हमारे समाज में यह उपदेश खूब दिया जाता है भगवान ने सबको एक जैसा बनाया, सब एक समान हैं। इंसान की दखल के कारण यह उतना ही झूठ लगता है जैसे कहा जाता है कि कानून की नज़र में सब एक समान हैं। अब तो यह गाना खूब गाया जा रहा है कि बेटा हो या बेटी एक ही बात होती है। दूसरी तरफ शास्त्रों और संस्कृति की लकीर पर चलने की बात की जाती है जहां पुत्र की ही बात होती है। राजाओं के यहां पुत्र रत्न पैदा न हों तो पूजा, हवन और यज्ञ करवाए जाते थे। उन रत्नों का विवाह कन्याओं से ही होता रहा ताकि नए पुत्र रत्न पैदा हों। वह बात अलग है कि आजकल नव दम्पति बच्चे ही पैदा नहीं करना चाहते लेकिन ऐसे माता पिता भी है जो पुत्र हासिल करने के लिए कई पुत्रियों का जन्म सह रहे हैं। फिलहाल तो बेटी के जन्म पर अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे चेहरे लटक जाते हैं।
बेचारा विकास, चतुर इंसान की सोच हर मामले में नहीं बदल पाया। व्यवहार की दलदल में उतर कर जानने की कोशिश की जाए तो पता चलता है लड़का होना आज भी बहुत सी सामाजिक सुविधाओं पर वरदहस्त प्राप्त करने जैसा है। लड़की का पैदा होना अब उतना बुरा नहीं माना जाता लेकिन परिवार में लड़का पैदा होना भी ज़रूरी माना जाता है। हैरानी इस बात की है जापान जैसे विकसित देश में भी ऐसा ही है। बेचारा विकास वहां भी पारम्परिक सोच नहीं बदल पाया। उनकी समृद्ध संस्कृति वैसी ही समृद्ध रही। दिलचस्प यह है कि वहां अगर गोद लेना हो तो अधिकांश जापानी पुत्र मोह में फंसे रहते हैं इसीलिए व्यस्क लड़के गोद लिए जा रहे हैं। लड़कियां नहीं।
जिन परिवारों में लडके पैदा नहीं हुए, कारोबार संभालने के लिए लड़कियां नहीं लड़कों को तरजीह दी जा रही है। इनमें घर जवाई बनने और बनाने के मामले भी शामिल हैं। कुछ भी कहो, क्या इसका मतलब यह नहीं लेना चाहिए कि दुनियाभर में पैतृक मानसिकता का बोलबाला है जो कई मामलों में चाहे वह पारिवारिक हों या व्यावसायिक, वर्चस्व बनाए रखती है। कई समाजों में इसे सहजता से कबूल किया जाता है। कहीं यह सचाई तो नहीं कि कुदरत ने मर्द को औरत से ज्यादा ताकतवर, आक्रामक, किसी भी मामले को निबटाने में सक्षम बनाया है। मर्दानगी का जलवा कायम है। हमारे यहां की सामाजिक तल्खियां भी तो यही साबित करती हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि लड़का लड़की को समान मानने में अभी वक़्त लगेगा।
- संतोष उत्सुक