मोहन भागवत ने भारत के विकास की जो अवधारणा बताई, उसी पर आगे बढ़ना होगा

By ललित गर्ग | Dec 21, 2022

भारत दुनिया की एक उभरती हुई सशक्त आर्थिक व्यवस्था है, विकास के नये आयाम उद्घाटित करते हुए भारत ने दुनिया को चौंकाया है, अचंभित किया है। भारत की विकास अवधारणा न केवल आर्थिक संवृद्धि से जुड़ी है, अपितु यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक प्रक्रिया है जो लोगों को जीवन की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए अभिप्रेरित करती है और विकास प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाती है। यह विकास अंततः आत्मनिर्भरता, समानता, न्याय एवं संसाधनों का एकसमान वितरण को बल देती है जो राष्ट्रीयता एवं लोकतंत्र की मजबूती का भी आधार है। भारत के वर्तमान विकास को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संघ प्रमुख मोहन भागवत निरंतर जागरूक हैं एवं अपने विचारों से यह विकास कहीं भटक न जाये, उसके लिये चेताते रहते हैं। हाल ही में उन्होंने मुम्बई में यह बयान देकर भारत के जन-जन को अभिप्रेरित किया है कि इस देश का विकास अमेरिका या चीन की तर्ज पर नहीं हो सकता बल्कि इसका विकास भारतीय दर्शन और इसकी संस्कृति तथा सकल संसार के बारे में इसके सुस्थापित विचारों के अनुरूप ही किया जा सकता है। देश के विकास की प्राथमिक आवश्यकता है कि गरीब का संबोधन मिटे। गरीबी एवं अमीरी के बीच का दूरियों को समाप्त किया जाये। प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़े। संघ एक समतामूलक संतुलित समाज व्यवस्था का पोषक है। तभी वह गांव का विकास चाहता हैं और तभी ग्राम आधारित अर्थ-व्यवस्था को विकसित होते हुए देखना चाहता है।


संघ प्रमुख भागवत ऐसे ही विकास को चाहते हैं और मुंबई में उनके इन्हीं विचारों में ऐसी ही रोशनी प्रकट भी हुई है। उनके विचारों में जहां विवेकानन्द का दर्शन है वहीं गांधीवाद भी समाया है। उनके विचार उन आर्थिक सिद्धान्तों से उपजे हैं जिनके बारे में राष्ट्रपति महात्मा गांधी जीवनभर समर्पित थे और ग्रामों के विकास को ही भारत के सर्वांगीण विकास का फार्मूला मानते थे। उनका विकास मन्त्र पाश्चात्य विकास सिद्धान्त से पूरी तरह भिन्न था और वह मानते थे कि गांवों के आत्मनिर्भर होने से भारत में आत्मनिर्भरता आयेगी। इसका मतलब यह कदापि नहीं था कि गांव व ग्रामीण जगत आधुनिक विकास प्रणाली से विमुख रहेगा बल्कि यह था कि औद्योगीकरण का पहिया गांवों से शहरों की तरफ घूमेगा तभी देश का समुचित और सम्यक विकास संभव होगा तथा गरीबी का प्रवाह रुकेगा।

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गांवों के विकास को गति देकर ही गरीबी को दूर किया जा सकता है। अब तक की विकास अवधारणा में गरीबी की रेखा का महिमामंडन बहुत हुआ है। गरीबी की रेखा क्या? क्यों है? किसने खींची यह लक्ष्मण रेखा, जिसको कोई पार नहीं कर सकता। जिस पर सामाजिक व्यवस्था चलती है, जिस पर राजनीति चलती है, जिसको भाग्य और कर्म की रेखा मानकर उपदेश चलते हैं। वस्तुतः ये रेखाएं तथाकथित गरीबों ने नहीं खींचीं। यह रेखाएं अमेरिकी एवं चीनीवादी सोच ने खींची हैं। इस रेखा (दीवार) में खिड़कियां हैं, ईर्ष्या की, दम्भ की। पर दरवाजे नहीं हैं इसके पार जाने के लिए। एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में यह रेखा नहीं होनी चाहिए। यह रेखा उन कर्णधारों के लिए ''शर्म की रेखा'' है, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए। गांधी ने इसी रेखा को दूर करने का दर्शन दिया और अब भागवत उसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं।


भारत की वर्तमान विकास प्रक्रिया में अनेक चिन्तन के बिंदु हैं कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत व स्नेह नहीं दे सके, वह समाज कैसा? जो शिष्य को अच्छे-बुरे का भेद न बता सके, वह गुरु कैसा? अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाए देखें तो हम सब गरीब हैं। गरीब, यानि जो होना चाहिए, वह नहीं हैं। जो प्राप्त करना चाहिए, वह प्राप्त नहीं  है। चाहे हम अज्ञानी हैं, चाहे भयभीत हैं, चाहे लालची हैं, चाहे निराश हैं। हर दृष्टि से हम गरीब हैं। जैसे भय केवल मृत्यु में ही नहीं, जीवन में भी है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में ही नहीं, अमीरी में भी है। यह भय है आतंक मचाने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से जहां है वहां से नीचे उतर जाने का, प्रियजनों की सुरक्षा का। जब चारों तरफ अच्छे की उम्मीद नजर नहीं आती, तब मनुष्य नैतिकता की ओर मुड़ता है। यह वह सशक्त मोड़ है जो शर्म की रेखा को तोड़ने के लिए यत्न करता है। शर्मी और बेशर्मी दोनों मिटें। गरीबी का संबोधन मिटे। तब हम सूर्योदय के नजदीक होंगे। ऐसा सूर्योदय न तो चीन का अनुसरण करने से आयेगा और अमेरिका का। यह भारतीय दर्शन को, यहां की संस्कृति को मजबूती देकर ही आ सकेगा।

  

भागवत भारतीय संस्कृति के प्रवक्ता हैं, भाष्यकार हैं, वे जितने दार्शनिक हैं, उतने ही व्यावहारिक भी हैं। सांस्कृतिक उत्थान के साथ वे स्वस्थ समाज निर्माण के सूत्रधार भी हैं। वे ऐसे धार्मिक हैं जिनका प्राथमिक धर्म राष्ट्रीयता है। तभी श्री भागवत ने कहा कि जो धर्म मनुष्य को सुविधा सम्पन्न और सुखासीन बनाता है मगर प्रकृति को नष्ट करता है, वह धर्म नहीं है। यहां धर्म का अर्थ मजहब नहीं बल्कि कर्त्तव्य या इंसानियत है। उपभोग एवं सुविधावादी धर्म की जड़ ‘पाश्चात्य की उपभोग’ संस्कृति में बसी हुई है। जबकि भारत की मान्यता ‘उपयोग’ की रही है, त्याग की रही है। इस बारे में भी महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत में प्रत्येक रईस या सम्पन्न व्यक्ति को अपने उपभोग की अधिकतम सीमा तय करनी चाहिए और शेष सम्पत्ति को समाज के उत्थान मूलक कार्यों में लगाना चाहिए। वास्तव में यही गांधी का ‘अहिंसक समाजवाद’ था और ऐसा ही उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त था। इसी समाजवाद की स्थापना संघ का ध्येय है।


प्रकृति का विनाश करके विकास खोजने वाले राष्ट्र भारत के आदर्श नहीं हो सकते। कोरोना जैसी महाव्याधियों को पैदा करने वालों को हम आदर्श मान भी नहीं सकते। क्योंकि कोरोना महामारी प्रकृति की उपेक्षा का ही परिणाम है। चीन व अमेरिका जैसे देशों में प्रकृति को बेजान मानते हुए उसकी कीमत पर किये गये विकास को उपलब्धि मान लिया गया है। चीन में तो विकास का पैमाना अमेरिका से भी और ज्यादा विद्रूप एवं त्रासद है क्योंकि इस देश की ‘कम्युनिस्ट पूंजीवादी’ सरकार ने मनुष्य को ही ‘मशीन’ में तब्दील कर डाला है जिसकी वजह से मनुष्य की संवेदनाएं भी मशीनी हो गई हैं। भारतीय संस्कृति में भौतिक सुख का अर्थ यह कदापि नहीं बताया गया कि व्यक्ति पूर्णतः स्वार्थी होकर समाज, संस्कृति और दैवीय उपकारों की उपेक्षा करने लगे बल्कि यहां ‘दरिद्र नारायण’ की सेवा को ईश्वर भक्ति का साधन माना गया। जब हम प्रकृति के संरक्षण की बात करते हैं तो इसमें सम्पत्ति के समुचित बंटवारे का भाव भी समाहित रहता है क्योंकि भारत में प्राकृतिक सम्पदा पर आश्रित रहने वाला पूरा समाज अपने आर्थिक विकास के लिए इसी पर निर्भर रहता है। बड़े कल कारखाने निश्चित रूप से विकास की आवश्यक शर्त होते हैं और भौतिक सुख-सुविधा प्राप्त करने का अधिकार भी बदलते समय के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का होता है परन्तु यह दूसरे व्यक्ति को उजाड़ कर पूरा नहीं किया जा सकता।


संघ एवं संघ प्रमुख ने समय-समय पर सरकार को ‘भारतीय मूल्यों के प्रकाश में’ विकास की अवधारणा देने के लिए प्रोत्साहित किया था। अब संघ के मौजूदा आर्थिक दर्शन एवं विकास की अवधारणा को भारतीय विशेषताओं के साथ लोकप्रियता के रूप में अच्छी तरह से समझा जा सकता है। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में अप्रैल, 2018 में मुंबई के आभिजात्य व्यवसायी वर्ग को संबोधित करते हुए भागवत ने संघ के आर्थिक दर्शन की स्पष्ट घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि संघ किसी आर्थिक वाद से जुड़ा नहीं है और आर्थिक नीति की जांच करने के लिए कसौटी यह होनी चाहिए कि इसका लाभ गरीबों तक पहुंचेगा या नहीं। स्पष्ट है कि संघ भारत का विकास मूल्यों एवं नैतिक अवधारणाओं पर होते हुए देखना चाहता है। जीवित रहना जीवन का लक्ष्य नहीं है। सिर्फ खाना और आबादी बढ़ाना ही वह काम है, जो जानवर भी करते हैं। शक्तिशाली ही जीवित रहेगा, यह जंगल का कानून है। योग्यतम की उत्तरजीविता ही जंगल पर लागू होने वाला सत्य है जबकि दूसरों की रक्षा करना ही मनुष्य की निशानी है।


-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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