विश्वव्यापी कोरोना महामारी और उससे पैदा हुए हालातों का जिस खूबी से मोदी सरकार सामना कर रही है, उसकी प्रशंसा देश से लेकर विदेश तक में हो रही है। कहने को तो पूरी दुनिया कोरोना महामारी से निपटने के लिए करीब−करीब एक जैसे ही कदम उठा रही है। लॉकडाउन, सोशल डिस्टेसिंग, फेस मास्क का प्रयोग, कोरोना संदिग्धों का पता लगाकर उनकी जांच, किसी के कोरोना पॉजिटिव होने पर उसे आइसोलेट या क्वारंटाइन, संक्रमित क्षेत्र में सेनेटाइजेशन आदि, लेकिन यह कदम कब और कैसे उठाए जाएं, कोरोना की जंग जीतने में यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण साबित हो रही है। यह समझ कहीं से 'खरीदी' नहीं जा सकती है अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली जैसे देश इस बात की मिसाल हैं कि इन लोगों ने कोरोना से बचाव के लिए जो कदम उठाए उसकी टाइमिंग काफी खराब थी, जब लॉकडाउन की जरूरत थी, तब इन देशों को लॉकडाउन की जरूरत समझ में नहीं आई इसी प्रकार सोशल डिस्टेसिंग को लेकर भी तमाम देश गंभीर नहीं दिखे, जिसका खामियाजा पूरी दुनिया भुगत रही है, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को कोरोना से बचाने के लिए हर कदम बहुत नपा−तुला बढ़ाया, जिसकी वजह से भारत में स्थितियां काफी हद तक खराब नहीं हो पाईं। मोदी की दूरदर्शिता की चौतरफा प्रशंसा हो रही है। आज स्थिति यह है कि मोदी सरकार की दूरगामी सोच के कारण कोरोना के खिलाफ लड़ाई में भारत दुनिया के अन्य तमाम मुल्कों से हर मोर्चे पर बढ़त बनाए हुए है। औसत जनसंख्या के हिसाब से भारत में कोरोना के मरीजों की संख्या अन्य देशों से काफी कम है। अगर कोरोना मरीजों की संख्या दोगुनी होने का हिसाब लगाया जाए तो इसमें भी भारत की स्थिति बेहतर है। यहां मरीजों की संख्या दोगुनी होने में पश्चिमी देशों से ज्यादा वक्त लग रहा है। भारत में कोरोना के टेस्ट कम होने का आरोप भले लगाया जाता हो, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि भारत में 24 टेस्ट करने पर एक पॉजिटिव मरीज मिल रहा है, जबकि अमेरिका में हर पांच टेस्ट में एक पॉजिटिव मरीज मिल रहा है।
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इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार दुनिया में सबसे बेहतर टेस्टिंग करने वाले देशों से भी भारत बहुत आगे है। टेस्टिंग के मामले में जापान का सबसे अधिक उदाहरण दिया जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि जापान एक मरीज को ढूंढने के लिए 11.7 टेस्ट करता है। इसी तरह एक मरीज के लिए इटली औसतन 6.7 टेस्ट, अमेरिका 5.3 टेस्ट और ब्रिटेन 3.4 टेस्ट कर रहा है। वहीं भारत को एक मरीज ढूंढने के लिए औसतन 24 टेस्ट करने पड़ रहे हैं। इस तरह प्रति मरीजों की संख्या के हिसाब से भारत दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में कई गुना अधिक टेस्ट कर रहा है। इतना ही नहीं भारत कोरोना से निपटने के लिए कोरोना से अछूते इलाकों में भी सर्दी, खांसी, जुकाम और सांस से संबंधित बीमारियों से ग्रसित लोगों का कोरोना टेस्ट कर रहा हैं, जबकि अन्य देशों में ऐसा नहीं है। देशवासियों की सुरक्षा के मामले में मोदी सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की भी सुनने को तैयार नहीं है, इसीलिए तो जब डब्ल्यूएचओ कह रहा था कि फेस माक्स लगाना जरूरी नहीं है, तब देश में फेस माक्स लगाना जरूरी कर दिया गया, जिसका संक्रमण रोकने में फायदा भी मिल रहा है।
कोरोना संक्रमण की गंभीरता को जानते हुए भारत ने 17 जनवरी से ही चीन से आने वाले यात्रियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी थी। और भारत में कोरोना के 550 मरीज सामने आते ही मोदी सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन जैसे तमाम फैसलों को अमली जामा पहना दिया। इस वजह से देश में प्रति लाख जनसंख्या में मरीजों की संख्या दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। भारत में 10 लाख की जनसंख्या पर नौ मरीज हैं। वैश्विक औसत 267 मरीजों का है। देश के 736 जिलों में से 325 में संक्रमण का कोई मामला सामने नहीं आया है। 28 जिले ऐसे हैं, जहां पहले कोरोना के मरीज मिले थे, लेकिन पिछले 14 दिन से यहां नए मामले नहीं आए हैं। देश में वायरस के कम्युनिटी ट्रांसमिशन का अब तक कोई मामला नहीं सामने आया है। अगर देश में हालात थोड़े−बहुत ज्यादा खराब हुए हैं तो इसके लिए दिल्ली की निजामुद्दीन जमात और उससे जुड़े लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं जो आज भी कोरोना कैरियर बने घूम रहे हैं। यही लोग आज भी कोरोना महामारी को भी धार्मिक रंग देने में लगे हैं। हिन्दुस्तान में आकर अगर कोरोना की रफ्तार थोड़ी धीमी हो जाती है तो इसके लिए केन्द्र की मोदी सरकार के साथ−साथ देश की तमाम राज्य सरकारों को भी पूरा श्रेय जाता है, जो दलगत राजनीति से उठकर कोरोना से लड़ रहे हैं।
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बहरहाल, इतना सब होने के बाद भी अगर कथित गांधी परिवार को यही लगता है कि मोदी सरकार कोरोना महामारी से निपटने में असफल साबित हो रही है तो फिर इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। संकट की इस घड़ी में गांधी परिवार मोदी सरकार के साथ खड़े होने को तैयार नहीं है। इसके उलट गांधी परिवार उलटी−सीधी बातें और अफवाह फैलाकर जनता को उकसाने का काम रहा है। एक तरफ सोनिया गांधी कहती हैं कि देश की जनता लॉकडाउन का पालन करें तो दूसरी तरफ राहुल गांधी कहते हैं कि लॉकडाउन समस्या का समाधान नहीं है। इसी प्रकार जब राजस्थान का जिला भीलवाड़ा वहां के जिलाधिकारी के प्रयासों के चलते कोरोना मुक्त हो गया तो उसकी चर्चा पूरे देश में होने लगी तो सोनिया गांधी ने इसका श्रेय राहुल गांधी को दे दिया और इसे पूरे देश में लागू करने की बात करने लगीं, वहीं राहुल गांधी अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड को लेकर उत्साहित हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया है कि अगर देश को कोरोना मुक्त करना है वायनाड मॉडल पूरे देश में अपनाया जाना चाहिए। अब जनता किसी बात पर भरोसा करें। ऐसा की प्रलाप प्रियंका वाड्रा भी करती रहती हैं। गांधी परिवार जिस तरह का ढर्रा अपना रहा है, उससे यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं होगी उसकी सोच का दायर 'मुंह में राम, बगल में छूरा' जैसा है। गांधी परिवार कब क्या कह दे कोई नहीं जानता है। इस बात का अहसास राहुल गांधी की हालिया प्रेस कांफ्रेंस से हो गया, जहां वह पत्रकारों से रूबरू होते ही अनाप−शनाप बोलने लगे रहे और मीडिया खबरों की गिनती बढ़ाने के चक्कर में उनको 'महिमामंडित' करता रहा।
राहुल गांधी जब मीडिया के सामने आए तो हमेशा की तरह दार्शिनिक अंदाज में ज्ञान बखारना शुरू कर दिया। पहले तो वह बोले कि अभी मोदी से नहीं, कोरोना वायरस से लड़ने का समय है, लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने कह कहकर अपने सियासी इरादे जगजाहिर कर दिए कि लॉकडाउन कोरोना से निपटने की समस्या का समाधान नहीं। उन्होंने लॉकडाउन को जिस तरह खारिज किया उससे लोगों में भ्रम फैले तो हैरानी नहीं। क्योंकि पहले से ही एक वर्ग विशेष के लोग लॉकडाउन को लेकर गंभीर नहीं हैं। इसमें तब्लीगी जमात के लोग शामिल हैं तो ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो कहते फिरते हैं कि कोरोना, कुरान से निकला है,यह मुसलमानों का नुकसान नहीं करेगा। यह लोग न केवल ऐसी उल्टी−सीधी बातें सोच रहे हैं, बल्कि लॉकडाउन का हर संभव तरीके से उल्लंघन भी कर रहे हैं। फेस माक्स न लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग की अनदेखी यही लोग कर रहे हैं। अच्छा होता की राहुल गांधी ऐसे लोगों के लिए भी कुछ कहते जो कोरोना कैरियर बन गए हैं। आज यदि कोरोना के खिलाफ लड़ाई कठिन हो गई है तो जमातियों के घोर गैर जिम्मेदाराना आचरण के कारण ही। राहुल जिस तरह की नासमझी दिखा रहे हैं, उससे तो भगवान ही बचाए। उम्मीद यही की जानी चाहिए है कि लोग राहुल गांधी की राय से प्रेरित नहीं हों। अगर भारत कोरोना के भयावह से एक हद तक बचा हुआ है तो लॉकडाउन इसका प्रमुख एक कारण है।
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वर्षो से कांग्रेस और राहुल गांधी अपने आप को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करते रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अगर आज राहुल गांधी पीएम की कुर्सी पर बैठे होते तो वह कैसे−कैसे फैसले लेते। राहुल गांधी तब लॉकडाउन को गैर जरूरी बता रहे हैं जबकि चिकित्सक, मीडिया एवं बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं तमाम देशों की सरकारें भी लॉकडाउन को कोरोना से निपटने के लिए सबसे बड़ा हथियार मानती हैं। अगर देश में समय रहते लॉकडाउन नहीं किया जाता तो 15 अप्रैल तक आठ लाख से अधिक कोरोना मरीज हो सकते थे? राहुल को कुछ पढ़−लिखकर मीडिया के सामने आना चाहिए। भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देश कोरोना संक्रमण पर काबू पाने के लिए लॉकडाउन का ही सहारा ले रहे हैं। न जानें राहुल गांधी कैसे इस नतीजे पर पहुंच गए कि लॉकडाउन से बात नहीं बनने वाली है? राहुल ने लॉकडाउन की महत्ता को नकारते हुए इस पर जोर दिया कि ज्यादा से ज्यादा लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण किया जाना चाहिए। निःसंदेह यह समय की मांग भी है, ऐसा ही किया भी जा रहा है। बीते कुछ दिनों में स्वास्थ्य परीक्षण के काम में काफी तेजी आई है। मगर दुर्भाग्य यह है कि राहुल गांधी एक तरफ कुछ सुझाव देते हैं तो दूसरी तरफ इन सुझावों का अपनी ही बातों से खंडन भी कर देते हैं। एक ओर राहुल परीक्षण किट की कमी को स्वाभाविक भी मान रहे हैं और दूसरी ओर यह भी कह रहे हैं कि परीक्षण बढ़ाने का कोई न कोई तरीका निकालना होगा। क्या यह बेहतर नहीं होता कि वह इस तरीके के बारे में कुछ बताते? यह सच है कि कोरानो महामारी से निपटने के लिए बहुत से काम किए जाने की जरूरत है, लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि अगर हमें किसी बीमारी से कैसे निपटा जाना है यह पहले ही पता हो तो फिर महामारी जैसे हालात ही पैदा नहीं होंगे। कोई बीमारी महामारी का रूप तो तभी लेती है जबकि हम उसके रोकने के उपायों से अनभिज्ञ रहते हैं। इसी प्रकार राहुल गांधी से यह ही अपेक्षा की जाती है कि उन्हें देश के सीमित संसाधनों से भी परिचित होना चाहिए। अगर वह सब कुछ जानते और समझने के बाद भी राहुल गांधी अनाप−शनाप बयानबाजी करेंगे तो उन पर यह अरोप तो लगेंगे ही कि संकट की इस घड़ी में भी वह मोदी का विरोध करने के चक्कर में देश का विरोध और नुकसान करते जा रहे हैं।
- संजय सक्सेना