प्रियंका गांधी के आने के बाद से सपा और बसपा की रातों की नींद उड़ी हुई है

By अजय कुमार | Feb 14, 2019

उत्तर प्रदेश अप्रैल−मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की प्रयोगशाला बनता जा रहा है। जीत का स्वाद चखने के लिये सभी दलों के नेता नये−नये प्रयोग कर रहे हैं। तुलना 2014 के लोकसभा चुनाव से की जाए तो उस समय मोदी लहर ने विपक्ष की नींद उड़ा दी थी। मीडिया भी मोदी मैजिक से नहीं बच सका था। बीजेपी का नारा 'अच्छे दिन आने वाले हैं', सबकी जुबान पर गूंज रहा था। मोदी जहां जाते मोदी−मोदी के नारे लगने लगते। बीजेपी और आरएसएस मोदी के पीछे मजबूत दीवार की तरह खड़ा था। यूपी फतह के लिये मोदी ने गुजरात से निकल कर वाराणसी से चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो विपक्ष को मोदी की प्लानिंग समझने में देर नहीं लगी। मोदी की नजर यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर थी। उन्हें पता था कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है। मोदी लहर चारों तरफ चल रही थी, तो सपा−बसपा और कांग्रेस मोदी और बीजेपी को पटकनी देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए थे। यह और बात थी कि कांग्रेस काफी कमजोर नजर आ रही थी। मोदी की काट के लिए बसपा दलित तो सपा पिछड़ा वर्ग के वोटरों को साधने में लगी थी। इसके अलावा मुसलमानों के अपने पक्ष में लाने की मुहिम सपा−बसपा दोनों ही छेड़े हुए थे।


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उत्तर प्रदेश की सियासत में मुस्लिम फैक्टर हमेशा से ही निर्णायक भूमिका निभाता चला आ रहा है। जब तक मुसलमान कांग्रेस के साथ रहे, प्रदेश में पार्टी की पकड़ मजबूत रही लेकिन नब्बे के दशक में कमंडल की राजनीति के चलते मुसलमानों का कांग्रेस पर से विश्वास उठने लगा। मुसलमानों में कांग्रेस से नाराजगी की वजह अयोध्या विवाद था। 1984 में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और राम जन्मस्थान को स्वतंत्र कराने व एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू किया तो वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विवादित स्थल का ताला खुलवा दिया। एक फरवरी 1986 को फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिंदुओं को पूजा की इजाजत दे दी। इस घटना के बाद नाराज मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया। मुसलमानों को लगने लगा कि राजीव गांधी सरकार ने उनके साथ विश्वासघात किया।

 

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उधर, उत्तर प्रदेश की सियासत में समाजवादी विचारधारा के नेता मुलायम सिंह यादव अपनी जड़ें मजबूत करने में लगे थे। दिसंबर 1989 में जब जनता दल की सरकार बनी तो मुलायम को मुख्यमंत्री बनाया गया। उन्हीं के कार्यकाल में अयोध्या विवाद सबसे अधिक गहराया था। मुलायम की सरकार थी, उसी दौरान विश्व हिन्दू परिषद के आह्वान पर 30 अक्तूबर 1990 को लाखों कारसेवक अयोध्या में इकट्ठा हो गए। उनका उद्देश्य था कि विवादित स्थल पर मस्जिद को तोड़कर मंदिर का निर्माण किया जाए। जब हजारों की संख्या में लोग विवादित स्थल के पास की एक गली में इकट्ठा हुए, उसी वक्त सामने से पुलिस और सुरक्षा बलों ने गोली चला दी। इसमें कई लोग गोली से तो कई लोग भगदड़ से मारे गए और घायल हुए। हालांकि मौतों के आंकड़े कभी स्पष्ट नहीं हुए। यूपी की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के दौरान कारसेवकों पर पुलिस की गोलीबारी के मामले में एक इलेक्ट्रानिक चैनल ने लॉन्च होने के पहले ही दिन बड़े खुलासे का दावा किया। चैनल ने अपने स्टिंग में एक तत्कालीन अधिकारी से बात की। रामजन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने बताया कि कारसेवकों की मौत का जो आंकड़ा बताया गया था, उससे ज्यादा कारसेवकों की मौत हुई थी। राम जन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने इस टीवी चैनल से बातचीत में बताया कि घटना के बाद विदेश तक से पत्रकार आए थे। उन्हें आठ लोगों की मौत और 42 लोगों के घायल होने का आंकड़ा बताया गया था। जब तफ्तीश के लिए शमशान घाट गए, तो वहां पूछा कि ऐसी कितनी लाशें हैं, जो दफनाई गई हैं और कितनी लाशों का दाह संस्कार किया गया है, तो बताया गया कि 15 से 20 लाशें दफनाई गई हैं। उसी आधार पर सरकार को बयान दिया गया था। हालांकि हकीकत यही थी कि वे लाशें कारसेवकों की थीं। उस गोलीकांड में कई लोग मारे गए थे। आंकड़े तो नहीं पता हैं, लेकिन काफी संख्या में लोग मारे गए थे। टीवी चैनल के इस सवाल पर कि कई लोग अपनों के बारे में पूछते हुए अयोध्या तक आए होंगे, उन्हें क्या बताया जाता था। पूर्व एसएचओ ने बताया कि उन्हें बताते थे कि दफनाई गई लाशें उनके परिवार के सदस्यों की नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव भी कई मौकों पर इस गोलीकांड को सही ठहराते रहे हैं। उन्होंने हमेशा कहा है कि देश की एकता के लिए गोली चलवाई थी। आज जो देश की एकता है उसी वजह से है। इसके लिए और भी लोगों को मारना पड़ता, तो सुरक्षा बलों को मारने की अनुमति दे देते।

 

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कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम मुसलमानों के हीरो बन गए। पिछड़ा वर्ग से मुलायम आते थे, इसलिये इस समाज के लोगों ने भी उनका पूरा साथ दिया। खासकर यादव पूरी मजबूती के साथ मुलायम के होकर रहे। यादव और मुस्लिम वोटों के सहारे मुलायम ने वर्षों तक अपनी सियासत चमकाई। इसमें कभी−कभी बहुजन समाज पार्टी जरूर सेंधमारी जरूर कर लेती थी। वह मुलसमानों को बताती थीं कि मुलायम सिंह उनके नाम का जाप तो जरूर करते हैं, लेकिन उनका भला कभी नहीं किया। मुलायम पर अक्सर भाजपा के करीब होने के आरोप भी लगते रहे थे। मुसलमानों को लुभाकर और अपने परम्परागत दलित वोटरों के सहारे मायावती ने भी कई बार सत्ता का स्वाद चखा। मुलायम−माया मुसलमानों को लुभाते थे तो हिन्दुओं में जातिवाद का जहर घोलकर कुछ बिरादरियों को अपने पक्ष में कर लेते थे। इसी के चलते कभी ब्राह्मण तो कभी ठाकुर इनके साथ हो जाते थे। माया−मुलायम मुलसमानों को भाजपा के खिलाफ खूब भड़़काते थे, यहां तक कहा जाता था कि अगर बीजेपी सत्ता में आ गई तो मुसलमानों को मरवा देगी। बीजेपी पर साम्प्रदायिकता फैलाने का ठप्पा लगा दिया गया था।

 

यह सब 2014 तक चलता रहा। मोदी ने जब राष्ट्रीय राजनीत में कदम रखा तो सबसे पहले उन्होंने हिन्दुओं को एकजुट किया। इसी के चलते 2014 में बीजेपी को दलित−अगड़े−पिछड़े सबका वोट मिला और बीजेपी गठबंधन को 73 सीटें पर जीत हासिल हुई। इसके बाद यूपी की सियासत का पैमाना ही बदल गया। अब तक मुलसमानों के नाम का जाप करने वाले सपा−बसपा ने तुष्टिकरण की राजनीति को हाशिये पर डाल दिया। और वह भी बीजेपी की तरह हिन्दू−हिन्दू की माला जपने लगे। यूपी की सियासत का परिदृश्य ही बदल गया। तमाम राज्यों में बीजेपी जीत का परचम लहराने लगी तो यूपी सियासत की नई प्रयोगशाला बन गई।

 

यूपी की सियासत में बीते कुछ महीनों से कई टर्निंग प्वांइट देखने को मिल रहे हैं। सपा−बसपा जैसे धुर विरोधी दलों का गठबंधन, गठबंधन की सियासत से कांग्रेस को दूर रखना, उसके बाद कांग्रेस द्वारा प्रियंका वाड्रा को यूपी की सियासत में ट्रम्प कार्ड की तरह पेश किया जाना, राहुल का फ्रंटफुट पर बैटिंग करने की बात करके कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाना बदलाव की सियासत का ही हिस्सा है। उधर, प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति में इंट्री ने सपा−बसपा की नींद उड़ा दी। सपा−बसपा गठबंधन का इसी वर्ष जनवरी में ऐलान हुआ था। दोनों दलों ने मोदी से मुकाबले के लिए 80 में से 76 सीटें आपस में बराबर बांटी। गठबंधन में शामिल रालोद के लिए दो सीटें छोड़ने के साथ ही कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखते हुए दो सीटें रायबरेली और अमेठी पर कांग्रेस के खिलाफ कोई प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला किया। इतना ही नहीं इसी दिन बसपा नेत्री मायावती ने भाजपा की तरह ही कांग्रेस को भी दलितों−मजलूमों−किसानों और गरीबों का विरोधी करार दिया। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से दोस्ती की बात तो कही, मगर उन्हें भाजपा के खिलाफ चुनावी जंग का साथी बनाने से इनकार कर दिया।

 

 

2014 के लोकसभा में यूपी की सफलता ने ही भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत की दहलीज पार कराई और नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गये। 2017 में यूपी विधानसभा के चुनाव में बसपा 80 से घटकर 19 सीट पर आ गई और सत्ता में रही सपा को 229 की बजाए 47 सीटें मिलीं। ऐसे में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही बसपा अध्यक्ष मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने गठबंधन की राह पकड़ी। गठबंधन के नेताओं को भरोसा था कि दलित−यादव और मुस्लिम समीकरण के जरिए आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ताच्युत किया जा सकता है। मगर लोकसभा चुनाव नजदीक आते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्रप कार्ड के तौर पर बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को राष्ट्रीय महासचिव बनाने के साथ ही उन्हें पूर्वी उप्र का प्रभारी बना दिया। राजनीति में प्रियंका की एंट्री ने गठबंधन के नेताओं को तो सकते में डाला ही है केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को भी अपनी रणनीति बदलने को बाध्य किया है। प्रियंका लखनऊ में रोड शो कर अपने राजनीतिक सफर का आगाज कर चुकी हैं। वह कांग्रेसियों के साथ लगातार बैठकें कर रही हैं, लेकिन अभी उनकी कोई जनसभा नहीं हुई है। प्रियंका के आने के बाद लाख टके का सवाल यही है कि वह किसको नुकसान पहुंचायेंगी। सपा−बसपा गठबंधन और भाजपा दोनों ही इस चिंता में घुले जा रहे हैं। विपक्षी ही नहीं मीडिया और राजनैतिक पंडितों को भी प्रियंका की पहली जनसभा का बेसब्री से इंतजार है। जनसभा में प्रियंका के बोलते ही उनकी थाह पता चल जाएगी।

 

-अजय कुमार

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