गढ़वाल के यह तीन गाँव माता सीता से जुड़े प्रसंगों के चलते पवित्र तीर्थ माने जाते हैं

By तरुण विजय | Dec 29, 2020

अज्ञेय ने अस्सी के दशक में जन जनक जानकी यात्रा कर सीता के प्रति अपने साहित्यिक श्रद्धा अर्पित की थी। उसके बाद तो रामजन्मभूमि यात्रा में केवल जय श्रीराम का नाद गूंजा। कणपुर में मेरे मित्र यतींद्रजीत सिंह के परिवार में इस पर हमसे चर्चा भी हुई क्योंकि परंपरागत रोप्प से उस समय असंख्य परिवारों में एक ही अभिवादन होता था- जय सियाराम। सिया सदैव राम से पहले आदृत हुईं।  राम-सिया नहीं बोलते। राधेश्याम बोलते हैं, श्याम राधे नहीं। उमामहेश्वर हैं, महेश के बाद उमा नहीं। लक्ष्मी नारायण हैं, नारायण के बाद लक्ष्मी नहीं। लेकिन रामजन्मभूमि तो केवल राम की जन्मभूमि है सीतामाता की नहीं। सीता बहुत कम समय अयोध्या में राजमहिषी के रूप में रहीं। जनकपुर में विवाह के बाद अयोध्या आईं तो वनवास में गयीं। वनवास में रावण ने अपहरण किया तो बारह वर्ष अशोक वाटिका में राम की अश्रुपूर्ण प्रतीक्षा में बीते। लौटीं तो अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। अयोध्या में कुछ समय ही बीता था तो धोबी के वचनों ने राम को मर्यादा के पालन हेतु इतना विवश, उद्वेलित किया कि पुनः सीता को प्रसवावस्था में वनवास जाना पड़ा और फिर वाल्मीकि आश्रम में बारह वर्ष अपने दोनों जुड़वां पुत्रों को पाल कर भूसमाधि....  

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सीता का सम्पूर्ण जीवन अग्नि मयी, वेदनामय, अश्रुमय कहेंगे या एक अत्यंत साहसी, दृढ़निश्चयी, फौलादी मन और चट्टानी अभिमान युक्त विद्रोही जिन्होंने पृथ्वी से जन्म लिया और पृथ्वी में ही समा  गयीं। यद्यपि अनेक विद्वान इस प्रसंग को प्रक्षिप्त मानते हैं और कहते हैं कि वाल्मीकि रामायण रावण वध के बाद ही सम्पूर्ण हो गई, शेष सब- उत्तरराम चरित प्रक्षिप्त है क्योंकि जो राम वनवास में अहिल्या के चरण स्पर्श करते हैं, शिला से उद्धार करते हैं, शबरी के झूठे बेर खाते हैं, सीता के कष्ट पर आंसू बहाते हैं, जिनके मित्र विभीषण रावण अंत के बाद मंदोदरी से विवाह करते हैं, ऐसे हर स्त्री के प्रति संवेदनशील राम सीता को वनवास नहीं दे सकते।


लेकिन लोकमानस यह मानता है कि सीता माता ने अपनी मां पृथ्वी की गोद में अंतिम शरण ली थी। यही लोक कथाओं, गीतों, चित्रावलियों में मिलता है और इसी क्रम को आगे बढ़ाया है गढ़वाल में ऐसे तीन गाँवों ने जो माता सीता के वनवास तथा पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं तथा आदि काल से यहाँ इस मान्यता को बल देने वाले मेले, गीत, मंदिर एवं गाँवों के नाम प्रचलित हैं।


यह तीनों गाँव पौड़ी गढ़वाल जिले में हैं। एक है सीतानस्यू (फलस्यारी), दूसरा है सीतासैंण और तीसरा है बिदाकोटि। यह तीनो स्थान सीता से जुड़े हैं- उत्तराखंड देवभूमि है, लेकिन किसी अन्य स्थान को इतनी गहराई तथा लोकमान्य कथाओं और आस्था के साथ सीता के साथ जुड़ा हुआ नहीं पाया जाता।


सितनस्यु गाँव में माता सीता का एक प्राचीन छोटा-सा मंदिर था जिसे अब बड़ा अकार दिया जा रहा है, वहीँ एक पहाड़ी टीले पर वाल्मीकि आश्रम या उनका मंदिर है और यहीं हर वर्ष कार्तिक (नवम्बर) में सीता मेला लगता है- जिसे मनसर का मेला भी कहते हैं। जहाँ सीता माता के पृथ्वी में समाये जाते समय शोक विह्वल नागरिकों दवरा उनको रोके जाने के प्रयास का नाटकीय चित्रण होता है कि  अंततः माता सीता के केश प्रजाजनों के हाथ में रह गए जो एक स्थानीय दूर्वा घास के रेशों के रूप में ग्रामीण मेले से सहेज कर घर और पूजा स्थल में रखते हैं।


इस स्थान के बारे में सन्दर्भ में प्रमुखता देते हुए स्थानीय विधायक मुकेश कोली (अनुसूचित जाति आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र पौड़ी से) ने सबसे पहले उभारा। वह मुख्यमंत्री को यहां लाये और श्री रावत ने इस स्थान पर आकर बड़ी योजनाएं स्वीकृत कीं और एक सीता तीर्थ पथ घोषित भी कर दिया। अद्भुत है कि इसे एकता के सूत्र में धर्म के धागे बांधते हैं। जहाँ भी हम जाएँ, कृष्ण, राम, सीता, महाभारत की कथाओं के प्रसंग गाँव-गाँव में मिलेंगे और यही भारत को परिभाषित करने वाले कथा-सूत्र बन जाते हैं। अरुणाचल में रुक्मिणी के साथ-साथ परशुराम कुंड भी है तो मणिपुर में भी है। धुर दक्षिण तक यही सूत्र मिलते हैं जो रामेश्वरम को बदरीनाथ से और केदारनाथ को पशुपतिनाथ से तो जनक पुर (नेपाल) को अयोध्या से जोड़ते हैं।


यहाँ से एक पहाड़ी पार गाँव है- सीतासैंण (सीता का मैदान) और बिदाकोटि। सीतासैंण में माता सीता रहीं और लव तथा कुश को पाला तथा बड़ा किया। सीतासैंण के सामने ही वाल्मीकि ऋषि का मंदिर या आश्रम सरीखा एक छोटा-सा स्थान है जहाँ पूजा होती है। दोनों ही अलकनंदा के इस इस पार और उस पार हैं। कहते हैं राम ने लक्ष्मण से अश्रुपूरित नयनों से कहा था कि वे सीता को गंगा पार छोड़ आएं तो सीतासैंण के सामने अलकनंदा (गंगा) के तट पर बिदाकोटि वह स्थान है- जहाँ लक्ष्मण ने माता सीता को विदा दी।

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इतने सुन्दर हैं ये स्थान कि नयन अपलक निहारते ही रहना चाहते हैं। अनंत स्वच्छ नीला आकाश, गगन छूते पर्वत, निकट अठखेलियां करती बहती अलकनंदा (गंगा), पर्वतों के आँचल में शुभ्र चन्दन के  तिलक समान शोभित सीता के मंदिर और वातावरण में एकाकीपन-निर्जनता, अलकनंदा के प्रवाह के मंद मंद स्वरों के अलावा कुछ भी और न सुनायी देता हो- सिर्फ और सिर्फ नाम, राम जी का नाम, ॐ नमः शिवाय का उच्चार....


माता सीता यहाँ विराजमान रहीं होंगी इसमें किसे संदेह हो सकता है ?


गढ़वाल के अनेकानेक तीर्थों में एक और तीर्थ उजागर हुआ है- सीता भू समाधि तीर्थ।


सीता सम्पूर्ण पूर्वी एशिया में आदृत, पूजित हैं। कम्बोडिया, लाओस, विएतनाम, थाईलैंड में सीता नाम रखते हैं। संस्थानों और शासकीय स्थानों के नाम अयोध्या और सीता पर हैं। सीता तीर्थ पथ यदि उत्तराखंड में लोकप्रिय होता है तो प्रधानमंत्री मोदी की एक्ट ईस्ट नीति में सीता से सम्पूर्ण पूर्वी एशिया हिमालय उत्तराखंड से जुड़ता है, केवल पूर्वोत्तर भारत से नहीं।


-तरुण विजय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व राज्यसभा सांसद हैं।)

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