बानवे वर्ष में डॉ मनमोहन सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका संपुर्ण मौन व्यक्तित्व ऐसा रहा जिससे देश भी कई मर्तबा अधीर होकर उठ खड़ा हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह को न सिर्फ भारत ने, बल्कि विश्व विरादरी ने अपना सगा अर्थ-व्यवस्था का विलक्षण कोहिनूर समान वास्तुकार खो दिया। पूरे संसार की आंखे उनके निधन से नम हैं। दो दफे प्रधानमंत्री के रूप में डॉक्टर साहब ने 5 ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए जिन्हें मौजूदा क्या, आने वाली पीढ़ियां भी स्मरण करती रहेंगी। 2005 में ‘सूचना का अधिकार’ और इसी साल ‘मनरेगा कानून’ को लागू करना। फिर सन-2009 में ‘शिक्षा का अधिकार कानून’। वहीं, 2013 में दो बड़े फैसले ‘राष्टृय खाद् सुरक्षा कानून’ और ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ पर अंतिम निर्णय लेने को प्रत्येक भारतवासी सदैव याद करेंगे।
डॉ. सिंह को अर्थव्यवस्था का सूत्रधार कहा गया। आर्थिक उदारीकरण और आर्थिक सर्वेक्षणों में सुधार के लिए उनकी एकाग्रता के सभी काबिल रहे। यूपीए सरकार के दूसरे टर्म में जब प्रधानमंत्री बनाने की बात हुई, तो प्रणब मुखर्जी का नाम सबसे तेज दौड़ा। पर, प्रणब मुखर्जी ने खुद आगे बढ़कर सोनिया गांधी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से गुहार लगाई कि देश की अर्थव्यवस्था के लिहाज से आगे बढ़ रही है, उसे डॉ. मनमोहन सिंह से बेहतर दूसरा कोई गति नहीं दे सकता। इसलिए वो गति निरंतर रहे, दोबारा से डॉक्टर साहब को ही कमान सौंपी जाए। उनके कहने के बाद ही यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने दोबारा डॉ. सिंह के नाम पर मुहर लगवाई। सन-1991 में वित्तमंत्री रहते उन्होंने जब देश की गड़बड़ अर्थव्यवस्था को संभाला था। तब स्वंय अटल बिहारी बाजपेई ने उनकी तारीफ की थी। अपने वित्तमंत्री कार्यकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने भी डॉ. सिंह के फैसलों को सराहा था। दरअसल वो ऐसा दौर था जब दशकों से बंद पड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवारों को खोलने की शुरूआत मनमोहन सिंह द्वारा की गई थी।
वित्तमंत्री रहते लाइसेंस राज को खत्म करने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। उन्होंने सबसे पहले विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने का काम किया और भारत के भीतर विदेशी कारोबार को अपने अर्थ स्टाइल से आकर्षित करवाया। तभी से भारत में बाहरी कंपनियों के आगमन की शुरुआत हुई। ये काम उन्होंने बिना ढोल बजाए किया। न प्रचार किया और शोर-शराबा। जबकि, उनके चुप रहने और शांत भाव की ‘मौनता’ पर विभिन्न सियासी दलों ने हमेशा असहनीय और अखरने वाली तल्ख टिप्पणियां की। पर, उन्होंने कभी किसी को पलट कर कोई कड़वा जवाब नहीं दिया। उन्होंने व्यक्तिगत रिश्तों के मापदंणों को सियासत से सदैव उपर रखा। हालांकि, बीते एकाध दशक से उन पर ज्यादा ही कटाक्ष होने लगे, तो उनके भीतर का शांत शायर जाग उठा। तब, उन्होंने अपने सियासी विरोधियों को अपने दो शेर के जरिए जवाब दिया। उन शेर को लोग आज उनके न रहने पर खूब गुनगुना और याद कर रहे हैं। उनका पहला शेर था ‘माना तेरे दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख, मेरा इंतज़ार देख’। और दूसरा शेर ‘हजारों जवाबों से अच्छी मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी’, था। ये दोनों शेर हमेशा चर्चाओं में रहे।
गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था के अलावा डॉक्टर मनमोहन सिंह को उच्च शिक्षा में अमूलचूक परिवर्तन और बड़ा सुधारक भी माना गया। एक मर्तबा खुद उन्होंने स्वीकारा था कि विश्व के उच्च शिक्षा संस्थान में पढ़ने के बाद ही उन्होंने देश में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां को संभालने का अवसर मिला। इसलिए वह उच्च शिक्षा के सदैव पक्षधर रहे। प्रत्येक निर्णयों में उनका धैर्य, संयम, निस्पृहता और उदारता देखने लायक होती थी। प्रेशर में आकर या जल्दबाजी में उन्होंने कभी कोई निर्णय नहीं लिया। 2005 में मनरेगा का जब फाइनल डृफ तैयार होकर उनके समक्ष प्रस्तुत किया गया, तो उसमें उन्होंने बदलाव करने को कहा, जिसको लेकर उन्होंने सोनिया गांधी की नाराजगी भी सही। लेकिन बाद में हुआ वही जो मनमोहन सिंह ने चाहा। मनमोहन सिंह सरकार में अरुणा राय उनकी सलाहकार थी, जिन्होंने ही मनरेगा में महत्वपूर्ण बदलाव के सुझाव दिए थे, उनकी राय पर ही डॉक्टर साहब ने रोजगार गारंटी अधिनियम कानून लागू किया गया। उसमें अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व निसंदेह करिश्माई था। करिश्माई इसलिए, क्योंकि अस्सी के दशक में जिन्होंने भी विभिन्न भारतीय नोटों में रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में उनका नाम और हस्ताक्षर देखें होंगे। उन्होंने सपनों में भी नहीं सोचा होगा कि ये व्यक्ति कभी प्रधानमंत्री का औहदा भी संभालेगा। एक दफे उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। उसके बाद वह बिना कोई चुनाव लड़े देश के शीर्ष पदों पर पहुंचे। डॉ. मनमोहन सिंह रिकॉर्ड 33 वर्ष तक राज्यसभा में सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निभाते रहे। वर्ष-1991 में वह पहली बार राज्यसभा पहुंचे। उसके 1995, 2001, 2007 और 2013 में फिर से राज्यसभा के लिए चुने गए। सन 1998 से लेकर 2004 के बीच वह राज्यसभा में नेता विपक्ष का औहदा भी संभाला, केंद्र में एनडीए की हुकुमत हुआ करती थी।
इसके अलावा वह वित्त सचिव, मुख्य आर्थिक सलाहकार, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, प्रधानमंत्री के सलाहकार, यूजीसी अध्यक्ष और आरबीआई गवर्नर भी रहे। कुलमिलाकर उन्होंने देश के तकरीबन बड़े पदों पर रहकर उनकी सौभाएं बढ़ाई। सभी विधाओं में उनकी भूकिमाएं काबिलेतारीफ रही। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के तीनों संस्करणों में उन्होंने अपना बहुमूल्य योगदान दिया, जिसे देश कभी नहीं भूलेगा। डॉ. मनमोहन सिंह देश के बेशकीमती हीरे ही नहीं, बल्कि धरोहर जैसे थे। उनके योगदान के किस्से आने वाली पीढ़ियां तब तक सुनती, पढ़ती रहेंगी। जब तक ये धरा रहेगी। अलविदा, डॉक्टर साहब, मेरी ओर से आपको भावभीनी श्रद्धांजलि।
- डॉ. रमेश ठाकुर
सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCCD), भारत सरकार!