बारिश कहीं कहीं तो इतनी ज्यादा हो रही है कि टीवी पर देखने और सुनने में डरावनी लगती है। जहां गरमी में सूखा बरस रहा है वहां लोग जान की खैर मना रहे हैं कि बहने और डूबने से तो बचे। लगता है शानदार आपदा प्रबंधन ने घबराकर पानी में डूबकर आत्महत्या कर ली है। कहीं इस बार भी, डरे हुए मगरमच्छ पानी से बचने के लिए मकान की छत पर न चढ़ जाएं। कोई चीज़ समाज के लिए अच्छी है या बुरी यह तो महान व्यक्तित्व के मालिक ही बता सकते हैं। एक बार उन्होंने फरमाया था कि मैच शुरू होकर फिर बारिश के कारण रुक जाना सबसे बुरी घटना है। बारिश अच्छे भले खेल के मैदान को परेशान कर देती है। खिलाड़ी फिसलकर चोटिल होने लगते हैं। कमबख्त बुरी चीज़ बारिश इतना ज़रूरी काम भी नहीं होने देती।
बॉलीवुड की नायिकाएं कहना शुरू कर देती हैं कि मुंबई में होने वाली ज़्यादा बारिश उन्हें पसंद नहीं है। बेचारी शूटिंग पानी में फंस जाती है। जग ज़ाहिर है नायिकाओं को नकली, सुगन्धित बारिश ही पसंद आती है जिससे उनके दर्शक भी बढ़ जाते हैं। यह संतोषजनक है कि बारिश बारे बताने, प्रबंधन करवाने व संभालने वाले अधिकांश बंदे सुरक्षित रहते हैं, उनका समय बढ़िया बीतता है। जो सड़कें और डंगे बरसात से पहले ईमानदारी से बनाए गए थे उनकी मरम्मत का मोटा आकलन बनना शुरू हो गया है। आम इंसान तो अपने नालायक जन्म नक्षत्रों के हिसाब से डूबने, तैरने और मरने को तैयार बैठा होता है लेकिन व्यस्त विशिष्ट लोगों को जान जोखिम में डालकर हवाई सर्वे करने पड़ते हैं ताकि बाद में सांत्वना रस में डूबे वायदे तो कर सकें। उन्हें भी बेचारी परेशानी में उड़ना, ऊंघना और ऊबना पड़ता है।
ज़िम्मेदार सरकार को संजीदा जांच आदेश देने पड़ते हैं और जांच अधिकारी को उचित रिपोर्ट तैयार करनी होती है। बुद्धिमान विकासजी इतनी समझदारी से नया देश बसा रहे हैं लेकिन नासमझ बारिश जब चाहे जितनी चाहे, अपनी मर्ज़ी से होती रहती है। विकसित इंसान सब कुछ अपनी सुविधानुसार ही चाहता है तो बारिश को भी इंसान के इशारों पर चलना सीख लेना चाहिए। यदि विकासजी कुछ ऐसा करवा दें तो सरकार का करोड़ों रुपया बच सकता है। बारिश न भी हो तो ज़्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। आमजन के पास तो डूबकर मरने के लिए भूखे, प्यासे, उधार और बीमार रास्ते हैं। बाज़ार के किसी शातिर प्रतिनिधि ने ही सृष्टि पालक को सुझाया किया होगा कि संसार बसाइए। उन्होंने धरती पर आदम और हव्वा को सेब खाने के लिए भेज तो दिया, अब उनकी करोड़ों संतानें ही उनके लिए निरंतर मुश्किलें पैदा कर रही है।
शैलेंद्र ने तो दशकों पहले ही सवाल उठा दिया था, ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई,’ लेकिन दुनिया बनाने वाला कभी जवाब नहीं देता। सृष्टि रचयिता को सोच समझ कर फैसला लेना चाहिए था, किसी उत्पाद विशेषज्ञ से ही सर्वे, अध्ययन, विश्लेषण करवा लेते कि दुनिया बसाने के कितने ज़्यादा बुरे या अच्छे परिणाम हो सकते है।
- संतोष उत्सुक