By सुखी भारती | May 27, 2021
कितने आश्चर्य की बात है कि मानव को, उसके मन के अनुसार मिलता रहे तो भगवान से कहीं कोई शिक्वा नहीं, लेकिन अगर कहीं कोई प्रियजन उससे बिछुड़ गया, तो भगवान को कटघरे में खड़ा करने में हम क्षण भर भी नहीं लगाते। हम प्रभु पर तरह-तरह के लाँछन लगाने में किंचित भी परहेज़ नहीं करते। सज्जनों ईश्वर भी सोच रहे होंगे कि वाह! मैंने जीव का पग-पग पर, उसकी प्रत्येक आवश्यकता पर ध्यान दिया। उसके मांगे बिना ही, उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा। उसे कभी चूँ तक नहीं करने दी, फिर भी उसकी तृष्णा को पंख लगे ही रहे। जैसे ही मैं उसकी गर्भग्रह में स्थापना करता हूँ, तो जीव को अपने भरण पोषण की चिंता हो जाती है। क्योंकि इस अवस्था में भले ही उसकी माँ उसे जन्म देने की प्रक्रिया से गुजरने वाली है, लेकिन तब भी क्या वह उस अविकसित भ्रूण को पोषण देने में सक्षम है? सब जानते हैं कि वह उसे कुछ भी खिलाने में अस्मर्थ है। यहाँ मुझे चिंता हो जाती है, कि यह जीव तो जन्म से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। इसलिए मुझे गर्भग्रह में ही उसके लिए भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती है।
जीव की नाभि द्वार पर, भोजन नाल जोड़कर उसको भोजन मिलना प्राारम्भ हो जाता है। सोचा कि अब कोई समस्या नहीं होगी। सहजता से जन्म हो जायेगा, लेकिन जन्म होते ही भोजन की समस्या तो फिर से फ़न उठाये सामने थी। क्योंकि जन्म लेते ही भोजन नाल तो अब काटनी पड़ेगी। सांसारिक जीव की भाँति मैं भी सोच सकता था, कि चलो हमें क्या लेना-देना है, जीव मरता तो मरे। हमने जन्म दे दिया, यह कौन-सा कुछ कम है? लेकिन हमारा मन फिर भर आता है कि कुछ भी है, जीव आखि़र है तो मेरा ही अंश न! यह सोच मैं उसके लिए माँ के आँचल में दूध का प्रबंध कर देता हूँ। कहानी यहीं समाप्त नहीं होती, शिशु अब बड़ा भी तो होने लगा था। उसे रोटी व अन्य भोज्य पदार्थों का आकर्षण खींचने लगता है। स्वाभाविक है अब उसे दाँत चाहिए, तो मैं उसे दाँत दे देता हूं। भले ही वे दूध वाले कच्चे दाँत हैं। लेकिन उचित समय आने पर, मैं उसे पक्के दाँत भी दे देता हूं। ऐसे ही मेरी कृपायों की श्रृंखला तो अनंत है। इन्हें कागज़ की छाती पर कैसे समेटा जा सकता है? लेकिन कितना आश्चर्य है कि जीव मेरी ओर पलट कर तो कभी देखना ही नहीं चाहता। इसमें मेरा ऐसा किंचित भी भाव नहीं है कि मुझे अपनी सेवा अथवा पूजा करवाने की कोई व्यक्तिगत अभिलाषा व रूचि है।
वास्तव में यह मेरी बनाई हुई प्रकृति का सिद्धांत है। इसे कर्म सिद्धांत कहते हैं, कि जो प्राणी ईश्वर की सेवा आराधना में अपना सर्वस्व लुटाता है, उस पर वह ईश्वरीय सत्ता अपनी प्रकृति सहित संपूर्ण कृपा व दुलार लुटा देते हैं। जिस प्रकार गंगा किनारे जाकर भी, कोई कहे कि मैं तो गंगा जी के समक्ष झुकूँगा ही नहीं, तो क्या ऐसे में वह गंगा जल का अमृत ग्रहण कर पायेगा? नहीं न! अब इसमें वह व्यक्ति गंगा जी को दोष दे, कि गंगा जी ने ही मुझे जल प्रदान नहीं किया तो यह कहाँ की बुद्धिमानी है। गंगा मईया का प्यार तो उसके लिए बाहें फैला कर इंतजार में है। बशर्ते कि वह ज़रा झुके तो सही, ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी फल देते हैं। याँ यूं कहें कि मैं ही फल देता हूँ। यहाँ तारा भी सोच रही थी, कि बालि उसे छोड़कर चला गया है। निश्चित ही बालि उसे छोड़कर चला गया, लेकिन कौन-सा बालि? क्या वह बालि जो मृत अवस्था में उसके समक्ष पड़ा है? अथवा वह बालि जो इस शरीर में कभी था, लेकिन अब नहीं है। तारा मृत पड़े बालि को तो बहुत अच्छे से पहचान रही है, लेकिन उस शरीर को संचालित करने वाली उस परम् शक्ति से सर्वदा अनभिज्ञ है। जिसे समस्त जन ‘आत्मा’ शब्द से संबोधित करते हैं। उसे जानना ही परमात्मा को जानना है। ठीक वैसे जैसे सागर की किसी गुणवत्ता को मापना हो, तो सारे सागर को परख नली में डाल कर थोड़ी न नापते-तोलते हैं। सागर के कुछ अंश को ही जांचा परखा जाता है, परिणामतः पूरे सागर की जन्म कुण्डली हाथ में प्रकट हो जाती है। आत्मा को जानना ही ईश्वर को जानना है। संसार में प्रत्येक प्राणी जिन तीन तापों दैविक, दैहिक व भौतिक से संतप्त है, उसका मूल कारण भी ईश्वर की विस्मृति ही है-
‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।’
जिस भी हृदय में मेरी भक्ति स्थापित हो जाती है, वहाँ तीनों तापों के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। लेकिन यहाँ तारा तो अपनी मूल स्मृति ही भूले बैठी है। श्रीराम जी ने देखा कि अब तारा के संताप व अज्ञान को हरण करना ही चाहिए। और यह केवल बातों से संभव नहीं। इसके लिए तारा को वास्तविक ज्ञान से अवगत होना होगा। वास्तविक ज्ञान अर्थात् वह ज्ञान, जिसमें साधक बाहरमुखी से अंतर्मुखी होता है। अर्थात् बाहरी दो चक्षुयों से तो इस नश्वर संसार से जुड़ा रहता है, लेकिन जब उसे गुरु द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है तो जीव अंतर्मुखी होने की विद्या सीख लेता है। अपने भीतरी जगत में जीव अनेकों दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करता है। जिनके निरंतर अभ्यास से साधक जीव, पर्म तत्व में विलीन हो जाता है। इसी को मोक्ष भी कहा गया है। ईश्वरीय सिद्धांत के अनुसार यही जीव के जीवन का अंतिम लक्ष्य भी होता है। श्रीराम जी तारा के पास जाकर कहते हैं कि हे तारा! बालि कोई मात्र शरीर नहीं है। वह तो अजर है, अमर है, शाश्वत् आत्मा है। उसे न कोई जला सकता है न सुखा सकता है, शस्त्र से भी उसे नहीं काटा जा सकता, यहाँ तक कि अग्नि भी उसे जला नहीं सकती। लेकिन यह समस्त ज्ञान तभी समझ आ सकता है, जब तुम ज्ञान से अभिभूत हो। और आज मैं वही ज्ञान तुम्हें प्रदान करने जा रहा हूँ। तारा श्रीराम जी की यह दैवीय वाणी सुनकर, गहरे सागर की मानिंद शाँत-सा महसूस कर रही थी। बालि को तो श्रीराम जी का बाण आर-पार हुआ था, लेकिन तारा के लिए तो श्रीराम जी के शब्द ही बाण का कार्य कर रहे थे। यही वह पल था जब तारा प्रभु श्रीराम जी के दिव्य ज्ञान से अभिभूत हुई। सूर्य के प्रकाश से जैसे घोर रात्रि की कालिमा का समूल नाश हो जाता है। ठीक वैसे ही तारा के अंतस पर छाया अंधकार न जाने कहां तितर-बितर हो गया। प्रभु ने तारा पर छाई माया का हरण कर लिया। तारा का विचलित मन स्थिर हो गया और तारा उसी क्षण श्रीराम जी के श्रीचरणों में नत्मस्तक हो गई। क्योंकि-
‘तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।’
आगे श्रीराम क्या लीला करते हैं, जानेंगे अगले अंकों में---(क्रमशः)---जय श्रीराम!
-सुखी भारती