By अभिनय आकाश | Jan 08, 2022
साल 2022 के लिए पांच राज्यों के चुनावों की तारखी का ऐलान हो चुका है। सबकी नजर राजनीतिक रूप से सबसे अहम माने जाने वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश पर आकर टिकी है। उत्तर प्रदेश में आजादी के बाद 17 विधानसभा चुनाव हुए लेकिन यहां के मुसलमानों ने कभी किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं माना। प्रदेश के अंदर और बाहर के कई नेताओं ने मुसलमानों को एकजुट करके एक राजनीतिक ताकत के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश की लेकिन वो कभी भी ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पाई। आजादी के बाद के दौर से डा.जलील फ़रीदी से शुरू हुई कवायद को वर्तमान में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भुनाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन राजनीतिक जानकार उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की पहली और आखिरी पसंद समाजवादी पार्टी को ही बता रहे हैं।
आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को टक्कर देने के लिए अपने अभियान को तेज करते हुए, समाजवादी पार्टी (सपा) विभिन्न समुदायों को लुभाने के लिए कई आउटरीच कार्यक्रमों में लगी हुई है। हालाँकि अब तक जो स्पष्ट हुआ है वह यह है कि सपा राज्य में मुस्लिम मतदाताओं तक पहुँचने के लिए इसी तरह के कदम नहीं उठा रही है। अखिलेश के इस कदम के पीछे की वजह राजनीति का चर्चित "टीना फैक्टर" (कोई विकल्प नहीं) है। राजनीति में टीना फैक्टर विकल्पविहीनता की स्थिति को कहते हैं।
कई सपा नेताओं के अनुसार अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली पार्टी मुस्लिम समुदाय तक पहुंच बनाने के प्रयास नहीं कर रही है, इसका कारण यह है कि पार्टी को विश्वास है कि यदि वे उत्तर प्रदेश में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं तो मुस्लिम मतदाताओं के पास वास्तव में सपा का समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गैर-यादव ओबीसी समुदायों के बीच अपने समर्थन के आधार पर ध्यान केंद्रित करते हुए सपा ने यूपी चुनावों के लिए पांच छोटे दलों के साथ गठबंधन किया है, लेकिन इससे इतर सपा ने किसी भी पार्टी के साथ हाथ नहीं मिलाया है, जिसका राज्य में मुसलमानों के बीच बेस माना जाता है। कुछ समय पहले ही अखिलेश ने असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया था। इसके पीछे मुख्य कारण, सपा नेताओं का कहना है कि पार्टी भाजपा के पक्ष में बहुसंख्यक हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण नहीं करना चाहती थी। मुस्लिम समुदाय उत्तर प्रदेश की आबादी का लगभग 20 प्रतिशत है, लेकिन मौजूदा सांप्रदायिक स्थिति को देखते हुए, कोई भी विपक्षी दल राज्य में बहुसंख्यक समुदाय की प्रतिक्रिया के डर से उनके बारे में खुलकर बात नहीं कर रहा है।
सपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि यह चुनाव से पहले मुस्लिम मुद्दों पर खुलकर बात नहीं करने की पार्टी की रणनीति का हिस्सा है क्योंकि उसे भाजपा के पक्ष में हिंदू मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का डर है। पार्टी के आंतरिक सर्वेक्षणों से पता चला है कि उसे मुस्लिम समुदाय का समर्थन मिलेगा जो राज्य से भाजपा को हटाना चाहता है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार सपा को डर है कि अगर वह मुस्लिम मुद्दों के बारे में बहुत मुखर हो गई, तो इससे यूपी में हिंदू समुदाय के बीच ध्रुवीकरण हो जाएगा। सपा नेता ने कहा कि पार्टी ने पिछले साल पूरे यूपी में अपने रैंक और फाइल के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए, जिसमें स्थानीय नेताओं को यह समझा गया कि अगर पार्टी राज्य में अपनी सरकार बनाना चाहती है तो मुस्लिम मुद्दों पर सार्वजनिक बहस को रोकने की जरूरत है। नेता के अनुसार सभी का मानना हैं कि सपा भाजपा से बेहतर मुसलमानों के लिए होगी और इसीलिए पार्टी के भीतर का मुस्लिम नेतृत्व भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा बनाई गई रणनीति से सहमत है।
जबकि सपा योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को ब्राह्मणों, पिछड़े समुदायों और दलितों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर निशाना बना रही है, उसने राज्य के धर्मांतरण विरोधी कानून और मंदिर के लिए नए सिरे से मांग जैसे मुद्दों पर चुप रहना चुना है। इस महीने की शुरुआत में अखिलेश ने लखनऊ के गोसाईगंज इलाके में अपनी पार्टी के एक ब्राह्मण नेता द्वारा बनवाए गए भगवान परशुराम के मंदिर में पूजा-अर्चना की. इसी तरह, उन्होंने रायबरेली जिले की अपनी यात्रा के दौरान दिसंबर में एक हनुमान मंदिर का भी दौरा किया। यह पूछे जाने पर कि क्या इससे पार्टी को मुस्लिम समुदाय से समर्थन खोना पड़ेगा, सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अब्दुल हफीज गांधी ने कहा, “समाजवादी पार्टी समावेशी राजनीति में विश्वास करती है। हम मुस्लिम आकांक्षाओं के प्रति सचेत हैं।
सपा प्रवक्ता ने यह भी कहा, “सपा के अन्य मुस्लिम नेता प्रचार कर रहे हैं और मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं। वे कई महीनों से जमीन पर काम कर रहे हैं और उन्हें काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है। एक और पहलू यह है कि सपा नहीं चाहती कि मतदाताओं का धर्म और जाति पर ध्रुवीकरण हो और वास्तविक मुद्दों को भूल जाए जो मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, पुलिस अत्याचार, कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा हैं।