Yes Milord: राष्‍ट्रपति जी 90 दिन में कीजिए डिसाइड...SC ने टाइम कर दिया फिक्स

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By अभिनय आकाश | Apr 12, 2025

Yes Milord: राष्‍ट्रपति जी 90 दिन में कीजिए डिसाइड...SC ने टाइम कर दिया फिक्स

"हम गृह मंत्रालय की तरफ से निर्धारित समय-सीमा को अपनाना उचित समझते हैं... और निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल की तरफ से उनके विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है।"

किसी भी देश के संरक्षक, कार्यपालक अध्यक्ष राष्ट्रपति पर इस तरह की टिप्पणी आए तो बात ध्यान देने योग्य होती है। खासकर तब ये टिप्पणी देश की सबसे  बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट से आई हो। पूरा मामला और ऐसी ही अन्य टिप्पणियां, पक्ष विपक्ष की दलीलें आपको बताएंगे। आप देख रहे हैं प्रभासाक्षी की अदालतों के खबरों से जुड़ा वहां की कार्यवाही, दलीलोँ और देश के बड़े व अहम केस की जानकारी देने वाला कार्यक्रम यस मीलार्ड। 

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पिछले कुछ समय से राष्ट्रपति और राज्यपाल चर्चा का विषय बने हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार ये आदेश दिया है कि राष्ट्रपति को गवर्नर द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा। ये फैसला उन मामलों में लागू होगा जहां राज्य विधानसभा के विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजे जाते हैं। कोर्ट ने साफ कहा है कि अगर तीन महीने से ज्यादा देरी होती है तो इसके लिए ठोस कारण बताने होंगे और संबंधित राज्य को सूचित करना होगा। न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि की तरफ से राष्ट्रपति के विचार के लिए रोके गए और आरक्षित किए गए 10 विधेयकों को मंजूरी देने और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की थी। फैसला करने के चार दिन बाद, 415 पृष्ठों का निर्णय शुक्रवार को रात 10.54 बजे शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किया गया।

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सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु की चुनी हुई सरकार और वहां के राज्यपाल के अधिकारों को लेकर एक बड़ी रेखा खींची थी। तमिलनाडु की स्टालिन सरकार की एक याचिका पर फैसला देते हुए फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि राज्यपाल अपने पास विधयकों को लंबे समय तक रोक कर नहीं रख सकते। राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वो लोकतंत्र की संसदीय परंपरा का पालन करें। उनको जनता की इच्छा, जनता के मत का भी सम्मान करना होता है.. जो मत या इच्छा जनता अपनी सरकार चुनकर व्यक्त करती है। राज्यपाल को एक दोस्त, फिलॉस्फर और गाइड की तरह होना चाहिए। आपको किसी पॉलिटिकल पार्टी की अपेक्षाओं के हिसाब से नहीं, बल्कि उस संविधान के हिसाब से चलना चाहिए, जिसकी आपने शपथ ली है। आपको उत्प्रेरक बनना चाहिए, गतिरोध नहीं। ये कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के दस जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध बताया। कहा कि कानून के नजरिए से ये बिल्कुल ठीक कदम नहीं है। 

अनुच्छेद 201 के अनुसार, जब राज्यपाल किसी विधेयक को सुरक्षित रखता है, तो राष्ट्रपति उसे या तो मंजूरी दे सकता है या अस्वीकार कर सकता है। हालांकि, संविधान इस निर्णय के लिए कोई समयसीमा तय नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रपति के पास ‘पॉकेट वीटो’ नहीं है और उन्हें या तो मंजूरी देनी होती है या उसे रोकना होता है। अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अछूता नहीं कहा जा सकता। अगर बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो, तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा। अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा। दालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।


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