कामदेव ने देवऋर्षि नारद जी के श्रवण द्वारों में प्रशंसा की ऐसी चाश्नी घोली कि देवऋर्षि नारद जी का तो सुख चैन ही छिन गया। वे अपने हृदय में यही सोच-सोचकर अति उत्साह से पीड़ित होते जा रहे हैं, कि अरे! मैंने बातों ही बातों में इतना बड़ा पहाड़ गिरा दिया और आलम यह है कि मुझे इसका तनिक भी भान नहीं हुआ। जो कार्य सिद्ध करने में, भगवान शिव को कामदेव ने नाकों चने चबवा दिए, वह मैंने ऐसे कर दिखाया, मानों हाथी के गले से पुष्प माला गिरी हो, और हाथी को जैसे पता ही नहीं चले, ठीक वैसे ही मेरे साथ भी तो हुआ। ध्यान से देखा जाये, तो मैं तो भगवान शिव से भी बड़ा योगी सिद्ध हो चुका हूँ। कारण कि जिस कामदेव को परास्त करने के लिए, भगवान शिव को उसे मारना पड़ा, उस कामदेव को मैंने सहज ही नतमस्तक होने को विवश कर दिया। हे भगवान! मैंने मेरे इस महान कृत्य का साक्षी इस वन प्रदेश में एक भी नहीं। देवऋर्षि नारद जी के मन में, कामदेव द्वारा रोपित किए गए प्रशंसा रुपी बीज अंकुरित होने को भयंकर उत्सुकता में थे।
इधर कामदेव ने जब देवऋर्षि नारद जी की महान करनी की व्याख्या स्वर्ग लोक में की, तो अंतर देखिए, सभी देव सभासदों एवं देवराज इन्द्र ने, देवऋर्षि नारद जी की महिमा नहीं गाई, अपितु सभी ने श्रीहरि के समक्ष ही अपने सीस को निवाया-
‘मुनि सुसीलता आपनि करनी।
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।।
सुनि सब कें मन अचरजु आवा।
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।’
कितने आश्चर्य की बात है कि स्वर्ग लोक के समस्त भोगों में लिप्त देवताओं को तो इतनी समझ है, कि जीव के जीवन में जो भी श्रेष्ठ उपलब्धि हो, वह सब श्रीहरि के ही आशीर्वाद का परिणाम होता है। लेकिन महान तपस्वी व योगी, देवऋर्षि नारद जी को यह भान ही न रहा, और उन्हें प्राप्त समस्त उपलब्धियों का कारक, वे स्वयं को ही मान बैठे। इसी के फलस्वरूप वे आसन से उठ कर, इधर उधर टहल रहे हैं। एक स्थान पर बैठ भी नहीं पा रहे हैं। कामदेव को परास्त करने व स्वयं के महान योगी सिद्ध होने की उन्हें इतनी प्रसन्नता नहीं हो रही, जितना दुख उन्हें इस बात का हो रहा है, कि ‘हाय’ मेरा यह महान कार्य, सांसारिक जीवों में चर्चा का विषय ही नहीं बन पाया। लोगों को कैसे पता चलेगा कि मैं इतना बड़ा कार्य कर के बैठा हूँ। निश्चित ही इसके लिए मुझे स्वयं ही प्रयास करने होंगे। क्यों न मैं स्वयं की संसार में अपने इस अद्भुत पराक्रम की जानकारी दूँ। तो सबसे प्रथम मैं क्यों न भगवान शिव को जाकर अपनी इस कथा का रसपान करवाऊँ। तब देवऋर्षि नारद जी भगवान शंकर जी के पास हिमालय स्थल पर गए। जाकर प्रणाम किया और अहँकार के मद में डूबे भावों से ओत-प्रोत हो, वह समस्त कथा कह सुनाई, जो उन्होंने कामदेव के साथ किया था-
‘तब नारद गवने सिव पाहीं।
जिता काम अहमिति मन माहीं।।
मार चरति संकरहि सुनाए।
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।’
भगवान शंकर ने देवऋर्षि नारद जी की समस्त कथा सुनी भी, उन्हें सम्मान भी दिया। लेकिन साथ में यह भी सीख दे दी कि हे देवऋर्षि नारद जी! निःसंदेह आपकी कथा तो सचमुच मन को मोह लेने वाली है। लेकिन मेरी आपसे एक विनती है, कि जैसी कथा आपने मुझे सुनाई है, वैसी कथा कृपया, भूले से भी किसी अन्य को मत सुनाना, और श्रीहरि को तो बिल्कुल भी मत सुना बैठना। और इसके लिए मैं आपसे बार-बार विनती करता हूँ। इस विषय पर स्वाभाविक भी चर्चा चल निकली, तब भी आप इस कथा को मत सुनाना, और सारा घटित प्रसंग छुपा जाना-
‘बार बार बिनवउँ मुनि तोही।
जिमि यह कथा सुनायहु मोही।।
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ।
चलहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ।।’
देवऋर्षि नारद जी ने भले ही भगवान शंकर जी के उपदेश को श्रवण तो कर लिया था, लेकिन हृदय में एक कटुभाव यह आ गया, कि भगवान शंकर ने आखिर क्यों कहा, कि मैं यह कथा किसी और को न सुनाऊँ। अवश्य ही भगवान शंकर को, मेरा काम विजयी होना, क्रोध को मात देना एवं स्वर्ग के लालच को लात मारना अच्छा नहीं लगा। निश्चित ही वे मेरे कठिन व महान तप के समक्ष स्वयं को छोटा महसूस कर रहे हैं। और नहीं चाहते कि संसार में मेरा यश फैले। देख लो, संसार में तो ईर्ष्या व द्वेष की स्थिति सर्वत्र फैली ही है। साथ में देवों के देव महादेव भी ऐसी कलुषित भावना से परे नहीं हो सके हैं। अब भला क्या कहें, कि उनकी सहस्रों वर्षों की साधना व समाधि का क्या लाभ? यह बात संसार को ज्ञात होगी, तो भला तीनों लोकों में उनका क्या सम्मान रह जायेगा। उनके हृदय में राग-द्वेष की स्थिति तो देखिए, कि उनके मुख से एक बार भी यह नहीं निकला, कि वाह! देवऋर्षि नारद जी, आप ने तो बड़ा अद्भुत कार्य किया है। कहते भी कैसे, मन में मेरे प्रति जलन जो उत्पन्न हो उठी है।
देवऋर्षि नारद जी भगवान शिव जी की सीख का सम्मान करते हैं, अथवा अपने मन की करते हैं, जानेंगे अगले अंक में(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
-सुखी भारती