नरम से गरम हुए सुशासन बाबू, क्यों बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं...

By अभिनय आकाश | Jan 16, 2021

32 दांतो के बीच में जीभ कैसे रहती होगी। ये बहुत पुरानी कहावत है। जब इंसान बेबसी में काम करता है तो ऐसी कई मिसालें दी जाती है। बिहार के मुख्यमंत्री, पीएम मैटेरियल वाले मुख्यमंत्री, सुशासन बाबू के उपनाम वाले मुख्यमंत्री, बिहार में बहार हो का नारा देने वाली पार्टी के मुख्यमंत्री। नाम- नीतीश कुमार। इन दिनों पहचान एंग्री मैन के रूप में हो रही है। सुशासन बाबू को शायद ही इससे पहले इतने गुस्से में देखा गया हो। लेकिन बीते कुछ महीने से चाहे वो चुनावी रैलियों की बात हो या पत्रकारों के सवाल नीतीश बात-बात पर भड़क जाते हैं। कमियों को दूर करने की बजाए सवाल पूछने वालों को ही पार्टी विशेष का समर्थक करार दे देते हैं। डीजीपी को सबके सामने फोन पर फटकार लगाते हैं। विधानसभा सत्र के दौरान विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव पर फूट पड़ते हैं। इस बार छोटे भाई की भूमिका में आए नीतीश के तेवर पिछले कुछ वक्त से ही बदले-बदले नजर आ रहे हैं।

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अक्सर भाषण देते हुए अपनी बात शांति से रखने वाले नीतीश कुमार की सबसे बड़ी राजनीतिक खासियत यही मानी जाती थी कि वो बेहद ही नपा-तुला बोलते थे। कड़वी से कड़वी बात भी मुस्कुराते हुए इस अंदाज में बोल जाते कि विरोधी भी यह समझ नहीं पाते कि आखिर नीतीश पर निशाना साधे तो साधे कैसे? याद कीजिए 2015 का चुनाव जब एनडीए से बाहर होकर चुनाव मैदान में उतरी जेडीयू के सामने भव्य आभा कौशल वाले नरेंद्र मोदी खड़े थे। नरेंद्र मोदी उस चुनाव में नीतीश कुमार पर हमलावर रहते। लेकिन पीएम की रैली के बाद नीतीश बेहद ही सौम्यता के साथ एक घंटे की प्रेस कॉन्फ्रेंस कर तर्कों और तथ्यों के साथ उनकी कही हर बात को काटते थे। लेकिन पिछले कुछ समय से लोग एक अलग ही नीतीश कुमार को देख रहे हैं। जो बात-बात पर अपना आपा खो रहे हैं। कमियों को दूर करने की बजाये सवाल पूछने वालों पर ही सवाल उठाने लग रहे हैं। सुशासन बाबू को इतने ही गुस्से में तब देखा गया था जब वो रैलियां कर रहे थे। उस वक्त का तनाव तो समझ में आ रहा था कि डर था कि चुनाव में जीत होगी या नहीं। लेकिन अब सत्ता मिल गई। फिर आखिर क्यों नीतीश बात-बात पर इतना गुस्सा हो रहे हैं। ये सवाल बिहार से लेकर दिल्ली तक पूछा जा रहा है। 

कभी उन्हें इसकी आदत नहीं रही। साल 2005 से वो मुख्यमंत्री रहें वो और जो भी फैसले किए अपनी मर्जी से अपने दम पर किया। चाहे वो सीएम पद छोड़ जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाना हो या बीजेपी के लिए डिनर कैंसिल करना। लालू का साथ छोड़ बीजेपी के साथ आ जाना जो भी फैसला करते पूरे दमखम के साथ करते।

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नीतीश सुलझे हुए मुख्यमंत्री माने जाते रहे हैं और गुड गवर्नेंस के मामले में उनकी सानी नहीं रही है तभी तो एक वक्त ऐसा भी था जब प्रधानमंत्री मोदी ने एनडीए में नीतीश के नहीं होने के बावजूद उनके गुड गवर्नेंस की तारीफ की थी। जिस ला एंड ऑर्डर को लेकर घर के अंदर और बाहर नीतीश कुमार पर सवाल उठ रहे हैं। चाहे वो एनडीए हो या विपक्ष कानून व्यवस्था को लेकर उनपर सवाल उठ रहे हैं

बिहार में विधानसभा चुनाव हुए, नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव लड़ा और जनता दल यूनाइटेड के कम सीटों पर जीत हासिल करने के बावजूद भाजपा ने मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोंकने की बजाय नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही सरकार बनाई। । आज नीतीश 43 विधायकों वाली छोटी पार्टी के अगुवा हैं। उनसे ज्यादा विधायक 74 सीटों की संख्या बीजेपी के पास है। यानी कि जो बड़ा भाई हुआ करता था वो अचानक से छोटा भाई हो गया। वो झुंझलाहट है मन में।  इसके साथ ही बीजेपी के विरोध के आगे विवश होकर नीतीश को 15 साल से गृह सचिव रहे आमिर सुबहानी को हटाना पड़ा। 

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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू सहयोगी भाजपा से छोटी पार्टी बन गई है। दूसरे, भाजपा की आंतरिक संरचना भी बदल गई है। सीएम नीतीश के साथ आदर्श और भरोसेमंद सहयोगी की भूमिका निभाने वाले सुशील मोदी को भाजपा ने राज्यसभा सदस्य बनाकर दिल्ली भेज दिया है। उनकी जगह दो उप-मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश को दोनों तरफ से घेरने की कोशिश की गई है। हालत यह हो गई है कि अब नीतीश कुमार को भाजपा के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव के साथ डील करना पड़ रहा है। राज्य में भाजपा अब बिग बॉस की भूमिका में आना चाहती है लेकिन नीतीश उसे बिग बॉस मानने को तैयार नहीं और इसलिए छोटे दल के नेता के तौर पर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही नीतीश लगातार अपना कद बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। जार्ज फर्नांडीज को हटाकर शरद यादव को जेडीयू का अध्यक्ष बनवा दिया था। फिर ठीक पांच साल पहले नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाइटेड का अध्यक्ष पद शरद यादव से जबरन हासिल किया था। वहीं नीतीश कुमार कहते सुनाई पड़े की पार्टी का कामकाज किसी फुल टाइम अध्यक्ष के हाथों में होनी चाहिए। नीतीश ने इतनी आसानी से अपनी कुर्सी छोड़ पूर्व आईएएस अधिकारी आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बना दिया। दरअसल, नीतीश के पास अब कोई रास्ता नहीं था कि वो पार्टी से ऐसा कोई नुमाइंदा चुने जो बीजेपी के नेताओं से बात करे। कहा तो ये भा जा रहा है कि नीतीश कुमार को भूपेंद्र यादव से बात करने के लिए इंतजार करना पड़ रहा था। नीतीश को ऐसे किसी शख्स की दरकार थी तो अधिकृत तौर पर बीजेपी से बात कर सके। नीतीश को बार-बार भूपेंद्र यादव या बीजेपी की दूसरी-तीसरी कतार के नेताओं से बात करने 

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नीतीश कुमार की एक खासियत और रही है कि वो मीडिया से बहुत कम बात करते रहे हैं। मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर विधानसभा तक, पत्रकार सवालों की झड़ी लगाते नजर आते थे लेकिन नीतीश मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर निकल जाया करते थे। लेकिन इस बार तो पटना का हर पत्रकार नीतीश कुमार के रवैये से काफी हैरत में नजर आ रहा है। पत्रकार जब भी कोई सवाल लेकर नीतीश का नाम लेते हैं तो नीतीश कुमार खुद ही रुक कर जवाब देना शुरू कर देते हैं। बीच में तो कई दिन ऐसे भी गुजरे जब दिनभर में नीतीश कुमार ने 4-5 बार पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। साफ-साफ लग रहा है कि अपनी चुप्पी त्यागकर नीतीश खूब घूम रहे हैं, मीडिया से बात कर रहे हैं और हर सवाल का जवाब दे रहे हैं।

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नीतीश कुमार खुद को मजबूत करने की भी कवायद में लगे हैं। कभी वो मांझी को साथ लाते हैं। फिर रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा से नजदीकियां बढ़ाते हैं। यहां तक की रालोसपा और हम के जेडीयू में विलय की खबरें भी सामने आती है। कुल मिलाकर कहा जाए कि नीतीश बहुत दवाब में हैं। बिहार के नतीजों से नाखुश हैं। अपनों और विरोधियों के हमले से चितिंत हैं। लेकिन नीतीश को अपने सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के महान नेता, भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पंत्तियों ''क्‍या हार में क्‍या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही'' को पढ़ते हुए अपने रास्ते में आगे बढ़ना होगा। नीतीश सोलह साल से मुख्यमंत्री हैं तो चाहे वो कानून व्यवस्था की बात हो या फिर बढ़ते अपराध की, सवाल तो उन्हीं से पूछे जाएंगे। इसमें झुंझलाना और बिफरना सेहत के लिए भी खराब है और कुर्सी के लिए भी। - अभिनय आकाश

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