्तेदार लगते हैं?

-अभिनय आकाश 

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