Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-24

By आरएन तिवारी | Aug 30, 2024

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, विदुर जी ने धृतराष्ट्र को लोक परलोक की कल्याणकारी नीतियो के बारे में बताया है। इन सभी नीतियों को पढ़कर आज के समय में भी कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणों को निखारा जा सकता है। 

 

नीति धर्म का उपदेश देते हुए विदुरजी महाराज धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं कि --- 


न तथेच्छन्त्यकल्याणाः परेषां वेदितुं गुणान् ।

यथैषां ज्ञातुमिच्छन्ति नैर्गुण्यं पापचेतसः ॥ 


जिनका मन पाप में लगा रहता है, वे लोग दूसरों के गुणों को जानने की इच्छा नहीं रखते, बल्कि उनके अवगुणों को जानने की कोशिश में लगे रहते  हैं ॥ 

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-23

अर्थसिद्धिं परामिच्छन्धर्ममेवादितश् चरेत् ।

न हि धर्मादपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम् ॥ 


जो अर्थ की पूर्ण सिद्धि चाहता है उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये । जैसे स्वर्ग से अमृत दूर नही होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता ॥ 


यो धर्ममर्थं कामं च यथाकालं निषेवते ।

धर्मार्थकामसंयोगं योऽमुत्रेह च विन्दति ॥ 


जो समयानुसार धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, वह इस लोक और परलोक में भी धर्म, अर्थ और काम को प्राप्त करता है ॥


संनियच्छति यो वेगमुत्थितं क्रोधहर्षयोः ।

स श्रियो भाजनं राजन्यश्चापत्सु न मुह्यति ॥ 


हे राजन् ! जो क्रोध और हर्ष के उठे हुए वेग को रोक लेता है और आपत्ति में भी धैर्य को खोता नहीं वही राजलक्ष्मी का अधिकारी होता है ॥ 


महते योऽपकाराय नरस्य प्रभवेन्नरः ।

तेन वैरं समासज्य दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत् ॥ 


जो मनुष्य हमारा बहुत बड़ा अपकार कर सकता है, उस व्यक्ति के साथ बैर ठानकर इस विश्वास पर निश्चिन्त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूँ वह मेरा कुछ नहीं कर सकता अवसर पाकर वह हमारा अनिष्ट जरूर करेगा इसलिए सावधानी बरतने की जरूरत है ॥ 


स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्याये शत्रुसेविषु ।

भोगे चायुषि विश्वासं कः प्राज्ञः कर्तुमर्हति ॥ 


ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो स्त्री, राजा, साँप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति, शत्रु, भोग और आयुष्य पर पूर्ण विश्वास कर सकता है ? अर्थात इन पर पूर्ण रूप से विश्वास नहीं करना चाहिए। 


सर्पश्चाग्निश्च सिंहश्च कुलपुत्रश्च भारत ।

नावज्ञेया मनुष्येण सर्वे ते ह्यतितेजसः ॥ 


हे भारत ! मनुष्य को चाहिये कि वह सर्प, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पन्न किसी भी व्यक्तिव का अनादर न करे, क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं।। 


अग्निस्तेजो महल्लोके गूढस्तिष्ठति दारुषु ।

न चोपयुङ्क्ते तद्दारु यावन्नो दीप्यते परैः ॥ 


इस संसार में अग्नि से अधिक तेज किसी में नहीं है। लेकिन वह काठ में तभी तक छिपी रहती है;  जब तक कोई उसे प्रज्वलित न करे । 


स एव खलु दारुभ्यो यदा निर्मथ्य दीप्यते ।

तदा तच्च वनं चान्यन्निर्दहत्याशु तेजसा ॥ 


वही अग्नि यदि काष्ठ से मथकर उद्दीप्त कर दी जाती है, तो वह अपने तेज से उस काष्ठ को, जङ्गल को तथा दूसरी वस्तुओं को भी जल्दी ही जला कर भस्म कर देती है। 


एवमेव कुले जाताः पावकोपम तेजसः ।

क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव शेरते ॥ 


उसी प्रकार आपके कुल में उत्पन्न वे अग्रि के समान तेजस्वी पाण्डव विकार शून्य होकर काष्ठ में छिपी अग्रि की तरह शान्त भाव से स्थित हैं॥ 


लता धर्मा त्वं सपुत्रः शालाः पाण्डुसुता मताः ।

न लता वर्धते जातु महाद्रुममनाश्रिता ॥ 


अपने पुत्रो सहित आप लता के समान हैं और पाण्डव महान् शाल वृक्ष के  सदृश हैं, और ध्यान रखिए महान् वृक्ष का आश्रय लिये बिना लता कभी बढ़ नहीं सकती ॥ 


वनं राजंस्त्वं सपुत्रोऽम्बिकेय सिंहान्वने पाण्डवांस्तात विद्धि ।

सिंहैर्विहीनं हि वनं विनश्येत् सिंहा विनश्येयुरृते वनेन ॥ 


हे अम्बिकानन्दन ! आप के पुत्र एक वन के समान हैं और पाण्डवों को उस वन के भीतर रहने वाले सिंह समझिये। हे तात ! सिंह विहीन हो जाने पर वन नष्ट हो जाता है और वन के बिना सिंह भी नष्ट हो जाता है॥ 


पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनीयापः परिनिर्णिज्य पादौ ।

सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्म संस्थं ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः ॥ 


धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई साधु पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे तो पहले आसन देकर, जल लाकर उसके चरण पखारे, पिर उसकी कुशलता  पूछकर अपनी स्थिति बतावे, तदनन्तर आवश्यकता समझकर अन्न भोजन का प्रबंध करे  ॥  


अरोषणो यः समलोष्ट काञ्चनः प्रहीण शोको गतसन्धि विग्रहः ।

निन्दा प्रशंसोपरतः प्रियाप्रिये चरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः ॥ 


जो क्रोध न करने वाला ढेला-पत्थर और सुवर्ण को एक सा समझने वाला, शोक हीन, सन्धि वि्रह से रहित, निन्दा-प्रशसा से शून्य, प्रिय अप्रिय का त्याग करने वाला तथा उदासीन है, वही भिक्षुक (संन्यासी) है॥ 

 

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् ।

विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ ९ ॥

 

जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं, किन्तु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करे । विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है, वह मूल का भी उच्छेद कर डालता है


शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।


- आरएन तिवारी

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