By अनन्या मिश्रा | Mar 07, 2023
परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के महान संत थे। वह लाहिड़ी महाशय की प्रेरणा से आध्यात्मिकता के मार्ग पर अग्रसर थे। कई लोगों का मानना था कि उनके पास जन्म से ही चमत्कारिक शक्तियां थीं। वह भारत के पहले ऐसे गुरु थे, जिन्होंने पश्चिमी देशों में अपना स्थाई निवास बनाया।
योग के जनक के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बनाने वाले परमहंस योगानंद का बचपन गोरखपुर की गलियों में बीता था। उन्होने पूरी दुनिया को योग क्रिया की महत्ता से परिचित कराया था। आपको बता दें कि क्रिया योग के प्रणेता परमहंस योगानंद ने 7 मार्च को महासमाधि में प्रवेश किया था। बताया जाता है कि उनके पार्थिव शरीर को फॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क में अस्थायी रूप से रखा गया था। लेकिन मृत्यु के 20 दिन बाद भी योगानंद की त्वचा का न तो रंग बदला और उनके चेहरे की आभा भी पहले जैसी ही थी। आज इस आर्टिकल के जरिए हम आपको उनके चमत्कारिक जीवन से जुड़ी कुछ बाते बताने जा रहे हैं।
जन्म और शिक्षा
परमहंस योगानंद का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर में हुआ था। बता दें कि वह एक हिंदू बंगाली कायस्थ परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके बचपन का नाम मुकुंद लाल घोष था। उनके पिता भगवती चरण घोष बंगाल-नागपुर रेलवे के उपाध्यक्ष थे। उनकी माता का नाम ज्ञानप्रभा देवी था। परमहंस योगानंद ने अपनी शुरूआती शिक्षा 1915 में स्कॉटिश चर्च कॉलेज से इंटर किया। उसके बाद उन्होंने सीरमपुर कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरा किया।
संन्यास की दीक्षा
इसी दौरान उन्होंने अपने गुरु से योग और मेडिटेशन की ट्रेनिंग ली। साल 1914 में गुरु युक्तेश्वर ने मुकुन्द को संन्यास में दीक्षा दी और उस दिन के बाद से वह मुकुन्द स्वामी योगानंद बन गए। बता दें कि स्वामी युत्तेश्वर गिरि परमहंस योगानंद के गुरु थे और उनके गुरु लाहिड़ी महाशय थे। गुरु लाहिड़ी महाशय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने आदि गुरु शकाराचार्य को क्रिया योग की शिक्षा दी थी। इसके अलावा उन्होंने संत कबीर को भी दीक्षा दी थी।
आध्यात्मिक कार्य
साल 1916 में योगानंद ने आध्यात्मिक कार्य की शुरुआत की। इस दौरान उन्होंने रांची में ब्रह्मचार्य विद्यालय की स्थापना की। योगानंद ने अपने गुरुओं की भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए योग की पवित्र शिक्षाओं को भारत से पश्चिमी देशों में ले जाने का कार्य शुरू किया। इसके लिए वह अमेरिका के बॉस्टन चले गए। योगदा सत्संग सोसाइटी के संस्थापक परमहंस योगानंद ने योग के संदेश को पश्चिमी देशों में पहली बार संगठित रूप पहुंचाने का काम किया। इसके बाद वह साल 1920 में पहली बार अमेरिका पहुंचे और वहां पर योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट गए। इस दौरान योगानंद की आयु महज 27 साल थी।
योगानंद पहले ऐसे भारतीय योग गुरु थे, जिन्होंने पश्चिमी देशों में स्थायी निवास बनाया। योगानंद ने 1935 में भारत आकर अपने गुरु के काम को आगे बढ़ाया। योगानंद के कार्य और चेतना को देखते हुए उनके गुरु ने उन्हें परमहंस की उपाधि से भी नवाजा। इसके बाद वह परमहंस योगानंद बनकर लोगों को योग क्रिया की शिक्षा देने लगे। इस दौरान उनकी महात्मा गांधी से मुलाकात हुई। योगानंद ने गांधीजी के संदेश को लोगों तक पहुंचाने का काम किया।
उपलब्धियां और आत्मकथा
योगानंद बहुत ही उदार और दान-शील प्रवृत्ति वाले व्यक्ति थे। वह महान विभूतियों में से एक थे। लोग उन्हें ईश्वर का स्वरूप मानकर उनकी पूजा करते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि योगानंद के पास जन्म से ही सिद्ध व चमत्कारिक शक्तियां थीं। जिनके माध्यम से वह लोगों के जीवन में खुशियां भर देते थे। उनके देश और विदेश में लाखों की संख्या में अनुयायी थे। योगानंद ने अपनी आत्मकथा योगी कथामृत में क्रिया योग प्रविधि की विशेषताओं के बारे में बताया है। इस किताब में उन्होंने देश के कई रहस्यदर्शी संतों के चमत्कार और रहस्यों के बारे में भी जिक्र किया है।
महासमाधि
योगानंद के बारे में कहा जाता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। अमेरिका में भारत के राजदूत बिनय रंजन सपत्नीक 7 मार्च 1952 की शाम को लॉस एंजिल्स के होटल में खाने पर थे। इस दौरान उनके साथ योगानंद परमहंस भी थे। 59 साल की आयु में योगानंद ने महासमाधि ले ली। उनके समाधि लेने के कई महीनों बाद भी उनके शरीर में कोई परिवर्तन नहीं आया। आज भी योगानंद का पार्थिव शरीर फॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क, लॉस एंजेलिस में अस्थायी रूप से रखा हुआ है।