कद्दावर नेता अपने भूतपूर्व होने वाली पार्टी के मुखिया के सामने बैठे थे। उन्होंने अपना दुखड़ा सुनाना जारी रखा– ‘‘देखिए मैं इस पार्टी का पुराना चावल हूँ। आप जानते भी हैं कि मेरे विचार पार्टी के लिए कितने काम आए हैं। इतना ही नहीं मेरे विचार काफी कीमती भी रहे हैं। चूँकि अब पार्टी का दबदबा कम हो गया है और आने वाले चुनावों में जीतने के आसार कम हैं, इसलिए पार्टी बदलने के बारे में विचार कर रहा हूँ। अतः आप से निवेदन है कि आप मेरे इन विचारों को अपने पास गिरवी रख लें। इसके बदल में मुझे केवल इतना आश्वासन दें कि जब भी पार्टी की स्थिति सुधर जाए तो मुझे पुनः जोड़ लें। जोड़ते समय केवल इस बात का ध्यान रखें कि बिना किसी आनाकानी के मुझे जोड़ लें। अब जो सौहार्द भाव तब भी उसी तरह भाव बना रहे। मेरे विचारों आपकी छाप है, पार्टी अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी इसमें हैं। किसी समय पार्टी में इनकी बड़ी कद्र थी। ये अभी भी अच्छी हालत में हैं, इसलिए मेरे लड़के को ये विचार देकर खुद दूसरी पार्टी में जाना चाहता हूँ। इससे लाभ यह होगा कि लड़का हार भी जाए तो मैं सत्ता वाली पार्टी में बना रहूँगा और यदि मैं हार गया तो बेटा सत्ता वाली पार्टी में बना रहेगा। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हम दोनों कहीं भी रहें हमारा लाभ बना रहेगा। विचार भी जीवंत रहेंगे।’’
‘‘ये विचार तो हमारे ही हैं, आपके कैसे हुए?’’ गंभीर हो चुके मुखिया ने पूछा।
‘‘ऐसा है कि पार्टी की स्थापना के समय में, मेरा मतलब है कि आरंभिक समय में मेरे बाऊजी बड़े इसी पार्टी के कार्यालय में बैठकर गप्प हाँका करते थे। उनकी गप्प ही आगे चलकर पार्टी की विचारधारा बनी। वहीं से वे विचार मुझ तक आए। इन्हें मैंने आगे चलकर लिख लिया। कभी बिखर न जाएँ इसके लिए अलमारी में संभालकर रख दिया। किंतु नई पार्टी में ज्वाइन करने में ये विचार अड़चन बन रहे हैं। अब यह मेरे किसी काम के नहीं हैं इसलिए......।’’ कद्दावर नेता ने अपनी सफाई दी।
‘‘ठीक है..., अब आप अपने विचार अपने बेटे को देकर उसे हमारी पार्टी में ज्वाइन कराना चाहते हैं। क्या इसे अपने बेटे को न देकर किसी और को देते तो क्या दिक्कत आती। आपके साथ तो कई सारे कार्यकर्ता हैं, उन्हें भी तो दे सकते थे?’’
‘‘चहता तो था कार्यकता को दे दूँ। बाद में ध्यान आया कि इतने साल बाद जब मैं बदल सकता हूँ तो वह कैसे नहीं बदलेगा। इसलिए राजनीति में विचारों का हस्तांतरण परिवारवाद के आधार पर होना चाहिए। इसीलिए मैंने अपने विचार बेटे को देने का निर्णय किया है।’’
‘‘और क्या चाहते हैं आप ?’’
‘‘देखिए ये बहुत कीमती विचार है। इन विचारों से देश में कई सरकारें बनी हैं और चलीं भी हैं। इस हिसाब से कीमत अमूल्य होना चाहिए लेकिन मैं मात्र अपने बेटे के लिए पार्टी का टिकट भल चाहूँगा।’’ कद्दावर नेता ने अपना प्रस्ताव दिया।
‘‘बेटे को टिकट!! ये सोचा भी कैसे आपने !?! अब आपके विचारों को यहाँ पूछता भी कौन है?’’
‘‘इसका अतीत देखिए मिस्टर पटेल, अगर आप इसके इतिहास पर गौर करेंगे तो आपको ये कीमत ज्यादा नहीं लगेगी।’’
‘‘देखिए मेरे पास सभी तरह के विचार पड़े हैं, जैसे गांधीवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी आदि-आदि। लेकिन आजकल इनको पूछने वाला भी नहीं आता है। सच कहूं तो मार्क्स की फटी कमीज या घिसे जूतों के ग्राहक मिल सकते हैं लेकिन विचारों के नहीं। सॉरी, .... मैं इसे नहीं रख पाउंगा।’’ मुखिया ने विवशता बताई।
‘‘देखिए आप सभी तरह के विचारों को खपाने में सक्षम हैं और इस मामले में आपकी ख्याति दूर दूर तक है। मैं सोचता हूं कि इसकी कद्र करने वाले आपके पास जरूर पहुंचेंगे। .... चलिए मेरे बेटे का न सही पत्नी को ही दे दीजिए।’’ कद्दावर नेता ने नया प्रस्ताव किया।
‘‘देखिए आपकी लोटा नीति आप हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहले भी आप जैसे एक सज्जन इसी तरह का कुछ कर गए थे, न उन्होंने हमारा फायदा किया और न ही हम उनका फायदा कर पाए। इसलिए इस मामले में आपकी सहायता नहीं कर पाऊँगा।’’
कद्दावर नेता इतना सा मुँह बनाए वहाँ से चलते बने। वहीं मुखिया इस बात की खुशी मना रहे थे वे बेवकूफ बनने से बच गए।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)