Pandharpur Wari 2024: लगभग 800 वर्षो से चली आ रही है ये वारी परंपरा, हर साल लाखों भक्‍त करते हैं पैदल यात्रा

By प्रभासाक्षी ब्यूरो | Jul 17, 2024

मराठी माणुस की मुख्य पहचान अगर है तो वह एक है छत्रपति शिवाजी महाराज और दूसरी पंढरपूर की वारी। आठसौ वर्षों से चलती आ रही है परंपरा, शायद ये दुनिया भर में अपनी तरह की एक अलौकिक उपक्रम है। निरंतरता, व्यापकता स्वीकृती और इन सब के पीछे भक्ती भाव की विविध विशेषताओं से समृद्ध महाराष्ट्र की पालखी समारोह की चर्चा दुनिया भर में चर्चा का विषय रहा है। लाखों वारकरी (श्रद्धालु) हाथ मे ढोल, मुख में हरिनाम, विठू माऊली का उद्घोष करते समय अपनी भक्ति-भाव में लीन हो जाते है, और इस भक्तीमय वातावरण में विठ्ठल के दर्शन के लिए पंढरपूर की और निकल पडते हैं |


पंढरपूर की पालखी यात्रा जिसे पंढरपूर वारी भी कहते हैं, एक प्राचीन धार्मिक यात्रा है। यह यात्रा महाराष्ट्र मे पुणे (आळंदी) और देहू से प्रारंभ होती है जो सोलापूर जिले के पंढरपूर मे भगवान विठ्ठल के चरणों मे संपन्न होती है। पंढरपूर की पालखी यात्रा को पंढरपूर की वारी भी कहते है। मराठी शब्द वारी का अर्थ है धार्मिक यात्रा करना और जो भक्तिभाव से अपने धार्मिक स्थान की यात्रा बार-बार करता है उसे वारकरी कहा जाता है

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महाराष्ट्र के सांस्कृतिक और सामाजिक वैभव का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार अर्थात पंढरपूर की वारी है। लगभग 800 वर्षो से चली आ रही है ये “वारी परंपरा” महाराष्ट्र की चैतन्यता का मूल स्त्रोत है। महाराष्ट्र की भूमि महान संत-महात्माओं की पवित्र भूमि रही है।


सोलापूर जिले के पंढरपूर तहसील मे स्थित विठ्ठल मंदिर मे आषाढ महीने के ग्यारवें दिन (एकादशी) भगवान विठ्ठल अर्थात भगवान श्रीकृष्ण के एक रूप की भव्य पूजा होती है। जिसे राज्य के मुख्यमंत्री पत्नी सहित विधिवत पूजा में बैठते हैं।


विठ्ठल संपूर्ण महाराष्ट्र के लोक विलक्षण देवता है

चराचर और फुल-पत्तों में समाए विठ्ठल भेदभाव से परे हैं। जिसकी वजह से उनके चरणों में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है। विठ्ठल के निर्माण की कथा स्त्री-प्रधान है, कदाचित यह किवदंती भी हो सकती है।

 

एक बार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी नाराज हुई और दिंडीखन में आ गई। दिंडीखन जिसका अर्थ है दंडकारण्य! महाराष्ट्र का प्राचीन नाम........ किसी ने पत्नी का पीछा छोड दिया हो और दूसरी पत्नी बनाई हो | लेकिन विठ्ठल (श्रीकृष्ण का एक रुप) तो अद्भूत रसायन है....... विश्व की दृष्टि से अद्भुत है। ऐसा कहा जाता है की पत्नी को समझाने के लिए आए, किंतु नाराज रुक्मिणी दौंड में निवास करने लगी।

 

रुक्मिणी की खोज करते करते विठ्ठल वहाँ पहॅुचे। रुक्मिणी को समझाया और वापस लोटते समय उन्हें अपने भक्त पुंडलिक की याद आई। संत पुंडलिक को दर्शन देने, वे उनके घर पहॅुंचे। संत पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा मे इतने व्यस्त थे की उन्हें विठ्ठल के आने का पता ही नहीं लगा। ऐसे मे जब विठ्ठल ने उने पुकारा तब वे आए और विठ्ठल की ओर ईट रखते हूए बोले की, भगवान इस ईट पर प्रतीक्षा कीजिए और मैं थोडी देर में अपने माता-पिता की सेवा करके आता हूं। ऐसा बोलकर वह फिर से अपने माता पिता की सेवा में लग गए। संत पुंडलिक की सेवा भावना से खुश होकर भगवान श्रीकृष्ण अपने कमर पर हाथ रखकर ईट पर खड़े हो गए। बाद में जब भगवान श्रीकृष्ण ने संत पुंडलिक से वरदान माँगने को कहा तो, पुंडलिक ने उनसे इसी रुप में हमेशा के लिए रह कर भक्तों को दर्शन देने का निवेदन किया। इस निवेदन को भगवान ने स्वीकार कर लिया। ईट पर स्थापित भगवान को इसी कारण से भगवान विट्ठल के नाम से जाना जाता है। इस तरह भगवान विठ्ठल (भगवान श्रीकृष्ण का एक रूप) भक्तों के मन मे बसे और संत पुंडलिक की वजह से यह स्थान पुंडलिकपूर कहलाया जो आगे जाकर पंढरपूर हो गया।

 

'पावले पावले तुझे आम्हा सर्व, तुझ्या नको भाव होऊ देऊ'


ऐसे संत तुकाराम भगवान विठ्ठल को अपने अभंग द्वारा बिनती करते हैं। महाराष्ट्र के दैवत पंढरी के विठोबा का और भक्ति रस में डुबी चंद्रभागा का संबंध अटूट है। पंढरी की वारी और चंद्रभागा नदी मे पवित्र स्नान की अखंड परंपरा रही है। चंद्रभागा में स्नान से पावन हुए वारकरिओं का मन विठुराया के दर्शन से तृप्त हो जाता है। तृप्ती का यह आनंद महाराष्ट्र भर में फैला है, इसलिये नदियों की स्वच्छता की मोहीम में चंद्रभागा को नमन करने वाले 'नमामि चंद्रभागा' अभियान को राज्य सरकारने सुरू किया है।

 

परमेश्वर की भक्ती करने का हर इंसान का अधिकार है। यह विचार वारकरी संप्रदाय ने व्यक्त किया है। वारकरी संप्रदाय के संतों का नाम देखें तो इसमें सभी की समावेशकता दिखाई देती है। वारकरी संप्रदाय में ज्ञानदेव, नामदेव, शिंपी चोखोबा, बंका महाराज, नरहरी सोनार, सावता माली, गोरा कुंभार, सेन न्हावी, तुकोबा वाणी, एकनाथ इत्यादी संत हुए हैं। इसी तरह से मुक्ताबाई, जनाबाई, निर्मला, कान्होपात्रा, बहिणाबाई हे संत कवियत्री है। इन नामो का सांप्रदायिक महत्त्व के साथ ही सामाजिक महत्त्व भी है।

 

वारी का अलौकिक सफर

पंढरपूर वारी में हिंदू माह आषाढ की एकादशी (ग्यारस) याने की, ग्यारवहें दिन भगवान विठ्ठल का दर्शन करने हेतु महाराष्ट्र के अलग अलग स्थानों से लाखों श्रद्धालु याने की वारकरी पंढरपूर की और पैदल निकल पडते हैं। धार्मिक भावना से सरोबार होकर लोगों का समूह भजन-कीर्तन करते हुए ढोल-ताशे, मृदंग, तालवाद्य और अन्य संगीत वाद्य सहित भगवा झंडा थामे, महिलाओं के सर पर तुलसीवन या जल की घागर उठाये भगवान की भक्ति में मंत्रमुग्ध होकर, बगैर किसी भेदभाव के श्री हरी विठ्ठल के दर्शनों के लिए निकल पडते हैं।


यह यात्रा लगबग 250 किलोमीटर की होती है, जिसे इक्कीस दिन लगते हैं। यह भजन कीर्तन करते हुए अनेक संस्थाएं, इसी यात्रा में सम्मलित होती है, जिसे मराठी मे दिंडी कहते हैं। हर दिंडी अथवा समूह का एक अलग दिंडी क्रमांक होता है, जिसे उस समूह की पहचान होती है।


पावन पालखी की वारी

महाराष्ट्र राज्य तो संतो-महात्मा की भूमि है। यह पालखी इन्ही संतो के जन्मस्थान या समाधी स्थलों से प्रारंभ होती है। पालखी को सुशोभित कर, एक सुसज्जित बैलगाडी पर संतो की चरण पादुकाएं रखी जाती है। इन बैलगाडी को ताकतवर बैल खीचते है, जिने आकर्षक तरीके से सजाया जाता है। वैसे तो अनेक पालखियां पंढरपूर जाती है, लेकिन इन मे दो पालखी प्रमुख है। पहली पालखी संत तुकाराम महाराज की जो उनके जन्मस्थान देहू (पुणे) से होती है और दूसरी पालखी संत ज्ञानेश्वर की होती है जो पुणे के आळंदी (ज्ञानेश्वर महाराज की समाधी स्थल) से शुरू होती है।

 

यात्रा प्रारंभ होने से संपन्न होने तक कब और कहां खाना है, ठहरना है, दिन में कितना, किस मार्ग से चलना है, यह सब प्राचीन समय से निर्धारित है। राज्य प्रशासन के अलावा, बहुत सारे श्रद्धालु और संस्थाएं पालखी मे वारकरियों के लिए नाश्ता, पानी और भोजन की व्यवस्था करते हैं। इस वारी की खासियत यह है कि, लाखों श्रद्धालु पैदल यात्रा तो करते हैं, लेकिन पूरे अनुशासन, समता भाव, नम्रता तथा बिना किसी स्वार्थ के। केवल एक ही भावना लिए... की भगवान विठ्ठल या विठुराया हमारी भक्ती को कबूल करें और अपने चरण कमलों से जोडकर रखे। श्रद्धालु एक दूसरे को माऊली बुलाते हैं, माऊली शब्द की व्यापकता को दो पंक्तियों में व्याख्यायित कर दर्ज करना संभव नहीं है। माऊली शब्द का अर्थ ही है माँ।

 

भगवान विठ्ठल की आरती/ महापूजा

आषाढी एकादशी के दिन लाखों श्रद्धालु पंढरपूर मे पहॅुचकर चंद्रभागा नदी मे पवित्र स्नान करते हैं और ब्रह्ममुहूर्त मे तडके दो 2.20 बजे भगवान श्री विठ्ठल की पूजा मुख्यपाद्दे और आद्य सेवकों से इसका आरंभ होता है। यह पूजा 3.20 पर संपन्न होती है। इस पावन अवसर पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सहपत्नी पूजा मे बैठते है और एक वारकरी दांपत्य का भी इस पूजा मे बैठने के लिए चयन होता है।


विठूराय को भोग सुबह 10.45 बजे मध्यान्हपूजा प्रारंभ होती है। इसमे पादप्रक्षालन, गंधलेपन कर पुष्पहार अर्पित कर, पुरण शक्करभात, श्रीखंड पुरी, खीर, बेसन लड्डु, पंचपकवानो का भगवान को भोग अर्पण किया जाता है।

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