Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-15

By आरएन तिवारी | Jun 21, 2024

मित्रो ! आजकल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 


प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं–


विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं--- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-14

विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की। 

 

धृतराष्ट्र उवाच ।


ब्रूहि भूयो महाबुद्धे धर्मार्थसहितं वचः ।

शृण्वतो नास्ति मे तृप्तिर्विचित्राणीह भाषसे ॥ 


महाराज धृतराष्ट्र ने कहा- हे महाबुद्धे, विदुर ! तुम पुनः धर्म और अर्थ से युक्त बातें कहो, इन्हें सुनकर मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ। इस बिषय में तुम बड़ी ही अद्भुत सीख दे रहे हो ॥ 


विदुर उवाच ।


सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम् ।

उभे एते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते ॥

 

विदुर जी ने कहा- हे महाराज ! सभी तीर्थों में स्नान करने का जो पुण्य प्राप्त होत है वही पुण्य सभी प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव करने से प्राप्त होता है ये दोनों ही एक समान हैं। 


आर्जवं प्रतिपद्यस्व पुत्रेषु सततं विभो ।

इह कीर्तिं परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्स्यसि ॥

 

बिभो ! आप अपने पुत्र कौरव-पाण्डव दोनों के साथ समान रूप से कोमलता का बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से इस लोक में महान् सुयश प्राप्त करके मरने के पश्चात् आप स्वर्ग लोक में जायँगे ॥ 


यावत्कीर्तिर्मनुष्यस्य पुण्या लोकेषु गीयते ।

तावत्स पुरुषव्याघ्र स्वर्गलोके महीयते ॥ 


हे पुरुषश्रेष्ठ ! इस लोक में जब मनुष्य की पावन कीर्ति का गान किया जाता है, तभी वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता। स्वर्ग की प्राप्ति हमारे कर्मों पर आधारित होती है । 


अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

विरोचनस्य संवादं केशिन्यर्थे सुधन्वना ॥ 


इस विषय में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें केशिनी के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवादका वर्णन है। आइए, मैं आपको वह कथा सुनाता हूँ।  


स्वयंवरे स्थिता कन्या केशिनी नाम नामतः ।

रूपेणाप्रतिमा राजन् विशिष्टपतिकाम्यया ॥ 


राजन् ! एक समयकी बात है, केशिनी नाम की एक अनुपम सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्ठ पति को वरण करने की इच्छासे स्वयंवर-सभामें उपस्थित हुई ॥ 


विरोचनोsथ दैतेयस्तदा तत्राजगाम ह ।

प्राप्तुमिच्छंस्ततस्तत्र दैत्ये्ं प्राह केशिनी ॥

 

उसी समय दैत्य कुमार विरोचन उसे प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आया । तब केशिनी ने उससे कहा ॥


केशिन्युवाच ।


किं ब्राह्मणाः स्विच्छ्रेयांसो दितिजाः स्विद्विरोचन ।

अथ केन स्म पर्यङ्कं सुधन्वा नाधिरोहति ॥ 


केशिनी बोली- हे विरोचन ! ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं या दैत्य? यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं तो सुधन्वा ब्राह्मण ही मेरी शय्यापर क्यों न बैठे ? अर्थात् मैं  सुधन्वा से विवाह क्यों न करूँ? ॥ 


विरोचन उवाच ।

 

प्राजापत्या हि वै श्रेष्ठा वयं केशिनि सत्तमाः ।

अस्माकं खल्विमे लोकाः के देवाः के द्विजातयः ॥ 


केशिनी की बात सुनकर विरोचन ने कहा- हम प्रजापति की श्रेष्ठ संतानें हैं, अतः सबसे उत्तम हैं। यह सारा संसार हम लोगों का ही है। हमारे सामने देवता क्या हैं ? और ब्राह्मण क्या हैं ? 


केशिन्युवाच ।


इहैवास्स्व प्रतीक्षाव उपस्थाने विरोचन ।

सुधन्वा प्रातरागन्ता पश्येयं वां समागतौ ॥ 


केशिनी बोली-विरोचन ! इसी जगह हम दोनों प्रतीक्षा करें, कल प्रातःकाल सुधन्वा यहाँ आयेगा फिर मैं तुम दोनों को एकत्र उपस्थित देखना चाहूंगी । 


विरोचन उवाच ।


तथा भद्रे करिष्यामि यथा त्वं भीरु भाषसे ।

सुधन्वानं च मां चैव प्रातर्द्रष्टासि सङ्गतौ ॥ 


विरोचन बोला हे कल्याणि ! तुम जैसा कहती हो, वही करूंगा प्रातःकाल तुम मुझे और सुधन्त्रा को एक साथ उपस्थित देखोगी॥ 


विदुर उवाच 


अतीतायांच शर्वर्यामुदिते सूर्यमण्डले ।

अथाजगाम ते देशं सुधन्वा राजसत्तम ।

विरोचनो यत्र विभो केशिन्या सहितः स्थितः ॥ 


विदुर जी कहते हैं- राजाओं में श्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! इसके बाद जब रात बीती और सूर्यमण्डल का उदय हुआ, उस समय सुधन्वा उस स्थानपर आया, जहाँ विरोचन केशिनी के साथ उपस्थित था । 


सुधन्वा च समागच्छत् प्रहलादि केशिनीं तथा।

समागतं द्विजं दृष्ट्वा केशिनी भरतर्षभ  ।

प्रत्युत्थायासनं तस्मै पाद्यमव्य ददौ पुनः ॥ 


हे भरतश्रेष्ठ ! सुधन्वा प्रह्लाद कुमार विरोचन और केशिनी के पास आया ।। ब्राह्मण को आया देख केशिनी उठ खड़ी हुई और उसने उसे आसन, पाद्य और अर्ध्य निवेदन किया ॥ 


विदुर उवाच ।


अन्वालभे हिरण्मयं प्राह्रादेऽहं तवासनम् ।

एकत्वमुपसम्पन्नो न त्वासेयं त्वया सह ॥ 


सुधन्वा बोला- प्रहलाद नन्दन ! मैं तुम्हारे इस सुवर्णमय सुन्दर सिंहासन को केवल छू लेता हूँ, तुम्हारे साथ इसपर बैठ नहीं सकता; क्योंकि ऐसा होने से हम दोनों एक समान हो जायेंगे ॥ 


विरोचन उवाच ।


अन्वाहरन्तु फलकं कूर्चं वाप्यथ वा बृसीम् ।

सुधन्वन्न त्वमर्होऽसि मया सह समासनम् ॥ 


विरोचन ने कहा- सुधन्वन् ! तुम ठीक कहते हो तुम्हारे लिये तो पीढ़ा चटाई या कुश का आसन ही उचित है; तुम मेरे साथ बराबरके आसन पर बैठने योग्य हो ही नहीं ॥ 


सुधन्वोवाच पितापुत्रौ सहासीतां छ्वौ विप्रौ क्षत्रियावपि ।

वृद्धौं वैश्यौ च शूद्रौ च न त्वन्यावितरेतरम् ॥ 


सुधन्वा ने कहा- पिता और पुत्र एक साथ एक आसन पर बैठ सकते हैं; दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध, दो वैश्य और दो शुद्र भी एक साथ बैठ सकते हैं, किन्तु दूसरे विजातीय दो व्यक्ति परस्पर एक साथ नहीं बैठ सकते ॥ 


पितापि ते समासीनमुपासीतैव मामधः ।

बालः सुखैधितो गेहे न त्वं किं च न बुध्यसे ॥ 


तुम्हारे पिता प्रह्लाद नीचे बैठकर ही मेरी सेवा किया करते हैं । तुम अभी बालक हो, घरमें सुख से पले हो; अतः तुम्हें इन बातों का कुछ भी ज्ञान नहीं है ॥ 


शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।


- आरएन तिवारी

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