भगवान श्रीराम जी को जाम्बवान जी कहते हैं, कि लंका में एक बार अंगद को भेजना अति उत्तम होगा। जाम्बवान जी के इस विचार का सबने साधु-साधु कहकर समर्थन किया। सबसे बड़ी बात, कि श्रीराम जी भी वीर अंगद के नाम पर अति प्रसन्न हैं। लेकिन अगर लौकिक दृष्टि से अवलोकन किया जाये, तो कहीं न कहीं, वीर अंगद को लेकर मन में प्रश्न अवश्य ही फन उठाये बैठे हैं। पहला तो यही, कि जो योद्धा विगत दिनों में यह कह चुका हो, कि मैं लंका में चला तो जाऊँगा, लेकिन वापस आने में संदेह है। तो ऐसा व्यक्ति, जो मन से अपने लक्ष्य को लेकर संदेह का भाव रखता हो, क्या उसे लंका के भीतर भेजना उचित होगा?
तो इसे सकझने के लिए हमें वीर अंगद के आंतरिक मन की दशा व दिशा, दोनों पर ही विचार करना होगा। वास्तव में वीर अंगद ही क्या, वानर सेना व संसार में प्रत्येक जीव, प्रभु भक्ति के पथ पर, एक क्रम व अवस्था का अनुसरण करता है। जैसे कोई विद्यार्थी कभी पहली कक्षा के पठन-पाठन को अतिअंत कठिन मानता है। कारण कि उसकी बुद्धि व बल का उतना ही विकास हुआ है। लेकिन जैसे-जैसे वह अभ्यास करता है, विद्या अध्ययन को निष्ठा से समय देता है, वैसे-वैसे वही पाठ्यक्रम उसे बड़ा आसान लगने लगता है। वह स्वयं को ही, यह कहते हुए उलाहने देता है, कि अरे यार! मैं भी न बस पागल ही था। कितने आसान पाठ को मैं नाहक ही कठिन माने बैठा था।
लंका गमन के बारे में वीर अंगद के मन की भी ठीक यही अवस्था थी। उसे लगा कि रावण बड़ा छलिया है। कोई समय था, जब मेरे पिता जी ने, उसे अपनी काँख में दबाकर छः माह तक, पूरे संसार में उसकी फेरी लगाई थी। रावण बड़ी भयंकर पकड़ में था। उसका बचना संभव ही नहीं था। लेकिन उसने ऐसी स्थिति में भी, ऐसी क्या युक्ति लगाई, कि पिता बालि ने, न सिर्फ उसे स्वतंत्र किया, अपितु उसे अपना मित्र भी बना डाला। मैं तो कयोंकि अपने पिता की ही भाँति उनकी परछाई हूँ। तो ऐसे में अगर उसने मुझ पर भी कोई ऐसा जादू कर दिया, तो अनर्थ हो जायेगा।
हम ऐसा दावा नहीं कर रहे, कि वीर अंगद ने ऐसा सोचा ही होगा। लेकिन सांसारिक अवलोकन ऐसा कहा सकता है। वीर अंगद के लंका जाने से पीछे हटने में एक और मुख्य व ठोस कारण था। वह यह कि उनके मन में भ्रम था, कि लंका तक पहुँचने में तो कोई अड़चन अथवा परेशानी नहीं आयेगी, लेकिन वापस आने में अवश्य बाधा है। जबकि श्रीहनुमान जी की लंका यात्रा में हुआ इसके बिल्कुल उल्ट। क्योंकि श्रीहनुमान जी जब लंका यात्रा पूर्ण करके, वापस सागर इस पार लौटे, तो वहाँ से किष्किंधा लौटते समय, श्रीहनुमान जी ने वीर अंगद को, अपनी लंका यात्रा की संपूर्ण गाथा कह सुनाई। वह गाथा सुनकर, वीर अंगद गहन सोच में पड़ गए थे, कि अरे! मैं नाहक ही अनुचित विचारों से पीड़ित रहा। और मन में बस एक ही रट लगाये रखे रहा, कि लंका जाने में तो कोई कठनाई नहीं, लेकिन वापस आने में अवश्य ही संशय है। जबकि श्रीहनुमान जी कह रहे हैं, कि मुझे वापस आने में तो रत्ती भर की कठनाई नहीं आई, लेकिन लंका पहुँचने में अवश्य ही मुझे मैनाक पर्वत, सिंहिका राक्षसी, सुरसा व अन्य विभिन्न प्रकार की रुकावटें आई।
यह श्रवण कर वीर अंगद ने सोचा, कि भक्ति पथ पर मैं अभी तक क, ख, ग भी ढंग से नहीं सीख पाया। निश्चित ही मुझे अपनी बुद्धि का त्याग कर, श्रीराम जी के युगल चरणों में, संपूर्ण समर्पण करने की आवश्यक्ता है। काश! मैं लंका जाने के दुर्लभ सेवा के अवसर को, हाथों से न जाने देता। श्रीराम जी अवश्य ही यह अवसर मुझे देना चाहते थे। तभी तो इतने महान व एक से एक बलवान वानरों में, एक भी वानर ने यह दावा नहीं किया था, कि हाँ मैं सागर पार कर सकता हूँ। केवल मैं ही था, जिसने यह हुँकार भरी थी। हाँ, श्रीहनुमान जी तो सदा से ही सागर पार करने में सक्षम थे। लेकिन प्रभु ने लीला करके उन्हें भी दूर मौन बिठा रखा था। इस सब के पीछे कारण सिर्फ एक था, कि प्रभु लंका में मुझे भेजना चाहते थे। लेकिन मैंने इस महान व शुभ अवसर को अपने हाथों से फिसलने दिया। निश्चित ही इस गलती की पीड़ा व पश्चाताप, मुझे सदैव दुख देता रहेगा। अब पता नहीं, जीवन में यह अवसर कब आये, कि जब प्रभु कहें, कि हे वीर अंगद! जाओ, तुम्हें लंका जाना है, और हमारे कार्य को पूर्ण करके आना है।
वीर अंगद प्रभु श्रीराम जी की दिव्य लीलाओं को देख यह भली भाँति समझ गए थे, कि हम तो एक कठपुतली हैं। प्रभु जैसे चाहेंगे, हमें नचा सकते हैं। हमें अपनी हीन बुद्धि का प्रयोग न करके, बस समर्पण करने की आवश्यकता है। कार्य तो प्रभु ने स्वयं ही सिद्ध किए होते हैं। और वे समस्त कार्यों के पीछे, प्रभु का केवल एक ही लक्ष्य होता है, वह यह कि किसी न किसी प्रकार से मेरे भक्त का सम्मान व आदर बढ़े।
और सज्जनों, प्रभु ने जैसे ही कहा, कि हे वीर अंगद, जाओ तुम्हें लंका में जाना है, और हमारा कार्य पूर्ण करके आना है। तो वीर अंगद का मन गदगद हो उठा। आखों में पानी तैर गया। भावनाओं का ज्वर फूट पड़ा। मन में स्तुतियों के फुँहारे जन्म ले उठे। होंठों से बार-बार यही शब्दों की लड़ी बन रही है, कि प्रभु आप धन्य हैं। आप ने किन कठिन परिस्थितियों में भी मेरी इच्छा का ध्यान रखा। आपने भाँप लिया था, कि मुझे लंका नगरी नहीं जाने का पछतावा था। तो आपने मुझे अपनी उस गलती को सुधारने का फिर से एक स्वर्ण अवसर दिया, इसके लिए मैं सदैव आपका ऋणी रहूँगा। आश्चर्य है, कि अपने भक्त को आदर देने के लिए, आप कैसे परिस्थितियां तैयार कर देते हो। संसार में यह कोई नहीं समझ सकता। बस मेरे मन में तो एक ही बात उठ रही है-
‘स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।।’
वीर अंगद लंका में प्रवेश करते ही क्या धूम धड़ाका करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती