निजीकरण समस्या का हल नहीं, सार्वजनिक बैंकों के प्रशासन में व्यापक सुधार की जरूरत

By दीपक गिरकर | Aug 13, 2020

बैंकिंग विश्लेषकों के अनुसार सार्वजनिक बैंकों को वित्तीय वर्ष 2020-21 में नियामकीय शर्त पूरी करने के लिए अर्थात् बैंकों के परिचालन के लिए कम से कम 50 हजार करोड़ रूपये की जरूरत होगी। सरकार ने अभी तक सार्वजनिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए कोई घोषणा नहीं की है। सरकार के पास फंड की कमी है। जो सार्वजनिक बैंक बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, सरकार उन सार्वजनिक बैंकों की हिस्सेदारी बेचने के लिए निजीकरण के प्रस्ताव पर काम कर रही है। जो बैंक नियामकीय शर्त को पूरी नहीं कर पाएंगे उन बैंकों का परिचालन रूक जाएगा और सरकार ऐसे कमजोर बैंकों का निजीकरण करती चली जायेगी। सार्वजनिक बैंकों में यदि सरकार को अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करनी हो या निजीकरण करना हो तो सरकार को पहले बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन करना होगा। सरकारी सूत्रों के अनुसार पहले चरण में बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, पंजाब एंड सिंध बैन का निजीकरण किया जाएगा। जिन बैंकों का विलय नहीं हुआ हैं, सरकार उन बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। निजीकरण में एक बहुत बड़ी बाधा है वह है इन बैंकों का एनपीए। क्या सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण ही रामबाण इलाज है? सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना समस्या का समाधान नहीं है, निजीकरण से वास्तविक समस्या छिप जायेगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भी निजी क्षेत्र के बैंक दिवालिया हुए थे और उनका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में विलय किया गया था। सरकारी बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढाँचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। सार्वजनिक बैंकों की समस्या केवल प्रभावी व कठोर विनियमन की कमी की है। आज बैंकिंग उद्योग को निजीकरण की नहीं बल्कि सार्वजनिक बैंकों के कामकाज की पारदर्शिता, प्रभावी विनिमयन और सुपरविजन की ज़रूरत है, जिससे बैंकों के बढ़ते एनपीए पर नियंत्रण हो सकें और उनकी वसूली हो सकें।

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नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अपने पिछले कार्यकाल के दौरान ही वित्तीय क्षेत्र की बेहतरी के लिए व्यापक कदम उठाए गए थे और अपने दूसरे कार्यकाल में भी सरकार वित्तीय क्षेत्र में सुधारात्मक रणनीति बनाने में और इस रणनीति को क्रियान्वित करने में जुट गई है। एनपीए के बढ़ते मामलों को देखते हुए बैंकों पर दबाव बनाने के उद्देश्य से सरकार ने रिजर्व बैंक को अधिक शक्तियां प्रदान की हैं उसी का नतीजा है कि आरबीआई सख्त प्रावधानों के साथ सामने आया है। मोदी सरकार ने दिवालिया क़ानून इनसोल्वेंसी एवं बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) को सख़्त बनाया है। रिजर्व बैंक ने बैंकों को निर्देश दिए हैं कि चुनिंदा डिफॉल्टर्स की सूचना हर सप्ताह रिजर्व बैंक को दे।


वित्तीय घोटालों की जांच के लिए सीबीआई बैंकिंग, विदेशी विनिमय और कर विशेषज्ञों की मदद ले रही है। मोदी सरकार ने बैंकों से लोन के तरीके को एवं आस्तियों की गुणवत्ता को और अधिक पारदर्शी बनाया है। रिजर्व बैंक ने देनदारी में चूक के मामलों की रिपोर्टिंग को तिमाही की बजाए मासिक कर दिया है। वित्त मंत्रालय ने पारदर्शिता लाने के लिए बैंकों से उन कर्ज़दारों की सूची जारी करने के लिए कहा गया है, जिनके कर्ज़ माफ़ किए गए हैं। 21 सरकारी बैंकों में से 11 बैंक रिजर्व बैंक की निगरानी में एमर्जेन्सी प्रोग्राम के तहत रखे गए थे। इन पर नया कर्ज़ देने से रोक लगाई गई थी। अब बैंकों को बड़े डिफॉल्ट को सुधारना ज़रूरी होगा क्योंकि 5 करोड़ रूपये से ज़्यादा लोन वाले डिफॉल्ट को बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक को हर हफ्ते बताना होगा। नीरव मोदी और पंजाब नेशनल बैंक के घोटालों के बाद सरकार ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक (एफईओ) को मंज़ूरी दी है। इसके तहत उन लोगों की संपत्ति जब्त होगी जो 100 करोड़ रूपये से अधिक की धोखाधड़ी करने के बाद क़ानून से बचते रहते हैं। इन अपराधियों को वापस लाना बड़ी चुनौती है। प्रत्यर्पण का क़ानूनी तरीका बहुत थकाऊ और इतना लंबा है कि इसमें कई साल लग जाते हैं। इसलिए सरकार ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक 2018 को मंज़ूरी दी है। मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही वित्तीय व्यवस्था में नियामक संस्थाओं की सहायता से स्वच्छता अभियान चला रही है। वर्ष 2017 में मोदी सरकार ने फर्जी कंपनियों के विरूद्ध कार्रवाई में बंद कंपनियों के खिलाफ एक एक्शन लिया था कि यदि बंद कंपनी का निदेशक बंद पड़ी कंपनी के बैंक खातों से पैसा निकालता है तो उसे 10 साल की जेल होगी। दो लाख 26 हज़ार शेल कंपनियों के खिलाफ सरकार ने कार्रवाई करते हुए उनके रजिस्ट्रेशन रद्द किए हैं। सेबी ने नए नियमों के तहत भगोड़े आर्थिक अपराधियों को किसी कंपनी में शेयर खरीदने या ओपन ऑफर में बोली लगाने से प्रतिबंधित कर दिया है। फर्जी कंपनियों के विरूद्ध चल रही मुहिम में कंपनियों के निदेशकों से केवाईसी की मांग की गई थी। कुल 33 लाख सक्रिय निदेशकों में से सिर्फ़ 12 लाख से भी कम सरकार की नयी व्यवस्था नो योर कस्टमर्स (केवाईसी) की कसौटी पर खरे उतर पाए हैं। 21 लाख निदेशक केवाईसी में फेल हुए हैं, इसलिए सेबी इनके डायरेक्टर आइडेंटिफिकेशन नंबर (डीआईएन नंबर) फ्रीज कर रही है।

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एनपीए के जाल से और घाटे से उबरने का एकमात्र रास्ता है कि सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर अधिक निवेश किया जाए। विकसित देशों में मानव संसाधन पर ही अधिक निवेश किया जाता है। इसके अंतर्गत नये स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान में बैंकर्स अधिक काम के बोझ से लदे हुए हैं। बैंकों में कंप्यूटर, वित्त, वित्त विश्लेषक, क़ानूनी, औद्योगिक विशेषज्ञ की नियुक्तियां होनी आवश्यक है। बैंक प्रशिक्षण का उद्देश्य स्टाफ और बैंक की कार्यक्षमता एवं प्रभावशीलता को उन्नत बनाना होना चाहिए। बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों को यथार्थ प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है। उस प्रशिक्षण के अनुसार ही उनकी नियुक्ति की जानी चाहिए। बैंकों के हर स्तर पर प्रभावी संवाद प्रवाह को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। निरंतर बदलते हुए परिवेश में बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को व्यवसाय करते समय ऐसे वित्तीय निर्णय लेने चाहिए जिससे बैंकों, वित्तीय संस्थाओं की संपत्तियों, आस्तियों में निरंतर वृद्धि होती रहे लेकिन वृद्धि होना तो दूर, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को अपना अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन हो गया है। सार्वजनिक बैंक वाणिज्यिक बैंकों की तरह व्यवसाय क्यों नहीं करते हैं?


बैंकों की माली हालत सुधारने के लिए और बैंकों की गैर निष्पादित आस्तियों को कम करने के लिए सनदी लेखाकारों का नियमन एवं नियंत्रण बहुत ज़रूरी है। इसके लिए मोदी सरकार ने सनदी लेखाकारों पर शिकंजा कसना प्रारंभ कर दिया है। सरकार ने कंपनी अधिनियम में संशोधन करके अंकेक्षकों को और अधिक जवाबदार बनाया है। आरबीआई ने सनदी लेखाकारों और उनके द्वारा किए गए बैंकों के ऑडिट के दौरान की गई चूक (लेप्सेस) के कारण उनके विरूद्ध क्या कार्रवाई करनी है, इसके दिशा निर्देश जारी किए हैं। सनदी लेखाकारों और बैंकों में रिजर्व बैंक के इन नये दिशा-निर्देशों एवं नियमों से हड़कंप मचा हुआ है, क्योंकि अभी तक बैंकों और ऑडिट फर्म्स की सेटिंग जमी हुई थी। अब बैंकों को नयी ऑडिट फर्म्स की नियुक्ति करनी पड़ेगी। नये नियमों के अनुसार यदि कोई ऑडिट फर्म चूक (लेप्सेस) या नियमों का उल्लंघन करती है तो उस फर्म को ऑडिट कार्य से 10 वर्षों तक वंचित कर दिया जाएगा और 10 लाख रूपये आर्थिक दंड या ऑडिट फर्म ने जितनी फीस प्राप्त की है उसका दस गुना तक अधिकतम दंड देना पड़ेगा। मोदी सरकार ने बैंकों को 50 करोड़ रूपये से अधिक के सारे एनपीए खातों की जांच करने और इनमें किसी प्रकार की गड़बड़ी मिलने पर इसकी सूचना सीबीआई को देने के निर्देश दिए। साथ ही धनशोधन निरोधक अधिनियम (पीएमएलए), विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) और इस प्रकार प्रावधानों के उल्लंधन की जांच के लिए उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राजस्व खुफिया सूचना निदेशालय के साथ मिलकर चलने के निर्देश दिए हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में दबाव वाले कर्ज का पारदर्शी तरीके से पहचान का काम हुआ है, पहले उस पर पर्दा डाला हुआ था। मुद्रा लोन में बढ़ते एनपीए से सरकार ने मुद्रा लोन की पात्रता में परिवर्तन कर दिया है, जिसके तहत कुशल श्रमिकों को ही मुद्रा लोन का लाभ मिलेगा।


सरकारी बैंकों की परिचालन व्यवस्था में अभी सुधार की आवश्यकता है। बैंकिंग उद्योग में शीर्ष स्तर पर पेशेवरों की ही नियुक्ति होनी चाहिए। सरकारी बैंकों के बोर्ड में पेशेवर निदेशक होने चाहिए और इन निदेशकों को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए जिससे इनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके। व्यावहारिक रूप से बैंकों में शीर्ष प्रबंधन स्तर पर कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जिसकी वजह से गैर निष्पादित आस्तियों की समस्या और अधिक बढती जा रही है। नरसिम्हन समिति की सिफारिश थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रमुख और कार्यकारी निदेशकों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष का होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी सरकार को ध्यान देना होगा। वित्त मंत्रालय और सम्बंधित मंत्रालयों में अधिकारियों की नियुक्तियां और उन्हें बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं में प्रशिक्षण प्रदान करने की एक व्यवस्थित प्रणाली होनी चाहिए। सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर ध्यान देना होगा। विकसित देशों में मानव संसाधन पर ही अधिक निवेश किया जाता है। आरबीआई ने साइबर सिक्योरिटी और आईटी सिस्टम को मजबूत करने के लिए बैंकों से पर्याप्त संख्या में आईटी एक्सपर्ट की भर्तियाँ करने को कहा है। सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर अधिक निवेश किया जाए। इसके अंतर्गत नये स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान में बैंकर्स अधिक काम के बोझ से लदे हुए है। बैंकों में कंप्यूटर, वित्त, वित्त विश्लेषक, क़ानूनी, औद्योगिक विशेषज्ञ की नियुक्तियां होनी आवश्यक है। सरकारी बैंक आकर्षक सैलरी पैकेज और अन्य विशेष सुविधाओं का प्रोत्साहन देकर प्रतिभावान बैंकिंग प्रोफेशनल्स को आकर्षित कर सकते हैं। सरकार का वित्त मंत्रालय रिजर्व बैंक को निर्देशित करें कि वह सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के बैंक कर्मचारियों के एक समान नियम-कायदे बनाए।

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बैंकिंग क्षेत्र पर सरकार और आरबीआई का दोहरा नियंत्रण भी एक समस्या है। नरसिम्हन समिति ने 20 साल पहले ही इसकी सिफारिश की थी कि बैंकों पर दोहरा नियंत्रण समाप्त होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में इस पर ध्यान नहीं दिया गया। दोहरे नियंत्रण से बहुत बार विकट परिस्थिति निर्मित हो जाती है। बहुत बार सरकार और आरबीआई दोनों ही बैंकों पर नियंत्रण नहीं करती है। केंद्रीय बैंक का स्वतंत्र होना ज़रूरी है। उसकी स्वायत्तता सुनिश्चित की जानी चाहिए। सरकारी बैंकों के प्रबंधन में कसावट लानी होगी। अग्रिमों की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर एक विशेष मजबूत निगरानी तंत्र विकसित करने की जरूरत है। बैंकों के सतर्कता विभाग को सुदृढ़ करने की जरूरत है। बैंकिंग सतर्कता आयोग के गठन पर देश के नीति निर्माताओं को विचार करना चाहिए। वित्तीय धोखाधड़ी और घोटालों की जांच ऐसी एजेंसी को दे दी जाती है, जिसके पास विशिष्ट कौशल का अभाव है और इस प्रकार की वित्तीय धोखाधड़ी की जांच करने की क्षमता भी नहीं है। गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) में ही अन्य जांच एजेंसियों के समान मानव संसाधन की कमी है। कुछ कॉर्पोरेट्स द्वारा कई डिफॉल्ट किये गए लेकिन क्रेडिट ब्यूरो द्वारा ये डिफॉल्ट उनके क्रेडिट इतिहास में पंजीकृत नहीं किये गए हैं। संबंधित एजेंसियों की निष्क्रियताओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। फंसे कर्ज के प्रकरणों की संख्या को देखते हुए सरकार को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) की और शाखाएं खोलनी चाहिए तथा ट्रिब्यूनल की क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए। जोखिम प्रबंधन में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है। देश में एक स्वतंत्र ऋण प्रबंधन एजेंसी की आवश्यकता है। सरकार को बैंकों के आंतरिक प्रशासन में सुधार तथा विधिक प्रणाली को और बेहतर बनाने की दिशा में अतिशीघ्र काम करना होगा। सार्वजनिक बैंकों के क्षेत्र में निजीकरण की बजाए अनुशासन के साथ व्यापक सुधारों की दरकार है।


-दीपक गिरकर

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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