By विजयेन्दर शर्मा | Nov 03, 2021
शिमला। भारतीय सेना के गौरवमयी इतिहास में मेजर सोमनाथ शर्मा का अपना एक विशिष्ट स्थान है। यह देश के पहले योद्धा रहे हैं,जिन्हें आजाद भारत का पहला परम वीर चक्र मिला। उनका नाता हिमाचल प्रदेश से रहा है।
हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के धर्मशाला के पास प्रसिद्ध चामुंडा मंदिर से सटे डाढ़ में उनके परिवार के लोग रहते हैं। मलां चौक से महज कुछ कदम दूर नगरी की ओर जाने वाली सडक़ के किनारे मेजर सोमनाथ शर्मा के वंशज आज भी रहते हैं। हालांकि उनके आवास को खोज पाना आसान नहीं है। पास पड़ोस के लोगों से पूछताछ करने पर यह स्थान आपको मिल जायेगा। मेजर सोमनाथ शर्मा के जन्म स्थान को लेकर हालांकि कांगड़ा जिला प्रशासन का दावा है कि उनका जन्म 31 जनवरी 1923 को कांगड़ा में हुआ। लेकिन दूसरी ओर डाढ़ में रह रही उनके परिवार की सदस्या राधिका सोनिक इसे गलत बताते हुए कहती हैं कि वह पैदा जम्मू में हुये थे। व कांगड़ा जम्मू प्रांत का ही उस समय हिस्सा था। यही वजह है कि उन्हें हिमाचल का माना जाता है।
राधिका सोनिक बताती हैं कि आजादी के बाद में उनका परिवार हिमाचल आया। यहां डाढ़ में सडक़ के किनारे पहले मेजर सोमनाथ की स्मृति में चलने वाले क्षय रोग निवारण अस्पताल व उसके बाद रिटार्यड चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल वी एन शर्मा का आवास व उससे आगे सोमनाथ शर्मा की भांजी राधिका सोनिक रहती हैं। जनरल वी एन शर्मा यहां कभी कभार ही आते हैं। लिहाजा यहां पैतृक संपत्ति की देखरेख राधिका सोनिक ही करती हैं। हालांकि यहां आसपास के लोग कुछ ज्यादा तो नहीं जानते, लेकिन अगर बड़े बुर्जुर्गों से बात करें, तो राधिका सोनिक के घर के बारे में लोग बता देते हैं। वहीं जनरल वीएन शर्मा के आवास पर एक चौकीदार जरूर तैनात है। लेकिन उन्हें इस परिवार के बारे में कुछ ज्यादा नहीं पता।
डाढ़ के लोग मेजर सोमनाथ शर्मा के बारे में बहुत कुछ बताते हैं। कांगड़ा घाटी ने देश को कई वीर सैनिक दिये हैं, जिनमें मेजर सामनाथ शर्मा भी एक हैं। वहीं मेजर सोमनाथ शर्मा की शौर्यगाथा भारतीय सेना आज भी बडग़ाम की लड़ाई के रूप में याद करती है। 31 अक्टूबर 1947 को सोमनाथ शर्मा की डेल्टा कम्पनी को वायु सेना द्वारा श्रीनगर में उतारा गया। यानि युद्ध शुरू होने के 10 दिन बाद। मेजर सोमनाथ शर्मा को 22 फरवरी 1942 को सेना में कमीशन मिला। व 3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को कश्मीर घाटी में बडगाम की ओर फाइटिंग पेट्रोल करते हुए आगे बढ़ना था। पाकिस्तानी कबिलाई लश्कर के 700 सैनिक भी गुलमर्ग की ओर से बडगाम की ओर बढ रहे थे। थोड़े समय में ही मेजर सोमनाथ की कम्पनी तीन ओर से दुश्मनों से घिर चुकी थी, साथ ही गोली-बारी व मोर्टार हमले में भारी मात्रा में कंपनी के सैनिक भी मरे गये।
मेजर सोमनाथ शर्मा को पता था की अगर वे दुश्मनों को नहीं रोक पाए तो पाकिस्तानी सेना सीधे श्रीनगर और हवाई अड्डा पर कब्ज़ा कर लेंगे, जहाँ से पुरे कश्मीर पर भी काबू पा लेंगे। और हवाई अड्डा हाथ से जाने पर भारतीय सेना का कश्मीर में आ पाना मुश्किल था। भारी गोलीबारी के बीच मेजर शर्मा अपने साथियों को बहादुरी से लडऩे के लिए प्रोत्साहित करने लगे और इस सब के लिए वे अपने आप को जोखिम में डाल कर अलग - अलग साथियों के पास जाते। जिन्होंने अलग - अलग जगह पर पोजीशन ले रखी थी। जब मेजर सोमनाथ शर्मा के काफ़ी सैनिक हताहत हो गये और लड़ाई करना और मुश्किल होता जा रहा था। अद्भुत साहस के साथ मेजर शर्मा अँधा-धुंध गोलियो के बीच दुश्मनों के सामने आकर एक हाथ से ही गोलियां चलते गये साथ ही उस एक हाथ से ही लाइट मशीन गन गन की मैगज़ीन भी बदलते गये। बडगाम युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा के एक हाथ की हड्डी टूटी हुई थी। यह चोट उन्हें युद्ध से पहले हॉकी खेलते समय लगी थी।
इसी लड़ाई के दौरान एक मोर्टार शैल उनके पास आकर फटा। मेजर सोमनाथ शर्मा ने वीरगति को प्राप्त होने से कुछ समय पहले एक रेडियो संदेश दिया ।दुश्मन हम से केवल 150 फीट की दूरी पर ही है, हमारे सैनिक बहुत अधिक संख्या में मारे गए है। हम बहुत ही विनाशकारी हालत में है। मैं एक भी इंच पीछे नहीं हटूंगा बल्कि आखिरी आदमी और आखिरी गोली तक लडूंगा। उन्होंने तीन नवंबर 1947 को जान देकर श्रीनगर एयरपोर्ट को दुश्मनों से बचाया था। उन्होंने अपने अदम्य साहस व वीरता के दम पर पाकिस्तानी ट्राइब फोर्सेज के 700 जवानों को रोक रखा था, जो लगातार मोर्टार दागकर भारतीय सेना पर हमला कर रहे थे। भारतीय सेना के पास गोला बारूद भी समाप्त हो गया था। इस तरह से लड़ते हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने दुश्मनों को 6 घंटे तक रोक लिया। इन 6 घंटों में कुमाऊ रेजिमेंट की चौथी बटालियन भी बडगाम पहुच गई। इस युद्ध में 700 दुश्मनों सैनिकों ने भारतीय सेना के 200 को हताहत किया परन्तु इस लड़ाई के कारण दुश्मन 6 घंटे तक आगे नहीं बढ़ सके, और इतना समय काफ़ी था भारतीय सेना की बटालियन कुमाऊ रेजिमेंट को श्रीनगर से बडगाम पहुचने के लिये।
अगर मेजर सोमनाथ शर्मा दुश्मनों को 6 घंटे नहीं रोक पाते तो दुश्मन श्रीनगर पर कब्जा कर लेते और उन्हें श्रीनगर से हटा पाना काफी मुश्किल होता। इस लिए मेजर सोम नाथ शर्मा ने पुरे श्रीनगर को बचाया। मेजर सोमनाथ अन्य सात सैनिकों के साथ शहीद हो गए। उन्हें दुश्मन का एक मोर्टार ने शहीद कर दिया। मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत 26 जनवरी 1950 को परमवीर चक्र दिया गया और वो इस पुरस्कार को पाने वाले प्रथम भारतीय बने। उनकी यादें आज भी ताजा हो जाती हैं राधिका सोनिक बताती है कि अगर आप कुमाऊँ की पहाडिय़ाँ नैनिताल आदि घूमने जायें, तो रानीखेत अवस्थित कुमाऊँ रेजिमेंट के म्यूजियम में अवश्य जाईयेगा...शौर्य की इस अनूठी दास्तान को करीब से देखने-जानने का मौका मिलेगा।
उन्होंने कहा कि जो लोग कश्मीर-वादी की सैर को हवाई-रास्ते से आते हों तो श्रीनगर एयरपोर्ट से बाहर निकलने के बाद तनिक ठिठक कर दो पल को हमारे हीरो मेजर सोमनाथ की प्रतिमा को सलाम जरूर दीजियेगा।...और जिन लोगों को कभी मौका मिले तो 4 कुमाऊँ के आफिसर्स-मेस में आने का,तो वह देखें , वो पहला परमवीर चक्र का असली पदक जो मेजर सोमनाथ के परिजनों ने मेस को सौंप दिया है ।
यही नहीं दिल्ली में उनके नाम पर सडक़ मार्ग है, जो आर के पुरम व बाहरी रिंग को जोड़ता है। वहीं सोमनाथ मेमोरियल पार्क भी है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला केडाढ़ में जहां मेजर सोमनाथ की स्मृति में डिस्पैंसरी चल रही है। वहीं हिमाचल सरकार ने डाढ़ से करीब बीस किलो मीटर दूर पालमपुर कस्बे में नगर परिषद के गेट के बाहर उनकी प्रतिमा स्थापित की है।
सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा थे। उनके एक भाई लेफटीनेंट जनरल सुरेन्दर नाथ शर्मा व दूसरे भाई वी एन शर्मा जो भारत के चीफ आफ आर्मी स्टाफ रहे। मनोरमा शर्मा व मेजर कमला तिवारी जैसी महिला सैन्य अधिकारी भी इसी परिवार ने दिये।
राधिका सोनिक बताती हैं कि उनके परिवार ने कई सैन्य अफसर दिये हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें गर्व होता है कि वह एक फौजी परिवार से हैं। व फौज देश के लिये अच्छी चीज है। न कि कुछ ओर है। सोमनाथ देश के हीरो थे। उन्होंने कहा कि मेजर सोमनाथ शर्मा मरने के लिए नहीं गए थे। वह जीतने के लिये गये थे। कश्मीर को उन्होंने आजाद कराया, यह महान कार्य था। उन्होंने यह काम जीत कर किया। उन्होंने बताया कि परम वीर चक्र का डिजाईन उनकी नानी सावित्रीबाई खनोल्वकर ने बनाया था। व यही चक्र बाद में सबसे पहले उनके ही परिवार के मेजर सोमनाथ शर्मा को मिला। उन्होंने कहा कि यहां डाढ़ में मेजर सोमनाथ शर्मा की स्मृति में 1953 में डिस्पेंसरी खोली गई थी, जो आज भी चल रही है। राधिका बताती हैं कि उन्हें देश ने बहुत दिया है। लेकिन वह चाहती हैं कि युवा पीढ़ी सेना में जाये।