सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि "जब तक राजनारायण जैसे लोग हैं, देश में तानाशाही असंभव है।" इसलिए आज मैं यह सवाल उठा रहा हूँ कि राजनारायण जैसे लोग अब सियासत में क्यों नहीं? क्या समाजवादी राजनीति में उनके जैसे लोगों का अकाल पड़ गया है?
आज के दौर में यह सवाल इसलिए अहम है कि समाजवादी सियासत करने वाले क्षेत्रीय दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तानाशाही का आरोप लगाते नहीं थकते हैं। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों की भी यही तोहमत है। यही वजह है कि मुझे अनायास राम मनोहर लोहिया की उपरोक्त टिप्पणी याद आई, जो उन्होंने राजनारायण सिंह को लेकर एक खास सियासी मौके पर कही थी।
सवाल है कि आखिर राजनारायण कौन हैं और भारतीय सियासत में उनकी रिक्तता क्यों महसूस की जा रही है, इसी बात की चर्चा मैं आगे करूँगा, ताकि भारतीय राजनीति के इस हरफनमौला योद्धा की ख्याति को उद्घाटित किया जा सके। बता दें कि राजनारायण भारत सरकार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री थे और जनता पार्टी के उत्थान और पतन में उनकी केंद्रीय भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
कहा जाता है कि वह राजनारायण ही थे, जिन्होंने खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को न्यायालय और मतदान (वोट) दोनों में शिकस्त दी थी। तब पीएम इंदिरागांधी पर भी उसी तरह से सियासी तानाशाही के आरोप लगाए जा रहे थे, जैसे कि आज भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हर ऐरे ग़ैरे नत्थू विपक्षी राजनैतिक लोगों द्वारा लगाए जा रहे हैं।
इसलिए सियासी हल्के में आज यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि जिस तरह से कांग्रेस नेत्री इंदिरा गांधी को समाजवादी नेता राजनारायण ने कड़ी टक्कर देते हुए कोर्ट और वोट दोनों में तगड़ी शिकस्त दी थी। उसी तरह से आज बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी को कड़ी टक्कर देते हुए तगड़ा शिकस्त देने में समाजवादी नेताओं की घिग्गी क्यों बंधी हुई है। यहां उनके जैसे जनहितैषी और जुझारू नेता का अकाल क्यों दिख रहा है, जबकि कई राज्यों में समाजवादी सियासी आधार उस राजनीतिक दौर के मुकाबले ज्यादा मजबूत है?
सवाल है कि क्या समाजवादी सियासत की विघटनकारी मानसिकता उसे इस कदर खोखली कर चुकी है कि उसके राजनेता अपने ही इतिहास को दुहराने के काबिल भी नहीं बचे! कभी एनडीए तो कभी यूपीए के साथ सियासी लुकाछिपी खेलने वाली समाजवादी सियासत अब जातिवाद और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के भंवरजाल में फंसकर ऐसी ऊब चूब कर रही है कि निकट भविष्य में उससे उबरने के आसार भी दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों? क्या इसी समाजवादी दुर्दिन की परिकल्पना राममनोहर लोहिया और राजनारायण ने की थी। शायद नहीं!
याद दिला दें कि गुलाम भारत में सन 1917 की कार्तिक मास की अक्षय नवमी को अवतरित राजनारायण ताउम्र राममनोहर लोहिया के हनुमान के तौर पर सक्रिय रहे और अपनी अगड़धत्त राजनीतिक शैली के लिए वे विभिन्न तरह की आलोचनाओं के केंद्र में भी रहे, पर अपने सिद्धांतों से मृत्यपर्यंत तक कोई भी समझौता नहीं किये। उनका निधन 31 दिसम्बर 1986 को हुआ था। इसी दिन राजनारायण की लोकप्रियता का एहसास देश-दुनिया को हुआ था, जब उनकी शव यात्रा में बिन बुलाए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ गए।
मानो दिल्ली-बनारस का माहौल कुछ पल के लिए थम सा गया हो। ऐसा इसलिए कि सबके लिए अपने जैसे ही थे राजनारायण, एक जिंदादिल राजनेता! उन्हें समझने के लिए हमलोगों को वर्ष 1950, 1960, 1970 और 1980 के दशक की सियासी परिस्थितियों और उससे अर्जित समाजवादी उपलब्धियों की ओर झांकना होगा, जहां उनके सियासी उत्थान-पतन की समस्त गाथाएं अंतर्निहित है।
कहना न होगा कि 1960 के दशक में जब राजनारायण राज्य सभा पहुंचे तो सियासी हल्के में यह कहा जाने लगा कि संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए दो शैलियां ही मशहूर हैं। एक शैली भूपेश गुप्त, नाथ पई, मधु लिमये जैसे नेताओं की है, जो अपनी तैयारी और तथ्यात्मक विश्लेषण से संसद का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते थे। तो दूसरी शैली राजनारायण की है, जिनकी गहरे जनसरोकार रखने वाली बुलंद आवाज, मजबूत कद-काठी, सौम्य पर मुद्दागत आक्रामक हंगामेदार स्वभाव और तर्कपूर्ण वाणी सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है।
राजनारायण को समझने के लिए कुछ राजनीतिक वाकयों की चर्चा करना यहां जरूरी समझता हूं। भारतीय संसदीय इतिहास में 4 मार्च 1953 का दिन इन अर्थों में ऐतिहासिक है कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में न केवल मार्शल बुलाए गए, बल्कि प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों की समस्याएं उठाने पर अड़े विधायक राजनारायण को सदन से घसीटकर बाहर निकाला गया। जिससे उनको कुछ शारीरिक चोटें भी आईं। तब इस घटना में शामिल सम्पूर्णानंद सरकार की काफी आलोचना प्रतिपक्ष द्वारा की गई, जिसके बाद से राजनारायण की लोकप्रियता और अधिक बढ़ती चली गई।
बता दें कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 21 अक्टूबर 1997 को जो हंगामा हुआ, वह संसदीय इतिहास का एक काला अध्याय है, जिसमें विधायकों ने माइक तोड़कर तत्कालीन अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी पर हमला किया था। इसमें कई विधायक घायल भी हुए थे। तब भी कुछ क्षुद्र बुद्धिजीवियों के द्वारा राजनारायण को ही इस परंपरा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। जबकि उनके गुजरे हुए 11 साल हो चुके थे।
कहना न होगा कि ऐसी विवादास्पद घटना के बीज 8 सितंबर 1958 को ही उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पड़ चुके थे, जब कांग्रेस सरकार द्वारा गिरफ्तार अपने 987 कार्यकर्ताओं का मामला राजनारायण ने अपने साथी 12 विधायकों समेत उठाया था। लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने इस मसले पर सदन में चर्चा का विरोध किया, जिससे मामला बढ़ता गया। लेकिन राजनारायण भी अपनी मांग पर अंत अंत तक अड़े रहे।
इसके बाद सत्ता के मद में चूर मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने राजनारायण को विधानसभा से पंद्रह दिनों के लिए निष्कासन का प्रस्ताव पेश किया, जिसका समूचे विपक्ष ने एक स्वर में विरोध किया। हालांकि, सदन में कांग्रेस बहुमत में थी, इसलिए यह प्रस्ताव पारित हो गया। फिर भी राजनारायण ने सदन से निकलने से मना कर दिया। ततपश्चात सदन में मार्शल और सशस्त्र पुलिस बल बुलाया गया। जिन्होंने राजनारायण को घसीटा और उन्हें साथी 12 विधायकों समेत सदन के बाहर फेंक दिया गया। इसमें उन्हें चोट भी लगी।
संसदीय इतिहास में एक जनप्रतिनिधि समूह के साथ हुए ऐसे अन्याय से आहत समाजवादी नेता और राजनारायण के राजनीतिक गुरू डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने लखनऊ में खुद ही समाजवादी कार्यकर्ताओं के एक विरोध प्रदर्शन कार्यक्रम को संबोधित किया और जो कुछ कहा, वही भविष्य की सियासी लकीर बन गई। तब लोहिया ने कहा था कि, "जनता के हिमायती, संसदीय अधिकारों की रक्षा के योद्धा और सर्वोपरि हिंसा के दुश्मन और संसद में उतने ही, जितने उसके बाहर सिविल नाफरमानी के सिपाही की हैसियत से राजनारायण का नाम संसदीय इतिहास की परिचयात्मक छोटी-छोटी पुस्तकों में सुरक्षित रहेगा। उन्हें उस आदमी की हैसियत से याद किया जाएगा, जिसने अपने सिद्धांत का साक्षी अपने शरीर को बनाया। यह कहना बेहतर होगा कि राजनारायण ने संसदीय आईने को बेदाग और निष्कलंक रखने के लिए शारीरिक पीड़ा उठाई। चाटुकार और कपटी इसकी निंदा चाहे जितनी करें, यह संसदीय कार्यप्रणाली को दुरूस्त करने का बड़ा कारण होगा।"
तब राममनोहर लोहिया यहीं नहीं रूके। क्योंकि उन्होंने शायद भविष्य देख लिया था। उन्होंने दो टूक कहा था कि, ‘जब तक राजनारायण जैसे लोग हैं, देश में तानाशाही असंभव है।’ महज 17 साल बाद ही लोहिया की यह भविष्यवाणी सही साबित हुई, जब सर्वशक्तिमान पीएम इंदिरा गांधी के रायबरेली का चुनाव कदाचार के आरोप में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण की ही एक याचिका पर खारिज कर दी। यही नहीं, ठीक इसके दो साल बाद हुए आम चुनावों में उन्होंने इंदिरा गांधी को रायबरेली के चुनावी मैदान में भी परास्त किया, जो किसी रोमांचककारी सियासत से कम नहीं।
अब बात करते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं की। आपको यह पता होना चाहिए कि राजनारायण मुंहफट थे और हाजिरजवाबी भी। वो जमींदार परिवार के बेटे थे और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई की थी। तब अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाई होती थी। इसके बावजूद उन्होंने आजीवन फक्कड़ जीवन जिया और हिंदी में काम करने और हिंदी को ही आगे बढ़ाने का व्रत लिया था। राममनोहर लोहिया की भी यही सोच थी।
इस दिशा में राजनारायण को आर्यसमाज की विचारधारा से काफी मदद मिली थी। उन्हें संसद में खुलकर यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होता था कि उन्हें हिंदी नहीं आती। एक राजनीतिक विश्लेषक के मुताबिक, "एक बार उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एस मोहन कुमार मंगलम को लेकर संसद में कोई बयान दिया। जिसका मोहन कुमार मंगलम ने अंग्रेजी में जवाब दिया। उन्होंने अंग्रेजी में बोलना शुरू किया और साथ में यह भी कह दिया कि राजनारायण अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और उन्हें इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी।"
तब राजनारायण ने खुलकर जवाब दिया था कि, 'मैं भारतवर्ष में पैदा हुआ हुं और हमारे माता-पिता में एक भी अंग्रेज नहीं बने। हमारी अंग्रेजी खराब है।....हमें अंग्रेजी कम आती है तो बुराई क्या है? क्या यह कोई हमारी मदर टंग है?' राष्ट्र भाषा को लेकर राजनारायण का दृढ़ विश्वास था कि राष्ट्रभाषा का मतलब पूरे राष्ट्र की भाषा होना। वैसे राष्ट्र भाषा का मतलब राष्ट्र की भाषा से भी लगाया जा सकता है।
आपको पता होना चाहिए कि अंग्रेजी के बरक्स राजनारायण अपने गुरु डॉक्टर राममनोहर लोहिया की तरह हिंदी को दोनों ही अर्थों में सच्ची राष्ट्रभाषा मानते थे। उनका भी मानना था कि अंग्रेजी के कारण देसी भाषाओं का नुकसान होगा। गांधी जी की तरह वे भी केंद्र में हिंदी और राज्यों में देसी भाषाओं को देखना चाहते थे और गाहे- बगाहे इसकी चर्चा करते रहते थे। राजनारायण का भी मानना था कि हिंदी किसी देसी भाषा को दबाएगी नहीं बल्कि उनके विकास में भागीदार होगी। फिर वे भी हिंदी के विकास में सहयोगी बनेंगी।
राजनारायण ने हिंदी और भारतीय भाषाओं को आपसी झगड़े से दूर रखने की भी अथक कोशिश की। यही वजह है कि उन्होंने अपने भाषणों में लोकभाषाओं से शब्दों को भी खूब लिया। चूंकि मूल रूप से वे भोजपुरी भाषी थे, लेकिन अवधी भी जानते थे, इसलिए अपने भाषणों में दोनों ही लोकभाषाओं से शब्दों को पिरोकर उन्हें चुटीला बनाने की कोशिश खूब की। कहना न होगा कि जैसे महात्मा गांधी ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रभाषा के सवाल को एक साथ जोड़ दिया था। उनका मानना था कि राष्ट्रीय मन अंग्रेजी विरोधी और राष्ट्रभाषा समर्थक होगा। लोकबंधु राजनारायण की भी वैसी ही मान्यता थी। उनका यह भी मानना था कि हिंदी के लिए भाषा केंद्रित आंदोलन चलाने से हिंदी को उसका उचित सम्मान नहीं मिल पाएगा। इसलिए इसे आचरण में ढाला जाए। अनुप्रयोग में बढ़ावा दिया जाए।
राजनारायण मानते थे कि सेठ गोविंद दास, नागरी प्रचारिणी सभा जैसे व्यक्ति और संस्थाएं हिंदी को लेकर जो आंदोलन चलाते हैं, वह सिर्फ भाषा केंद्रित हैं, शायद इसीलिए ही हिंदी अपना वाजिब हक हासिल नहीं कर पा रही है। यही वजह है कि हिंदी को लेकर राजनारायण ने 1958 में आंदोलन किया। लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में 10 मई 1958 को सत्याग्रह करते हुए उन्होंने वाराणसी में सत्याग्रह किया था। जिसमें उनकी गिरफ्तारी हुई और उन्हें 19 महीने की सजा के साथ उन पर 400 रूपए का जुर्माना लगाया गया था।
वहीं, 1968 में जब राजभाषा संशोधन विधेयक पारित हुआ और हिंदी को अनंत काल के लिए राष्ट्रभाषा के हक से वंचित कर दिया गया, तो इसके खिलाफ भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंदोलन किया, जिसका नेतृत्व राजनारायण ने किया था। इस आंदोलन का भी दमन करने के लिए विश्वविद्यालय में पुलिस जबर्दस्ती घुस गई। उस समय भी राजनारायण ने घोषित किया कि पुलिस प्रवेश से विश्वविद्यालय अपवित्र हो गया। पुलिस प्रवेश के खिलाफ विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर उन्होंने अनशन भी किया था।
आपको यह भी पता होना चाहिए कि आज भी देश में उच्च न्यायपालिका का कामकाज हिंदी में कराने के लिए मांग हो रही है। इसे लेकर शिक्षा उत्थान न्यास जैसे संगठन लगातार प्रयत्नशील हैं। इसके बावजूद भी महज चार हाईकोर्ट में ही हिंदी में कामकाज हो रहा है। वैसे बहुत कम लोग जानते हैं कि 1970 में ही राजनारायण ने सुप्रीम कोर्ट को हिंदी में पीठ बनाने के लिए मना लिया था। तब बाकायदा इसकी घोषणा भी हो गई थी। राजनारायण के प्रयासों से ही राष्ट्रीय अस्मिता को प्रभावित करने वाला सर्वोच्च न्याय जनभाषा में सुलभ होना शुरू ही होने वाला था, लेकिन किसी ने इस योजना में फच्चर फंसाया और यह महती योजना भी लागू होते-होते रह गई। कहने का तात्पर्य यह कि महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, राजनारायण जैसे आम जनसरोकार रखने वाले नेताओं ने समय समय पर देशहित में कुछ अच्छा और सच्चा जरूर सोचा, पर एक हद से ज्यादा कामयाब इसलिए नहीं हो पाए, क्योंकि विघ्नसंतोषी जमात को वे समझ नहीं पाए! कल भी यही सियासी सच था, आज भी है, शायद कल भी रहेगा।
- गोपाल जी राय
(लेखक बीओसी-डीएवीपी के सहायक निदेशक हैं।)