Khudiram Bose Death Anniversary: भारत के सबसे युवा बलिदानी थे खुदीराम बोस

By मृत्युंजय दीक्षित | Aug 11, 2023

क्रांतिकारी खुदीराम बोस भारत के ऐसे महान सपूत थे जिन्होनें सबसे कम आयु में भारत को आजादी दिलाने व अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न करने के लिये फांसी का फंदा चूम लिया। खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के एक गांव में बाबू त्रैलोक्य नाथ के घर पर हुआ था और माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बोस ने नौवीं कक्षा के बाद से ही पढ़ाई छोड़ दी थी। 


1900 के दशक के आरम्भ में अरबिंदो घोष और बहन निवेदिता के सार्वजनिक भाषणों ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान वे स्वतंत्रता आंदोलन में एक सक्रिय स्वयंसेवक बन गये। खुदीराम केवल 15 वर्ष के थे जब उन्हें ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ पर्चे बांटने के आरोप में पहली बार गिरफ्तार किया गया। 1908 में खुदीराम अनुशीलन समिति से जुड़ गये जो 20वीं सदी के आरम्भ में गठित एक क्रांतिकारी समूह था। अरबिंदो घोष और उनके भाई बीरेंद्र घोष जैसे राष्ट्रवादियों ने इस समिति का नेतृत्व किया। अनुशीलन समिति का सदस्य बनते ही खुदीराम पूरी तरह से क्रांतिकारी बन गये और उन्होंने यहीं से बम आदि बनाने और चलाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया। 


उस समय अग्रेंजों की ओर से भारतीयों पर घोर अत्याचार किये जा रहे थे जिससे आम भारतीयों में गहरा आक्रोष था। स्कूल छोड़ने के बाद बोस रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गये थे। उन्होंने बंगाल विभाजन का भी विरोध किया और युगांतर के सदस्य बनकर आंदोलन में हिस्सा लिया। उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से दुर्व्यवहार करते थे। ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर बिहार में तैनात था। वह छोटी -छोटी बातों पर भारतीयों को दंड देता था। अतः क्रांतिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया।

इसे भी पढ़ें: Bal Gangadhar Tilak Death Anniversary: बाल गंगाधर तिलक ने उठाई थी पूर्ण स्वराज की मांग, जानिए कुछ रोचक बातें

कोलकाता में प्रमुख क्रांतिकारियों की बैठक हुई। बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुंचाने की योजना पर गहन विचार विमर्श हुआ। बोस ने स्वयं को इस कार्य के लिए उपस्थित किया वह भी तब जब उनकी अवस्था बहुत कम थी। उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व सौंपा गया। दोनों युवकों को एक बम, तीन पिस्तौल व 40 कारतूस दिये गये। दोनों ने मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया। कुछ दिन तक किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात रहता था। अतः उस समय उसे मारना कठिन था। अतः उन्होनें उसकी दिनचर्या पर ध्यान दिया। किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था। दोनों ने उस समय ही उसको समाप्त करने का निर्णय लिया। 30 अप्रैल 1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गये। शराब और नाच गाना समाप्त करके लोग जाने लगे। अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली। दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। 


परन्तु दुर्भाग्य कि उस दिन किंग्सफोर्ड क्लब आया ही नहीं था। उस बग्घी में केवल दो महिलाएं वापस घर जा रही थीं, क्रांतिकारियों के हमले से वे यमलोक पहुंच गयीं। पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया। बग्धी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बतायी। खुदीराम और चाकी रात भर भागते रहे। वे किसी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुंचना चाहते थे।


प्रफुल्ल किसी प्रकार से कोलकाता की रेल में बैठ गये। उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था। उसे शक हो गया। उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा लेकिन इसके पहले ही प्रफुल्ल ने स्वयं को अपनी पिस्तौल से समाप्त कर लिया। 


इधर खुदीराम एक दुकान पर भोजन करने के लिए बैठ गये। वहां लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहां दो महिलाएं मारी गयीं। यह सुनकर बोस के मुंह से निकल पड़ा- तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया? यह सुनकर लोगों को संदेह हो गया और उन्होनें उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया। मुकदमे में खुदीराम को फांसी की सजा सुनायी गयी। 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर और वंदेमातरम के नारे लाते हुए खुदीराम खुशी-खुशी फांसी पर झूल गये। उस समय उनकी आयु 18 साल, आठ महीने और 8 दिन थी। किंग्सफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड़ दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी जल्द ही मौत हो गयी।  


बलिदान के बाद बढ़ गयी लोकप्रियता- खुदीराम को विदाई देते समय अपार जनसमुदाय उपस्थित था। वहां जमा हुए लोग चिता के शांत होने पर चुटकी-चुटकी राख उठा ले गये और घरों में सोने-चांदी तथा हाथी के दांत से बनी कीमती डिब्बियों में उसे सहेजकर रखा। कई लोगों ने उस राख को पूजा घर में रखा तो कई ने उस राख को ताबीजो में डालकर ताबीजो को बच्चों में गले में डालकर पहनाया। तब लोग प्रार्थना करते थे कि, ”हे ईश्वर हमारे बच्चे भी खुदीराम बोस जैसे देशभक्त और बलिदानी बनें।” फांसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक विशेष प्रकार की धोती बुनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। उनके साहसिक योगदान को अमर बनाने के लिए गीत रचे गये और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोकगायक आज भी गाते हैं।


खुदीराम बोस के बलिदान का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि उस समय विद्यार्थियों के मध्य वंदेमातरम और आनंदमठ के पठन पाठन में रुचि बढ़ गयी। पीताम्बर दास ने उनके सम्मान में एक गीत लिखा था जो आज भी बंगाल के घर घर में गाया जाता है और वहां का हर बालक यह गीत गुनगुनाता है जिसका शीर्षक है ''ऐक बार बिदाए दे मां घूरे आषि'' (एक बार विदाई तो दे मां ताकी मैं घूमकर कर आ जाऊं)। क्रांतिवीर खुदीराम बोस का स्मारक बनाने की योजना कानपुर के युवकों ने बनाई और उनके पीछे असंख्य युवक इस स्वतंत्रता यज्ञ में आत्मसमर्पण करने के लिए आगे आये। इन क्रांतिकारियों के त्याग की कोई सीमा नहीं थी।

 

खुदीराम बोस एक उत्साही, दृढ़ और आदर्शवादी व अनुशासित रहने वाले महान युवा क्रांतिकारी थे। वह मन ही मन वंदेमातरम का गायन किया करते थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने खुदीराम बोस के बलिदान पर कई लेख लिखे हैं। पुणे से प्रकाशित अपने पत्र के 10 मई 1908 के अंक में तिलक ने लिखा, ''यह चरम प्रतिवाद को साकार रूप में प्रस्तुत करने के लिए चरम विद्रोह का मार्ग है और इसके लिए अंग्रेज सरकार ही जिम्मेदार है।'' पूरे देश में खुदीराम बोस के चित्र बांटे गये थे और अनेक व्याख्यान आयोजित किये गये थे।


- मृत्युंजय दीक्षित

प्रमुख खबरें

मेरे लिए तो था.... पहली नजर में ही Zaheer Iqbal को दिल दे बैठी थीं Sonakshi Sinha

महाराष्ट्र में फिर एक बार महायुति सरकार, CM की रेस बरकरार, झारखंड में हेमंत सोरेन का चमत्कार

America द्वारा लगे आरोपों के बाद Adani Group के CFO का आया बयान, कहा समूह की 11 कंपनियों में...

किस खबर के सामने आते ही सोशल मीडिया पर होने लगी Tamannaah Bhatia और Vijay Varma की शादी की चर्चाएं?