रावण ने देखा कि वानर को एक बात पूछो, ओर यह आगे दस सुना रहा है। इसने तो अपनी चर्चा ही बालि और सहस्त्रबाहु वाले काण्डों से आरम्भ की है। अब पता नहीं यह वानर मेरी क्या-क्या पोल खोल सकता है। मैं तो सोचा रहा था, कि यह मेरे समक्ष अपने प्राणों की भीख के लिए गिड़गिड़ायेगा। लेकिन यह वानर तो यूँ तन कर खड़ा है, मानों इसे मेरा रत्ती भर भी भय नहीं है। भय तो छोड़ो, इसे तो तनिक-सी, लज्जा तक नहीं है। यह अपने स्वामी को भला क्या मुख दिखायेगा, कि लंका में पता नहीं वह कौन-सा तीर मार बैठा था। और वास्तविकता यह है, कि यह भरी सभा में मेरे सामने पाश में बँधा पड़ा है। अपनी पराजय पर भी इसे लज्जा नहीं है। रावण के अंतःकरण में उठ रही, यह विष की धारा, श्रीहनुमान जी सहज ही देख पा रहे थे। तभी उन्होंने तत्काल ही रावण का भ्रम दूर किया, और बोले-
‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।’
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे रावण! बँधे जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं है। लज्जा भला किस बात की। क्योंकि मैं तो श्रीराम जी का कार्य कर रहा हूँ। उनकी सेवा में मैं मेघनाद को बाँध लेता, तो भी यह प्रभु की ही कृपा से संभव होता। और अगर मुझे आज बँध जाने की सेवा निभानी है, तो यह भी मेरे प्रभु की ही कृपा है। प्रभु मुझे भवन निर्माण की सेवा दे देंगे, तो हम तो उसमें भी प्रसन्न हैं। और अगर प्रभु हमें उसी भव्य भवन को गिराने का आदेश दे देंगे, तो हमें उसमें भी उतनी ही प्रसन्नता होगी, जितनी उस भवन को बनाने में हुई थी। मान-सम्मान से परे उठेंगे, तभी तो मेरे प्रभु की सेवा से हम न्याय कर पायेंगे। नहीं तो उनकी पावन शरण में आकर भी, निश्चित ही हम कष्टों से ही ग्रसित रहेंगे। रावण ने सोचा, कि इस विचित्र वानर को तो यह भान भी नहीं है, कि इसे दोनों हाथ जोड़ कर मुझसे क्षमा याचना भी करनी है। रावण अपने अहंकार को तुष्ट करता हुआ, फिर एक बार हँसा। रावण हँसा इसलिए, क्योंकि वह यह दिखाना चाहता था, कि वानर जाति को भला क्या अपमान अथवा सम्मान की जानकारी होगी। कारण कि इनका तो वैसे भी कोई सम्मान नहीं होता है। अब जिसका कोई सम्मान ही नहीं, तो भला उसका अपमान क्या होगा। लेकिन वानर को प्राणों का भी भय न हो, यह भला कैसे हो सकता है? कारण कि प्राणों का मोह तो क्षुद्र से क्षुद्र जीव को भी होता है। भला कौन अपने प्राणों को बचाने के लिए, मिन्नतें नहीं करता। निश्चित ही इस वानर को भी मैं अपने समक्ष दोनों हाथ जोड़े देखना चाहता हूँ। सज्जनों संयोग देखिए कि श्रीहनुमान जी ने उसी समय अपने हाथों को जोड़ भी लिया। अवश्य ही श्रीहनुमान जी ने रावण के मन की बात पढ़ ली होगी। लेकिन क्या श्रीहनुमान जी सचमुच रावण से अपने प्राणों की भीख माँगने वाले थे। जी नहीं, ऐसा भला कैसे हो सकता था। क्या गंगा जी भी कभी अपनी पावनता की रक्षा हेतु, किस गंदे नाले के समक्ष झुकती देखी हैं। अथवा सूर्य भगवान को किसी अँधेरी कँद्रा से सहमते देखा है। तो फिर श्रीहनुमान जी रावण के समक्ष, हाथ जोड़ कर क्यों खड़े हो गए। तो चलिए सज्जनों, आपके संदेह का भी नाश कर दें। वास्तव में श्रीहनुमान जी ने हाथ, क्षमा याचना करने के लिए नहीं जोड़े थे। अपितु रावण को सद्मार्ग की शिक्षा देने हेतु, उसे समझाने हेतु जोड़े थे। श्रीहनुमान जी हाथ जोड़ कर क्या आग्रह करते हैं-
‘बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।’
अर्थात हे लंकापति रावण! मैं तुम्हारे समक्ष हाथ जोड़ कर विनती करता हूँ, कि तुम अभिमान छोड़ कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो, और भ्रम त्यागकर भक्त भयहारी भगवान का भजन करो। रावण ने जब श्रीहनुमान जी के यह वाक्य सुने तो रावण तो हँस-हँस कर मानो पगला-सा गया क्योंकि उसे किसी का सीख देना, तो मानों संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य लग रहा था। कारण कि सीख तो उसने उनकी नहीं सुनी थी, जिनसे समस्त संसार सीख लेता था। अर्थात उसके तपस्वी पिता विर्श्वा मुनि, और उसके दादा पुलस्तय ऋर्षि। और एक वानर की सीख वह सुन लेगा, यह तो स्वप्न में भी संभव नहीं था। लेकिन क्या रावण श्रीहनुमान जी की सीख सुन पाता है? अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती