By सुखी भारती | Oct 31, 2024
हमने विगत अंक में जाना, कि सप्तऋषियों ने देवी पार्वती जी के समक्ष एक प्रस्ताव रखा, कि आप भोलेनाथ को वर पाने की हठ छोड़ दें। कारण कि हमने आपके लिए एक अच्छा वर जो देख रखा है।
मुनियों ने भगवान विष्णु जी के बारे में ही देवी पार्वती जी को संकेत किया था। निःसंदेह मुनियों का प्रस्ताव अत्यंत लुभावना था। कारण कि भगवान विष्णु एवं भोलनाथ के मध्य तुलना करनी हो, तो सुख, ऐश्वर्य व सुंदरता के संदर्भ में भगवान विष्णु ही श्रेष्ठ हैं। संसार की कोई भी कन्या को अगर इन दोनों महाशक्तियों में से किसी एक को चुनना हो, तो निःसंदेह कोई भी कन्या भगवान विष्णु जी को ही वरण करेगी। किंतु क्या देवी पार्वती जी से भी हम यही आशा करने वाले हैं? अगर हाँ! तो हम गलत हैं। कारण कि देवी पार्वती जी तो मुनियों की बात को सुन कर हँस देती हैं। उनका भगवान शंकर के प्रति प्रेम व वैराग्य कम होने की बजाये और दृड़ हो जाता है। उनके निश्चय की दहाड़ आप स्वयं उनके वचनों में धव्नित होते देख सकते हैं-
‘सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा।
हठ न छूटै बरु देहा।।
कनकउ पुनि पषान तें होई।
जारेहुँ सहजु न परिहर सोई।।’
अर्थात हे साधुजनों! आपने सत्य ही कहा है, कि मेरा यह तन पर्वत से उत्पन्न हुआ है। इसलिए मेरा हठ नहीं छूट सकता है। मेरा शरीर भले ही क्यों न छूट जाये। आप ने तो देखा ही होगा, कि सोना भी पैदा तो पत्थर से ही होता है, किंतु उसे कितना भी क्यों न जलाया जाये, वह अपना सुवर्णत्व का स्वभाव नहीं छोड़ता। ठीक ऐसे ही मैं भी हुँ। पर्वत की पुत्री होने के नाते, मैं भी अपने कठोर निर्णय लेने के स्वभाव का त्याग नहीं कर सकती। माना कि भगवान शंकर अवगुणों के भवन हैं, और भगवान विष्णु को देखा जाये, तो वे सदगुणों के धाम हैं। किंतु जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से ही काम है। इसलिए हमारा तो एक ही हठ है, कि हमें अपने जीवन में अगर वर को पाना है, तो केवल और केवल महादेव जी को ही पाना है।
रही बात, कि गुरु नारद जी के वचन लोगों का घर उजाड़ते हैं। तो हे मुनियों! आप भी ध्यान से सुन लीजिए। मैं गुरु नारद जी के वचनों को कभी नहीं छोड़ने वाली। इसके चलते मेरा घर उजड़े अथवा बसे, मैं रत्ती भर नहीं डरने वाली। कारण कि जिसको अपने गुरु के वचनों पर विश्वास नहीं, उसको सुख और सिद्धि स्वपन मे भी सुगम नहीं हो सकते-
‘नारद बचन न मैं परिहरऊँ।
बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ।।
गुर कें बचन प्रतीति न जेही।
सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।’
देवी पार्वती जी के वचनों को सुन कर मानों मुनियों की जीहवा सिली सी रह गई। कारण कि देवी पार्वती जी की भक्ति के समक्ष, समस्त मुनिवर स्वयं को बड़ा गौण मान रहे थे। देवी पार्वती ने सही ही तो कहा था, कि गुरु के वचनों पर ही अगर कोई शिष्य विश्वास नहीं करता, तो उसके जीवन में सुख व सिद्धियों का वास कैसे हो सकता है? देवी पार्वती जी ने तो यहाँ तक कह दिया, कि हे मुनीश्वरो! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर माथे रखकर सुनती। किंतु अब आपका कहा मानना संभव नहीं। क्योंकि अब तो मेरा यह जन्म, मैं शिवजी के लिए हार चुकी हुँ। ऐसे में वर के गुण दोषों को भला कौन विचार करे। हाँ, यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है, कि विवाह की बातचीत किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं है। तो क्यों न आप कहीं और जाकर अपनी बात कहें। कारण कि हमारी हठ, कोई इसी जन्म की हठ नहीं है, अपितु---
‘जन्म कोटि लगि रगर हमारी।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।।
तजउँ न नारद कर उपदेसू।
आपु कहहिं सत बार महेसू।।’
हे मुनीश्वरो! मेरी यह हठ करोड़ों जन्मों तक ऐसी ही रहेगी। या तो मैं शिवजी को ही वरुँगी, अन्यथा जीवन भर कुमारी रहुँगी। यहाँ तक कि स्वयं शिवजी भी मुझे सौ बार आकर कहें, तो भी मैं नारद जी के उपदेसों को नहीं त्यागुँगी।
देवी पार्वती जी के यह वचन सुन कर सप्तऋषि क्या प्रतिक्रिया करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती