By विजयेन्दर शर्मा | Sep 09, 2021
पालमपुर। यह दिल मांगे मोर... करगिल युद्ध के दौरान भरतीय जनमानस के बीच सबसे लोकप्रिय हुई यह पंक्तियां किसी ओर की नहीं, बल्कि करगिल के शेर कैप्टन विक्रम बत्रा की थीं। कारगिल युद्ध के हीरो, मां भारती के सपूत, परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा की जयंती के अवसर पर उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि देते हुये देशवासी आज उन्हें स्मरण कर रहे हैं।। कारगिल युद्ध का अध्याय विक्रम बत्रा जी जैसे रणबांकुरे के बिना अधूरा है। भारत के इतिहास में उनका नाम हमेशा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
किस्से कहानियों में सिमटा करगिल के इस वीर योद्धा का जीवन काल आज भी उस समय ताजा हो जाता है, जब आप हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के पालमपुर कस्बे से गुजरें। पालमपुर के सुभाष चौक से बंदला की ओर जाने वाली सडक़ के किनारे चाय बागानों के बीच घुगर गांव में सुंदर बंदला पहाडिय़ों के आंचल में विक्रम बत्तरा भवन है। जिसे पहले लव कुश का नाम दिया गया था।
जीएल बत्तरा व कांता बत्तरा के घर 9 सितंबर, 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरितमानस में गहरी आस्था थी, तो उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढक़र भाग लेने का भी जज़्बा था। जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी।
इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। सेना में चयन विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया।
दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। इससे पहले 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चि-ी में लिखा -प्रिय कुशु, मां और पिताजी का ख्याल रखना यहाँ कुछ भी हो सकता है।
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध अदम्य साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो भारतीय मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
वीरगति को प्राप्त होने से पहले कैप्टन बत्रा ने बताया था कि कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल जोशी जो रेडियो सेट पर थे,के नेतृत्व में उनकी ब्रेवो कंपनी ने टारगेट को फतेह करने के लिये प्रयास किया तो , मेरे साथी चाहते थे कि दुशमनों के और बंकर नेस्तनाबूद किये जायें। लिहाजा वहीं से मैंने कहा कि कि दिल मांगे मोर। फिर उसी जनून के साथ हमनें चोटी फतेह कर ली।
कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था । अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और माँ भारती का यह लाडला जय माता दी कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ।
अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया। जी एल बत्तरा बताते हैं कि जिस उम्र में युवाओं को अच्छे बुरे की पहचान भी नहीं होती उस उम्र में यानी 18 साल की उम्र में विक्रम ने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। उन्हें अपने बेटे पर गर्व है।
पालमपुर में उनके परिवार को शहादत के बाद पेटरोल पंप मिला है। वहीं प्रदेश सरकार ने उनकी याद में परिध्रि गृह के पास प्रतिमा स्थापित की है। और पालमपुर के डिग्री कालेज को भी शहीद कैप्टन विक्रम बत्तरा कालेज नाम दिया गया है। वहीं पालमपुर में शहीद बत्तरा मार्ग भी है।
शहीद विक्रम बत्तरा के पिता जीएल बत्तरा कहते हैं कि सरकार को अभी परमवीर चक्र विजेताओं के लिये बहुत कुछ किया जाना बाकी है। उन्होंने अफसोस जताया कि आज खेलों में छोटे मैडल तक लेने वालों को सरकार सर आंखों पर बिठाती है। खिलाडिय़ों को पूरा महत्व दिया जाता है। लेकिन आज देश के लिये कुर्बानी देने वाले जवानों खासकर परम वीर चक्र विजेताओं लिये सरकार कोई खास नहीं कर पाई है। हमें पैसा नहीं सम्मान चाहिये। लिहाजा अगर ऐसा ही होता रहा तो यह महज अखबारी सुर्ख्यिं में सिमट कर रह जायेगा।