कुछ दिन पहले जब मुझे राजेन्द्र गट्टानी का व्यंग्य कविता संग्रह “एक पाव सच” प्राप्त हुआ तो दो कारणों से उसे पढ़ने और फिर कुछ लिखने की उत्कंठा हुई। प्रथम तो यह कि श्री गट्टानी दसाधिक वर्षों से परिचित हैं लेकिन उनके कवि रूप से परिचय दो वर्ष पहले ही हुआ था। दूसरा उनका यह सद्य प्रकाशित कविता संग्रह एक व्यंग्य संग्रह है इसलिए एक व्यंग्यकार के नाते उनके संग्रह को पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सका। पुस्तक का व्यंजनात्मक शीर्षक भी पुस्तक के व्यंग्य संग्रह होने की ओर इंगित करता है अतएव 43 कविताओं से सज्जित 102 पृष्ठों की इस पुस्तक को एक बैठक में ही पढ़ गया।
शीर्षक कविता “एक पाव सच” आज के समय का सच है जिससे सब परिचित हैं। जिस सच से सब परिचित हों उसे कविता में ढालना अचरज पैदा नहीं करता लेकिन शब्दों की बुनावट और कहन की शैली ही कविता को विशिष्ट बनाती है। यह कविता इस मायने से विशिष्ट बन गई है और पाठक की चेतना को झकझोरने में सफल है। सच का आज समाज में क्या स्थान रह गया है इन पंक्तियों में पूरी बेबाक़ी से उभर कर आया है- “आठ दिन पहले / इसके पास एक ग्राहक आया था / और किसी की शवयात्रा में / राम नाम सत्य करने के लिए / एक पाव सच ले गया था / उसमें से भी बचाकर / वापस दे गया था /
संग्रह की “अ नाम की बीमारी” भी एक अच्छी रचना है। इस रचना में कवि ने एक सहज और सरल बात को नए कोण से देखा, परखा और उसे एक गंभीर रचना का स्वरूप दे दिया जो उनकी विँषय पर पकड़ और उसकी भलीभाँति पड़ताल करने प्रवृत्ति को दर्शाती है। कविता की शुरुआती पंक्तियाँ ही ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम हैं। देखिए-
तुमने सुना / अब वह हमारे बीच नहीं रही / कौन / अरे वही नैतिकता / ओह तो नैतिकता मर गई / कितनी भली थी बेचारी / मगर पिछले दिनों उसे लग गई थी / “अ” नाम की बीमारी / संग्रह में कुछ रचनाएँ छंदबद्ध भी हैं। ऐसी रचनाओं में झांकी हिंदुस्तान की, मेरा टेसू तथा सुखघाम माँगने आया हूँ प्रभावित करती हैं। ग़ज़ल के मीटर में लिखी गई “जीने का पैमाना सीख” रचना के कुछ शेरों में गंभीर बात भी जिस सहजता के साथ कही गई है वह क़ाबिले तारीफ़ है। देखिए -
बड़े बड़ों की पोल खोल दे,
ऐसा सच झुठलाना सीख ।
जैसी सरगम बजे उसी पर,
अपना गीत सुनाना सीख ।
संग्रह की अनेक कविताएँ मंचीय शैली की हास्य कविताएँ हैं जिन्हें मंच पर सुनने में ही आनंद आएगा। पढ़ने पर वे पाठक को गुदगुदा भले दें लेकिन उसके मन पर अमिट प्रभाव नहीं डाल पाएँगी। कुछ कविताएँ अत्यंत छोटी, क्षणिकानुमा तथा चुटकुलों के आधार पर रची गईं हैं। मेरा मानना है व्यंग्य संग्रह में इन कविताओं को शामिल करने की ज़रूरत नहीं थी। व्यंग्य एक गंभीर विधा है और चुटकुला आधारित कविताएँ खाने में कंकड़ आ जाने की तरह हैं। घास के लिए घॉंस और टोकते के लिए टोंकते शब्द भी अखरते हैं।
कुल मिलाकर राजेन्द्र गट्टानी जी का दूसरा कविता संग्रह “एक पाव सच” पढ़े जाने योग्य कृति है। कविताओं के विषय लीक से हटकर हैं जो इस संग्रह की एक अन्य विशेषता है। संग्रह की हर कविता के संग रेखाचित्र दिए गए हैं। कुछ अच्छे भी है और कविता की विषय वस्तु के अनुरूप भी, लेकिन फिर कहूँगा कि पुस्तक में रेखाचित्र नहीं होने चाहिए, ख़ासकर व्यंग्य संग्रह में। पढ़ते हुए पाठक स्वयं अपने मन में जो रेखाचित्र बनाता है वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है। वैसे यह लेखक की अपनी रुचि का मामला है।
पुस्तकः एक पाव सच
कविः राजेन्द्र गट्टानी
पृष्ठः 102
मूल्यः ₹ 250/-
प्रकाशकः ऋषिमुनि प्रकाशन, उज्जैन
समीक्षकः अरुण अर्णव खरे