By आरएन तिवारी | Dec 17, 2021
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के भागवत-कथा प्रेमियों ! पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि- दक्ष कन्या सती यज्ञ मंडप में अपने ही पिता के द्वारा पति शिवजी का अपमान नहीं सहन कर सकीं और योगाभ्यास करके स्वयम को अग्नि में जला दिया था।
आइए ! अब आगे की कथा में चलते हैं—
नारद जी ने सती के तन त्याग की खबर महादेव को दी, शिवजी ने सती का मरना सुना तो क्रोध में अपनी जटाएँ पृथ्वी पर पटक दी जिससे वीरभद्र नाम का एक महाबली शिवजी का गण उत्पन्न हुआ। उसका शरीर पहाड़ के समान विशाल था। त्रिशूल और भूत-प्रेत की सेना लेकर यज्ञशाला में पहुँचा। बड़ी फुर्ती से दक्ष प्रजापति का सिर काटकर अग्निकुंड में डाल दिया और सबको मार-पीटकर वहाँ से भगा दिया। यज्ञ की सामग्री फेंक दी और यज्ञ विध्व्न्स कर डाला। आपस में सभी देवता कानाफूसी करने लगे, महादेव का अपमान करने वाले की यही दशा होती है। अब क्या करें सभी ऋषि, मुनि, ब्राह्मण दुखी होकर ब्रह्माजी के पास गए, उनसे सारा वृतांत कहा। ब्रह्माजी सबको लेकर पुन: महादेव के निवास स्थान कैलाश पर्वत पर आए। उनसे अनुनय विनती की। भगवान शिवजी सबको लेकर यज्ञशाला में आए और दक्ष समेत सबको पुन: जीवित किया। दक्ष ने हाथ जोड़कर अपने दामाद शिवजी को साष्टांग दंडवत किया और अपने किए पर पश्चाताप करते हुए क्षमा माँगी। शिवजी तो आशुतोष हैं, प्रसन्न हुए और यज्ञ सम्पन्न करवाया। यज्ञ सम्पूर्ण होते ही यज्ञकुंड से साक्षात यज्ञपुरुष भगवान यज्ञनारायण कौस्तुभमणि धारण किए हुए, वैजयंती माला पहने हुए हाथ में शंख चक्र गदा लिए हुए प्रकट हुए। सबने साष्टांग प्रणाम किया। दक्ष ने हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभों ! अज्ञान वश मैंने शिवजी का अपमान किया था, जिसका दंड मुझे मिला। मुझे यह आशीर्वाद दीजिए कि फिर मुझे ऐसी दुर्बुद्धि न व्यापे। भगवान नारायण ने सबको इच्छापूर्वक वरदान दिया और वैकुंठ लोक को पधारे। ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने-अपने लोक को पधारे। उस दिन से दक्ष प्रजापति शिवजी को अपना इष्ट देव मानकर सेवा करने लगे।
बोलिए महादेव भगवान की जय---- भागवत का एक सुंदर संदेश— ससुर को अपने ही दामाद से माफी क्यों मांगनी पड़ी? घमंड की वजह से। घमंड भगवान का भोजन है। इससे बचना चाहिए।
न होगा कभी क्लेश मन को तुम्हारे, यदि अपनी बड़ाई से बचते रहोगे।
चढ़ोगे सभी के हृदय पर सदा तुम, जो अभिमान गिरि से उतरते रहोगे॥
ध्रुव चरित्र
मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी महाराज! स्वायम्भुव मनु की तीनों कन्याओं की कथा सुनाई। अब उनके बेटे का हाल सुनिए। स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र हुए। प्रियव्रत और उत्तानपाद ये दोनों कृष्ण की कला से उत्पन्न हुए थे, संसार की रक्षा मे सदा तत्पर रहते थे।
प्रियव्रतोत्तानपादौ शतरूपा पते: सुतौ ।
वासुदेवस्य कलया रक्षायाम जगत: स्थितौ॥
उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थीं। सुरुचि और सुनीति। सुरुचि का अर्थ है जो अपनी रुचि के अनुसार काम करे। अपने मन का करे, किसी को अच्छा लगे या बुरा। सुनीति का अर्थ है जो नीति के अनुसार ऐसा काम करे, जो सबको प्रिय लगे। सुरुचि छोटी थी, राजा को बहुत प्रिय थी। उसके बेटे का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र ध्रुव जी महाराज हुए। एक दिन राजा सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद मे लेकर लाड़-प्यार कर रहे थे। उसी समय बालक ध्रुव भी पहुँच गए और पिता की गोद मे बैठने के लिए मचलने लगे। छोटे बच्चों का ये स्वभाव होता है एक को देखकर दूसरा भी मचल उठता है। राजा ने ध्रुव को गोद मे नहीं लिया, वे अपनी छोटी रानी सुरुचि से डरते थे। सुरुचि वहीं मौजूद थी। अपनी सौत के पुत्र ध्रुव को राजा की गोद मे बैठने के लिए उतावला देखकर बड़े कठोर शब्दों मे कहा-
न वत्स नृपतेर्धिष्ण्यं भवानारोढुमर्हति
न गृहीतो मया यत्त्वं कुक्षावपि नृपात्मज:।।
अरे, बच्चे ! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है, भले ही राजा का बेटा है तो क्या हुआ। तुमको मैंने अपनी कोख से तो पैदा नहीं किया है।
तपसाराध्यं पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीचछसि नृपासनम्।।
यदि राजा की गोद मे बैठना चाहता है तो परम पुरुष नारायण की आराधना कर उनकी कृपा से मेरे गर्भ मे जन्म ले।
देखिए ! ममता के कारण मति मलीन हो जाती है। रामावतार में कैकेई की मति भी मलीन हो गई थी और महाभारत में भी ममता के कारण ही अधर्म को अमर करने की कोशिश गांधारी ने की थी। पुत्र दुर्योधन को नग्न देखकर अजर-अमर करना चाहती थी। परिणाम क्या हुआ ? आप सभी जानते हैं।
इस कथा में राजा उत्तानपाद जीव हैं और ध्रुव ब्रह्मानन्द हैं। जब जीव ब्रह्मानन्द से मिलना चाहता है, तब सुरुचि जैसी कुबुद्धि इंद्रियां जीव और ब्रह्म के मिलन में बाधा डालती हैं। इसीलिए सुरुचि राजा को ध्रुव से मिलने नहीं देती। इस जगत में जीव की दो प्रकार की वृतियाँ होती हैं। एक सुनीति और दूसरी सुरुचि। सुनीति सतमार्ग पर चलती है और सुरुचि कुमार्ग पर।
सुरुचि कहना चाहती है कि मेरे गर्भ में आना भगवान की कृपा से भी बड़ी बात है। ऐसा कहकर उसने भगवान का भी अपमान कर दिया। छोटा बच्चा भगवान का रूप होता है। उसका अपमान भगवान का ही अपमान है। यह उसकी दूसरी गलती थी। उसने भगवान का double अपमान किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उसे अपने पुत्र का मरण देखना पड़ा और वह खुद भी भरी जवानी में ही मौत के मुंह में समा गई। कितने घमंड में थी वह, अपने को भगवान से भी बढ़कर समझ रही थी। वह अपने को इतना श्रेष्ठ समझ रही थी कि उसके गर्भ में आने के लिए भगवान की तपस्या जरूरी है। उसका गर्भ भगवान से भी बड़ा हो गया है। श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
-आरएन तिवारी