By सुखी भारती | Aug 14, 2024
श्रीसती जी जिस समय अपनी पावन देह को त्यागने लगी, तो उन्होंने हम संसारी जीवों की भाँति जगत का चिंतन नहीं किया। अपितु साक्षात भगवान का ही चिंतन किया। श्रीहरि से प्रार्थना की, कि भले ही मेरा मरण हो रहा है। किंतु केवल यही जन्म ही नहीं, अपितु प्रत्येक जन्म में मेरा शिवजी के चरणों में ही अनुराग रहे-
‘सतीं मरत हरि सन बरु मागा।
जनम जनम सिव पद अनुरागा।।
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई।
जनमीं पारबती तनु पाई।।’
श्रीसती जी की इसी प्रार्थना के कारण, वे हिमाचल के घर श्रीपार्वती के रुप में देह धारण करती हैं। श्रीपार्वती जी जब से हिमाचल के घर जन्मी हैं, तब से चारों ओर आनंद ही आनंद छाया हुआ है। उस धरा भाग पर समस्त सिद्धियाँ और सम्पत्तियों ने डेरा जमा लिया है। वह स्थान ऐसा आकर्षक व मनोहर हो गया है, कि समस्त मुनियों ने वहाँ पर आकर सुंदर आश्रम बना लिए हैं। जिसमें हिमाचल ने उन मुनियों को उचित व उत्तम स्थान दिये।
श्रीपार्वती जी हिमाचल के घर क्या जन्मीं, वहाँ उस पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए। केवल इतना ही नहीं, वहाँ अनेकों प्रकार की मणियों की खानें भी प्रकट हो गईं।
गोस्वामी जी यहाँ ऐसे-ऐसे दावे कर रहे हैं, कि कई बार मन सोचने पर विवश हो जाता है, कि श्रीपार्वती जी में ऐसा क्या था, कि उस स्थान के भाग्य ही जग गए। भला ऐसे कैसे संभव है, कि वहाँ यकायक ही सब बढ़िया ही बढ़िया होने लगा। क्या किसी के, कहीं पर जन्म लेने से वाकई में वहाँ के भाग्य जग जाया करते हैं? तो इसका उत्तर है, ‘हाँ’।
वास्तव में ऐसी करनी तभी घटित होती है, जब वहाँ किसी ईश्वर तुल्य सत्ता का पार्दुभाव होता है। ईश्वर तुल्य या तो स्वयं ईश्वर ही होते हैं, अथवा उनका उच्च कोटि का कोई भक्त होता है। श्रीपार्वती जी में तो दोनों ही गुण विद्यामान हैं। वे साक्षात जगत जननी तो हैं ही, साथ में वे भगवान शंकर की शिरोमणि भक्त भी हैं। ऐसे दिव्य व आलौकिक देव जहाँ भी चरण रखते हैं, वहाँ पतझड़ में भी बहार आ जाती है। इसी लिए तो जो राजागण इन बातों को समझते होते थे, वहाँ सदा साधु जनों का सम्मान किया करते थे। वे उनके चरण धोकर पीते थे, व उनकी सच्चे मन से सेवा करते थे। क्योंकि उन्हें यह भलिभाँति ज्ञान था, कि हम धन से सामान तो खरीद सकते हैं, किंतु सम्मान नहीं। सम्मान तो महापुरुषों की सेवा से ही प्राप्त होता है। मकान बनाने में क्या है? मकान तो ईंट गारे का कोई भी बना लेता है, किंतु उस मकान को देव स्थल बनाना धन दौलत के बस की बात नहीं। इसके लिए तो दैवीय जनों के आर्शीवाद व स्नेह की ही आवश्यक्ता होती है।
ओर आज हिमवान व उसकी पत्नी मैना के पास वह सब कुछ था, जो दिव्यात्मायों के स्पर्श से संभव हो पाता है। गोस्वामी जी श्रीपार्वती जी के हिमवान के पर्वत पर जन्म लेने के अनेकों प्रभावों में से एक यह प्रभाव भी था-
‘सरिता सब पुनीत जलु बहहीं।
खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।।
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा।
गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।।’
अर्थात सारी नदियों में पवित्र जल बहता है। सभी पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर त्याग दिया है, पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं।
यह समाचार जब श्रीनारद जी के कर्णद्वारों पर पड़े, तो कौतुक ही से हिमाचल के घर जा पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा स्वागत किया। चरण धोकर उन्हें उत्तम आसन दिया गया। फिर अपनी पत्नि सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया, और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों में डाल दिया।
माता पार्वती जी को लेकर श्रीनारद जी क्या भविष्य वाणी करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती