ज़िंदगी के अनुभव सिखाते हैं। जितना इंसान सीखता जाता है वह गुरु होता जाता है। चुनाव जीतने वाले गुरु हो जाते हैं बाकियों को चेले बना रहना पड़ता है। कई गुरु गुड़ हो जाते हैं और अपने चेलों को शक्कर बनाकर साथ रखते हैं। हर चुनाव इंसानी व्यवहार को विकसित करता है। सबसे ज़्यादा विकास ज़बान का होता है। वास्तव में प्रतियोगिता चल रही होती है कि किस तरह बेहतर से बेहतर कड़वे, ज़हर में लिपटे शब्दों में अपने विरोधियों को कोसा जाए। जो प्रतियोगी सबसे ज़्यादा आग उगलता है उसे महागुरु मान लिया जाता है। इंसानी व्यवहार की तुलना निरीह जानवरों के व्यवहार से की जाती है। उन जानवरों को पता भी नहीं होता कि उनके कुदरती व्यवहार की तुलना सामाजिक जानवरों के व्यवहार से की जा रही है।
ऊंचे राजनीतिक ओहदों पर विराजमान लोग अपनी ज़बान में तीखी मिर्चें लगाकर घूमते हैं। उनके सच्चे व पक्के भक्त संजीदगी से ज़बान जलाना सीखकर अपने व्यवहार का स्तर ऊंचा करते जाते हैं। चुनाव हमें हर बार यह दीक्षा देते हैं कि कपड़ों को भी राजनीति का एहम हिस्सा बनाया जा सकता है। कपड़े ही नहीं कपड़ों का रंग भी राजनीति का खिलाड़ी साबित हो सकता है। अब रंग और ढंग सब राजनीति के कब्ज़े में है। चुनाव में की गई नौटंकी सिखाती हैं कि कुछ भी हासिल करने के लिए, झूठ बोलना, स्वांग रचाना कितना ज़रूरी है। इस दौरान सिर्फ वायदे करना, खुली आंख ख़्वाब दिखाना भी खूब सिखाया जाता है। नागरिक यही सीखते हैं कि वो वायदे ही क्या जो वफ़ा हो जाएं। क़ानून, नियम और अनुशासन तो तोड़ने के लिए ही होते हैं।
उपहार देने और लेने की पारम्परिक संस्कृति पुन परवान चढ़ती है। सभी को प्रेरणा मिलती है कि अपना काम करवाने के लिए ऐसा करने में अच्छाई है। इस तरह के विज्ञापनों से बाज़ार भी खूब खुश होता है। भाषण सुनने आई भीड़ में शामिल रहो तो किसी भी बीमारी से निबटने के लिए रोग प्रतिरोधक शक्ति उग आती है। जाति और धर्म बारे खुलकर दीक्षा दी जाती है कि यह दोनों चीज़ें कितनी ज़रूरी, स्वादिष्ट और बहुत टिकाऊ हैं। बंदा धार्मिक हो जाता है इसलिए उसका अगला जन्म भी सुधर जाता है। बड़बोलेपन का गहन प्रशिक्षण मिलता है। खुद को लोकप्रिय व सामाजिक सौहार्द के ठेकेदार समझने की प्रेरणा मिलती है। सत्ता पर सिर्फ अपना हक़ होने के संकल्प समारोह के दौरान बंदा क्षेत्रीय भोजन खाना और परिधान पहनना भी सीख लेता है ।
इतने आकर्षण होने के बावजूद भी जनता कम वोट देती है। इससे यही साबित होता है कि इतने दशकों में भी राजनीति, आम लोगों को सही नुमायंदा चुनने के लिए संस्कारित नहीं कर पाई। चुनावों में बापू के तीनों बंदर प्रयोगों के सूखे वृक्षों पर खून से सने लटके दिखते हैं। वे, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो और बुरा मत सुनो का सन्देश बार बार देते रहे मगर राजनीति ने उनका काम तमाम कर डाला लगता है। इससे यह दीक्षा मिलती है कि बुरा देखो और सुनो, बुरा कहने से पीछे मत हटो बलिक सफल रहने के लिए बुरे की बदतर किस्में ईजाद करो।
- संतोष उत्सुक