माणिक चंद वाजपेयी ने धारदार लेखनी से भारतीय मूल्यों एवं राष्ट्रीय विचार को प्रतिष्ठित किया

By लोकेन्द्र सिंह | Oct 07, 2020

‘मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ’। कवि रामावतार त्यागी की यह पंक्तियां यशस्वी संपादक माणिकचंद वाजपेयी उपाख्य ‘मामाजी’ के जीवन/व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं। मामाजी ने अपने ध्येय की साधना में सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। उनका जीवन आज की पीढ़ी के लिए संदेश बन गया है। सादगी, सरलता और निश्छलता के पर्याय मामाजी ने अपने मौलिक चिंतन और धारदार लेखनी से पत्रकारिता में भारतीय मूल्यों एवं राष्ट्रीय विचार को प्रतिष्ठित किया। मामाजी उन विरले पत्रकारों में शामिल हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के मिशनरी स्वरूप को जीवित रखा। उन्होंने कभी भी पत्रकारिता को एक प्रोफेशन के तौर पर नहीं लिया, बल्कि उन्होंने पत्रकारिता को देश, समाज और राष्ट्रीय विचार की सेवा का माध्यम बनाया। सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर उन्होंने सदैव समाज को जागरूक किया। आपातकाल, हिन्दुत्व, जम्मू-कश्मीर, स्वदेशी, श्रीराम जन्मभूमि, जातिवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, कन्वर्जन, शिक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और देश के स्वाभिमान से जुड़े विषयों पर लेखन कर उन्होंने समाज को मतिभ्रम की स्थिति से बाहर निकाला। सामाजिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर उन्होंने विपुल लेखन किया है, जो आज भी प्रासंगिक है। स्वदेश में प्रकाशित उनकी लेखमालाएं ‘केरल में मार्क्स नहीं महेश’, ‘आरएसएस अपने संविधान के आईने में’, ‘समय की शिला पर’ इत्यादि बहुत चर्चित हुईं। ये लेखमालाएं आज भी पठनीय हैं।

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मामाजी माणिकचंद वाजपेयी का पत्रकारीय जीवन लगभग 40 वर्ष का रहा। वैसे तो पत्रकारिता में उनका प्रवेश भिंड में ही हो चुका था, जहाँ वे ‘देश-मित्र’ समाचारपत्र का संचालन कर रहे थे। लेकिन, एक सजग एवं प्रखर पत्रकार के रूप में उनकी पहचान स्वदेश से जुडऩे के बाद ही बनी। 1966 में विजयदशमी के शुभ अवसर पर इंदौर में दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ की स्थापना हुई। स्थापना वर्ष से ही मामाजी ‘स्वदेश’ से जुड़ गए लेकिन संपादक का दायित्व उन्होंने 1968 से संभाला। 17 वर्ष तक वे स्वदेश, इंदौर के संपादक रहे। अपने संपादकीय कौशल से उन्होंने मध्य प्रदेश की पत्रकारिता में भारतीयता की एक सशक्त धारा प्रवाहित कर दी। मामाजी की लेखनी का ही प्रताप था कि स्वदेश शीघ्र ही मध्य प्रदेश का प्रमुख समाचारपत्र बन गया। प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी स्वदेश की माँग होने लगी। ग्वालियर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया की प्रेरणा से दैनिक समाचारपत्र ‘हमारी आवाज’ प्रकाशित हो रहा था। 1970 में राजमाता ने इंदौर प्रवास के दौरान स्वदेश का प्रभाव देखा, तब उन्होंने सुदर्शनजी के सामने प्रस्ताव रखा कि ग्वालियर से भी स्वदेश का प्रकाशन होना चाहिए और राजमाता का समाचारपत्र ‘हमारी आवाज’ अब ‘स्वदेश’ के रूप में प्रकाशित होने लगा। इंदौर से सेवानिवृत्त होने के बाद मामाजी स्वदेश (ग्वालियर) के संपादक एवं प्रधान संपादक रहे और स्वदेश (भोपाल) के साथ भी सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े। मामाजी अपने जीवन के अंतिम समय तक स्वदेश से जुड़े रहे। पत्रकारिता जगत में मामाजी और स्वदेश, एक-दूसरे के पर्याय हो गए थे। 


मामाजी माणिकचंद वाजपेयी ने ध्येय के प्रति अपना जीवन समर्पित करके न केवल स्वदेश की स्थापना की बल्कि इस समाचारपत्र के माध्यम से उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता का वातावरण ही बदल दिया। मामाजी ने किस तरह के वातावरण में राष्ट्रीय विचार को केंद्र में रखते हुए स्वदेश को प्रतिष्ठा दिलाई और उनके लिए पत्रकारिता का क्या अर्थ था, यह समझने के लिए हमें उनके ही विचार प्रवाह से होकर गुजरना चाहिए। स्वदेश (ग्वालियर) के 25 वर्ष पूर्ण होने पर प्रकाशित स्मारिका में अपने आलेख में मामाजी लिखते हैं- “आजादी के बाद भी ‘स्व’ उपेक्षित और प्रताड़ित था। तुष्टीकरण की जिस आत्मघाती नीति के कारण देश का विभाजन हुआ, उसे ही कल्याणकारी साबित करने की होड़ लगी थी। छद्म धर्मनिरपेक्षिता का सर्वत्र बोलबाला था। राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया था। प्रगतिशीलता के नाम पर हिन्दुत्व यानी भारतीयत्व की खिल्ली उड़ाई जा रही थी। समाज को तोडऩे वाली नीतियों एवं कार्यक्रमों को संरक्षण मिल रहा था। पत्रकारिता भी इन्हीं तुष्टीकरण तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता वादियों की चेरी बनी हुई थी। वह गांधी, तिलक, अरविंद, दीनदयाल उपाध्याय और दादा माखनलाल चतुर्वेदी के मार्ग से हट गई थी, भटक गई थी। भारतीय राष्ट्रीयता के पर्यायवाची हिन्दुत्व के विचार से वह ऐसे बिचकती थी, जैसे लाल कपड़े को देखकर साड़। सड़ी लाश मानकर वह उससे घृणा करती थी। जनता भ्रमित थी तथा सत्ता निरंकुश। ऐसी विषम स्थिति में स्वदेश ने अपने जन्मकाल से ही राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़े होने का संकल्प लिया। उसी कण्टकाकीर्ण मार्ग को उसने अपने लिए चुना। उसके जन्म का उद्देश्य ही वही था”।


मामाजी ने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। प्रत्येक परिस्थिति में सच के साथ खड़े रहे। जब समूची पत्रकारिता भ्रमित होकर भारतीय मूल्यों के विरुद्ध ही प्रचार करने लगती, तब भी मामाजी की लेखनी भटकती नहीं। वे धारा के साथ बहने वाले लोगों में नहीं थे। गो-हत्या बंद करने की माँग को लेकर जब दिल्ली में हजारों साधु-संतों पर गोलियां चलाई गईं, तब पत्रकारिता में एक बड़ा वर्ग गो-भक्तों के विरोध में खड़ा था। जब पत्रकारिता के माध्यम से इन साधु-संन्यासियों एवं गो-भक्तों को सांप्रदायिक और दंगाई सिद्ध करने के प्रयत्न हो रहे थे, तब मामाजी ने मध्य प्रदेश में गो-भक्तों के पक्ष में आवाज उठाई। परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश में गोवंश हत्या को रोकने के लिए प्रभावी कानून बन गया। इसी तरह इंदौर में हिन्द केसरी मास्टर चंदगीराम के सम्मान में निकाली गई शोभायात्रा पर जब लीगी गुण्डों ने हमला किया, तब केवल मामाजी की कलम ने लीगी मानसिकता का पर्दाफाश किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन और तथाकथित बाबरी ढांचा गिरने पर भी मामाजी की लेखनी ने हिन्दू समाज को जागरूक किया तथा उन्हें कम्युनिस्टों के प्रोपोगंडा से भ्रमित होने से बचाया।

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वर्ष 1975 में मौलिक अधिकारों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या कर देश पर थोपे गए आपातकाल के दौरान सरकार के भय से प्रतिष्ठित समाचारपत्रों और संपादकों की कलम झुक गई थी लेकिन प्रखर राष्ट्रभक्त मामाजी भूमिगत रहकर भी लेखन कार्य करते रहे। इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरोध में स्वदेश मुखर ही रहा। परिणाम यह हुआ कि स्वदेश के कार्यालय पर ताला लगा दिया गया और संपादक यानी मामाजी के नाम मीसा का वारंट जारी हो गया था। पुलिस ने मामाजी को पकड़ कर जेल में डाल दिया। परंतु, धुन के पक्के मामाजी कहाँ मानते, उन्होंने जेल में बंदियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। मामाजी ने जेल में रहकर हस्तलिखित ‘मीसा समाचार पत्र’ निकालना प्रारंभ कर दिया। इमरजेंसी के दौरान लोकतंत्र के सिपाहियों को स्वतंत्र भारत की सरकार ने किस प्रकार की नारकीय यातनाएं दीं, इस पर तो उन्होंने एक अमर कृति ही तैयार कर दी। उनकी पुस्तक ‘आपातकाल की संघर्षगाथा’ लोकतंत्र की बहाली के लिए किए गए आंदोलन का प्रमाणित दस्तावेज है।   


मामाजी 1978 से 80 तक इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष भी रहे। उनके कार्यकाल में इंदौर प्रेस क्लब अपनी गतिविधियों के लिए काफी चर्चित हुआ। उन्होंने पुराने हो चुके बेकार कानूनों को खत्म करने की माँग इसी प्रेस क्लब के माध्यम से उठाई। पत्रकारों को प्रशिक्षण दिलाने के लिए वे प्रतिवर्ष कोई न कोई आयोजन कराते थे। पत्रकारिता को अपना कॅरियर बनाने वाले युवकों को वे बहुत प्रोत्साहित करते। मामाजी पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। मामाजी के संपर्क में रहकर अनेक युवाओं ने पत्रकारिता का ककहरा सीखा और इस क्षेत्र में खूब नाम कमाया लेकिन उन्होंने कभी किसी पर अपनी विचारधारा नहीं थोपी। सबका सहयोग ही किया।  


मामाजी का जन्म 7 अक्टूबर, 1919 को आगरा जिले के बटेश्वर गाँव में हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इसी गाँव से थे। बटेश्वर में मामाजी और अटलजी का घर आमने-सामने है। दोनों ही महापुरुषों का बचपन यमुना की गोद में अठखेलियां करते बीता है। 2002 में जब अटलजी प्रधानमंत्री थे, तब स्वदेश (इंदौर) की योजना से दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर मामाजी का अभिनंदन समारोह ‘अमृत महोत्सव’ का आयोजन किया गया। उस दिन भार-विभोर होकर छल-छलाती आँखों से भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भरी सभा में मामाजी के चरणस्पर्श करने की अनुमति माँगी, तब वहाँ स्पंदित कर देने वाला वातावरण बन गया। भारत की राजसत्ता त्याग, समर्पण और निष्ठा के पर्याय साधु स्वभाव के मामाजी के सामने नतमस्तक थी। यह मामाजी संबोधन से प्रसिद्ध व्यक्ति का नहीं वरन उस लेखनी का सम्मान था, जिसने हिन्दी पत्रकारिता में भारतीय मूल्यों को स्वीकार्यता दिलाई। वर्ष 2005 में पत्रकारिता एवं लेखकीय सेवाओं के लिए उन्हें कोलकाता में डॉक्टर हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। हालाँकि, यह सब सम्मान/पुरस्कार, उनके लिए कोई मोल नहीं रखते थे। मामाजी ने कभी अपने लिए सम्मान और पुरस्कार की आकांक्षा नहीं की। वे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस मंत्र को जीते थे, जिसमें कहा गया है कि कार्यकर्ता को ‘प्रसिद्धि परांगमुख’ होना चाहिए।


-लोकेन्द्र सिंह

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं)

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