होलिका दहन की परम्परा से जुड़े हुए हैं कई पौराणिक प्रसंग

By सुखी भारती | Mar 27, 2021

यूं तो हमारी भारतीय संस्कृति में वैदिक परम्परानुसार वर्ष भर में अनेकों त्योहारों के मनाए जाने का प्रावाधन है जिनका आधार कोई न कोई पौराणिक कथा एवं इसके अंदर छुपे आध्यात्मिक, वैज्ञानिक रहस्य हैं। जिनके द्वारा प्रभु की सर्वोत्तम रचना कहे जाने वाले मानव के जीवन का लक्ष्य एवं भगवान की भक्त पर अनन्य कृपा का भाव भी प्रकट होता है। इसी श्रृंखला में होली का त्योहार बसन्त ऋतु में मनाया जाता है। इसे रंगों का पर्व भी कहा जाता है एवं भारतीय परम्परानुसार यह द्विदिवसीय उत्सव है जिसके प्रथम दिवस लकड़ियों व गोबर के उपलों से निर्मित अग्निकुण्ड की परिक्रमा कर विभिन्न आहुतियाँ होम की जाती हैं। द्वितीय दिवस रंग, गुलाल, पुष्पों से एक दूसरे को रंगकर यह उत्सव बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

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होली पर्व प्रभु के अनन्य भक्त बालक प्रह्लाद की निष्काम पवित्र भक्ति, उसके पिता राक्षस हिरण्यकशिपु द्वारा नन्हें बालक को अमानवीस यात्नाएं देना एवं उनकी रक्षा हेतु भक्त वत्सल प्रभु द्वारा नरसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का संहार करने की पौराणिक गाथा पर आधरित है। उस समय इस धरा पर हिरण्यकशिपु का आतंकी साम्राज्य था। यह आततायी राक्षस स्वयं को ही ईश्वर मानता था। और प्रजा से बलात् अपनी पूजा करवाता था। परंतु स्वयं उसी का पुत्र प्रह्लाद एक उच्चकोटि का नारायण−भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद के अस्तित्व को खत्म करने के लिए कई प्रकार के षड्यंत्र रचे पर वह सबमें ही असफल रहा। अंततः हिरण्यकशिपु की बहन 'होलिका' जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, उसने प्रह्लाद को गोद में बिठाया और अग्नि की धधकती लपटों में जा बैठी। परंतु तभी प्रभु कृपा से ऐसी वायु चली कि प्रकृति ने भक्त की रक्षा हेतु अपना स्वभाव ही बदल लिया। प्रह्लाद चंदन की तरह शीतल रहा एवं होलिका जलकर स्वाहा हो गई।


बस तभी से भारत में 'होलिकोत्सव' मनाया जाने लगा। होलिका दहन के प्रतीक के रूप में स्थान−स्थान पर लकड़ियों को एकत्रित कर अग्नि लगाई जाती है। होलिका की चिताग्नि से छिटकती चिंगारियाँ प्रत्येक वर्ष भक्त की निष्काम भक्ति विजय उत्सव मनाती हैं। भक्ति की शक्ति पर अद्भुत विजय, विनम्रता की अहं पर जीत, सदाचार की दुराचार एवं अत्याचार पर चिरंजीवी रहने की अतुलनीय मिसाल को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है।


होलिकोत्सव काम दहन प्रसंग के उपलक्ष्य में-


दक्षिण भारत के कई राज्यों जैसे तामिलनाडु आदि में होली कामदहन प्रसंग के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। यह कथा उस समय की है, जब राजा दक्ष के यज्ञ में देव आदि देव भगवान महादेव शिव का तिरस्कार न सह पाने के कारण देवी सती स्वयं को यज्ञ कुण्ड में छलांग लगाकर स्वाहा कर लेती हैं। उनकी विरह में भगवान शिव अखण्ड समाधि में प्रवेश कर जाते हैं। उधर देवी सती का हिमवान व मैना की पुत्री पार्वती के रूप में पुनर्जन्म हो जाता है। जो भगवान शिव जी को पुनः पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तप−साधना में उतर जाती हैं। अन्य और भी बहुत सारे कारण होते हैं जिनके चलते समस्त देवगण भगवान शिव की समाधि भंग करने का प्रयास करते रहते हैं। अपने इस कार्य की सिद्धि हेतु वे मनमोहक कामदेव का चयन करते हैं। कामदेव सुंदर पुष्पों का मुकुट पहन कर, ईख का धनुष बनाकर समाधिस्थ शिव पर अपना बाण चला देते हैं। जब वह बाण उनके हृदय को भेदता है तो महादेव क्रोधित हो जाते हैं एवं वीतरागी भोले शंकर जी का तीसरा नेत्र खुल जाता है। और उस तीसरे नेत्र से जाज्वल्यमान भयंकर अग्नि प्रस्फुटित होती है। जो कामदेव को वहीं पर ही भस्मीभूत करके रख देती है। कामदेव के भस्मीभूत होते ही उनकी पत्नी रति घोर विलाप में डूब जाती है एवं महादेव से अपने पति को पुनः जीवन दान देने हेतु प्रार्थना करती है। दयानिधि देव आदि देव महादेव प्रसन्न होकर कामदेव को रति के आग्रह पर पुनर्जीवित कर देते हैं। परंतु मात्र एक छाया के रूप में, दैहिक रूप में नहीं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने ऐसा इसलिए किया ताकि 'काम' केवल मानसिक तौर पर संवेदना या प्रेम के रूप में ही अस्तित्व में रहे। दैहिक वासना का रूप कदापि प्राप्त न कर ले।

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इसी मर्मभेदी इतिहास के आधार पर दक्षिण भारत में होली 'कामविलास' व 'काम−दहनम्' के रूप में मनाई जाती है। यह दक्षिण भारतीय होली भी अखण्ड भक्ति व तप साधना की जीत का ही प्रतीक है। जब एक भक्त निष्ठा व भावना से भरपूर होकर भगवान की ओर कदम बढ़ाता है तो फिर काम−वासना के जहरीले दंश उसे विचलित नहीं कर पाते। साधक अपनी साधना−तप के बल पर ऐसे निकृष्ट वेगों को नष्ट कर देता है। और काम−दहनम प्रसंग हमें अपनी दृढ़ भक्ति से इन्हीं काम वेगों से बाहर आने का संदेश देता है। 


होलिकोत्सव राक्षसी वृति पर सरलता की विजय गाथा के रूप में−


यह विलक्षण गाथा भविष्यपुराण में दर्ज की गई है। राजा रघु के राज्य में धुंधि नाम की बहुत ही करूर राक्षसी निवास किया करती थी। जिसे यह वरदान प्राप्त था कि उसे न तो कोई देव मार सकता है, न ही कोई अस्त्र−शस्त्र, न सर्दी की ठिठुरन, न गर्मी का ताप एवं न ही बरसात की कंटीली बौछारें उसका कुछ बिगाड़ सकती हैं। इस वरदान के चलते वह बहुत ही अत्याचारी, आतताई व उद्दंड हो गई। जब मानव समाज के लिए धुंधि की प्रताड़नाएं असहनीय हो गईं तो राजा रघु अपनी प्रजा को त्रास मुक्त करने हेतु उसकी मृत्यु का उपाय खोजने लगे। 


अंततः राजा रघु के कुलपुरोहित ने उनका योग मार्गदर्शन करते हुए कहा कि− 'हे राजन! आपका यह प्रयोजन सरल हृदय बालक ही सिद्ध कर पाएँगे। अतः अपने नगर के बालकों को प्रेरित करो कि वे लकड़ियां व सूखी घास एकत्रित कर एक सामूहिक यज्ञ का आयोजन करें और सब मिलकर समस्वर मंत्रोच्चारण करते हुए आहुतियां डालें एवं जोर−जोर से तालियां बजाएं। जितना हो सके उतनी ऊँची आवाज में मंत्रोच्चारण करें। कहा जाता है कि इन सब बालकों के सामूहिक प्रयास से ही वह राक्षसी धुंधि नगर छोड़कर वहाँ से सदा के लिए पलायन कर गई। ऐतिहासिक गणना के अनुसार यह घटना भी होली के दिन ही घटित हुई थी। अंततः इसे भी होलिकोत्सव के साथ जोड़ दिया गया।

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भगवान कृष्ण द्वारा पूतना का वध भी होलिका दहन के दिन किया गया−माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण जी को विष मिश्रित दूध का सेवन करवाने वाली पूतना का वध भी बाल गोपाल कन्हैया ने इसी दिन किया था। इसलिए ब्रज में आज भी कई स्थानों पर होलिकोत्सव में पूतना का पुतला जलाने का विधान है।


होलिकोत्सव वैदिक काल में−वैदिक काल में यह पर्व 'विश्वदेव−पूजन' के रूप में मनाया जाता था। जिसमें हमारे ऋषि अग्नि देव का यज्ञ अग्नि के रूप में आह्नान करते थे। मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के बीच गेहूँ, जौ, चना, बाजरा, तिल, आदि के बीज अग्नि कुण्ड में स्वाहा किए जाते थे। इन सबके पीछे उनकी यही भावना होती थी कि वातावरण पवित्र व रोग मुक्त हो और समस्त मानव सुखी हों−


सर्वे भवन्तु सुखिन, 

सर्वे संतु निरामया, 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुख भागभ्सवेत।


हमारे ऋषि चाहते थे कि समस्त विश्व के लोग सुखी व निरोग रहें। सबका जीवन मंगलमय हो कोई भी दुःखी न रहे की मंगलमय कामना से ओतप्रोत हो वे इस दिन ऐसे यज्ञ किया करते थे। 


-सुखी भारती

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