भगवान गौतम बुद्ध की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं

By ललित गर्ग | May 07, 2020

बुद्ध पूर्णिमा न केवल बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये एक महत्वपूर्ण दिन है। इस साल यह 7 मई को है। बुद्ध पूर्णिमा को बुद्ध जयंती और उनके निर्वाण दिवस के रूप में जाना जाता है। यानी यही वह दिन था जब बुद्ध ने जन्म लिया, शरीर का त्याग किया था और मोक्ष प्राप्त किया। बुद्ध की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं है। उनका लोकहितकारी चिन्तन एवं कर्म कालजयी, सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक है और युग-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा। उनको सबसे महत्वपूर्ण भारतीय आध्यात्मिक महामनीषी, सिद्ध-संन्यासी, समाज-सुधारक धर्मगुरु माना जाता है। उन्होंने न केवल अनेक प्रभावी व्यक्तियों बल्कि आम जन के हृदय को छुआ और उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाए। उन्हें धर्मक्रांति के साथ-साथ व्यक्ति एवं विचारक्रांति के सूत्रधार भी कह सकते हैं। उनकी क्रांतिवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है, जिसने असंख्य मनुष्यों की जीवन दिशा को बदला।


गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया और अत्यन्त कुशलता से बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना, सद्चरित्र, पवित्रता, इंसानियत का विकास किया। इसका अहिंसा एवं करुणा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक लगा दी। उनका बौद्ध मत देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी ज्योति फैलाने लगा। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, बुद्धिवादी और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी व्यवस्था पर जोरदार प्रहार किया जाता है। यही धर्म आज भी दुःखी एवं अशान्त मानवता को शान्ति प्रदान करने में सक्षम है। ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिवाद पर प्रहार करते हुए यह लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास कर रहा है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

 

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संन्यासी बनकर गौतम बुद्ध ने अपने आपको आत्मा और परमात्मा के निरर्थक विवादों में फँसाने की अपेक्षा समाज कल्याण की ओर अधिक ध्यान दिया। उनके उपदेश अधिकतर सामाजिक एवं सांसारिक समस्याओं पर केन्द्रित रहे। यही कारण है कि उनकी बात लोगों की समझ में सहज रूप से ही आने लगी। महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज ही जुड़ा हुआ पाया। उनका मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा प्रहार किया और मानवता के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया।


सम्पूर्ण विश्व को बुद्ध की सबसे बड़ी देन है भेदभाव को समाप्त करना। यह एक विडम्बना ही है कि बुद्ध की इस धरती पर आज तक छूआछूत, भेदभाव किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। उस समय तो समाज छूआछूत के कारण अलग-अलग वर्गों में विभाजित था। बौद्ध धर्म ने सबको समान मान कर आपसी एकता की बात की तो बड़ी संख्या में लोग बौद्ध मत के अनुयायी बनने लगे। कुछ दशक पूर्व डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने भारी संख्या में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध मत को अंगीकार किया ताकि हिन्दू समाज में उन्हें बराबरी का स्थान प्राप्त हो सके। बौद्ध मत के समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देना आज भी बहुत आवश्यक है। मूलतः बौद्ध मत हिन्दू धर्म के अनुरूप ही रहा और हिन्दू धर्म के भीतर ही रह कर महात्मा बुद्ध ने एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी आन्दोलन चलाया।

 

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महात्मा बुद्ध सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे। उनका दर्शन अहिंसा और करुणा का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। उन्होंने केवल धर्म तीर्थ का ही प्रवर्तन ही नहीं किया बल्कि एक उन्नत और स्वस्थ समाज के लिए नये मूल्य-मानक गढ़े। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी बल्कि उनमें आये ठहराव को तोड़कर नयी क्रांति का सूत्रपात किया। बुद्ध ने कहा- पुण्य करने में जल्दी करो, कहीं पाप पुण्य का विश्वास ही न खो दे। सामाजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे। बुद्ध ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस दृष्टि से सभी समस्याओं का उत्स है- राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण करने, अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों को नीचा दिखाने, सत्ता और सम्पत्ति हथियाने के लिए विषमता के गलियारे में भटकता रहता है।


गौतम बुद्ध ने लगभग 40 वर्ष तक घूम-घूम कर अपने सिद्धांतों का प्रचार प्रसार किया। वे उन शीर्ष महात्माओं में से थे जिन्होंने अपने ही जीवन में अपने सिद्धांतों का प्रसार तेजी से होता और अपने द्वारा लगाए गए पौधे को वटवृक्ष बन कर पल्लवित होते हुए स्वयं देखा। गौतम बुद्ध ने बहुत ही सहज वाणी और सरल भाषा में अपने विचार लोगों के सामने रखे। अपने धर्म प्रचार में उन्होंने समाज के सभी वर्गों, अमीर गरीब, ऊँच नीच तथा स्त्री-पुरुष को समानता के आधार पर सम्मिलित किया।

 

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बुद्ध ने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा कि अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। उन्होंने अप्प दीपो भव- अपने दीपक स्वयं बनने की बात कही। क्योंकि दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है। जरूरत है उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए महात्मा बुद्ध के उपदेशों को जीवन में ढालने की। बुद्ध-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक बुद्ध को सीमित न बनाएं, बल्कि बुद्ध को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।


-ललित गर्ग

(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)

 

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